कोरोना से ज्यादा पैसे की कमी और भूखमरी के डर से गांव लौटे थे प्रवासी कामगार: गांव कनेक्शन सर्वे

लॉकडाउन के दौरान लाखों प्रवासी कामगार अपने गांव, अपने घर लौट गये। पैदल चलते-चलते हजारों की जान भी चली गई, लेकिन ये कामगार शहरों से क्यों गये, इनके मन में कैसा डर था? क्या डर बस कोरोना वायरस का ही था?

Update: 2020-08-17 14:15 GMT

"कोरोना वायरस का तो नहीं पता, लेकिन गांव नहीं आता तो मेरा पूरा परिवार वहां भूखे जरूर मर जाता। गांव आ गये तो समझिये जान बच गयी।" उपेंद्र मांझी बताते हैं।

उपेंद्र उत्तर प्रदेश के जिला हमीरपुर के राठ के रहने वाले है और गुजरात के अहमदाबाद में रहते थे। वहां वे जिंस पैंट बनाने वाली कंपनी में लेबल लगाने का काम करते थे। वे कहते हैं, "मार्च में लॉकडाउन शुरू होते ही कंपनी में काम बंद हो गया। उसके बाद सैलेरी नहीं मिली। जेब में पेट पालने के लिए एक पैसे नहीं थे। फिर बीवी और दो बच्चों के साथ किसी तरह गांव लौट आया।"

देश के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया संस्थान गांव कनेक्शन ने कोरोना लॉकडाउन के बाद उपजी स्थिति का जायजा लेने के लिए देश भर के 20 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों के 179 जिलों में 25,000 से ज्यादा ग्रामीणों के बीच एक सर्वे किया। यह सर्वे 30 मई से 16 जुलाई के बीच चला, जिसमें 25,371 लोग भाग लिए। इस सर्वे में ग्रामीणों ने लॉकडाउन से उपजे मुश्किलों को गांव कनेक्शन के साथ साझा किया।

इस सर्वे में शामिल 963 प्रवासी कामगारों में से 36 फीसदी लोगों ने माना कि लॉकडाउन के दौरान शहरों में उन्हें सबसे ज्यादा डर कोरोना वायरस का था, जबकि 29 फीसदी लोगों ने माना कि सैलरी न मिलने और पैसे न होने की वजह से वे गांव लौट आयें। इनमें से 8 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें शहर में इस बात का डर था कि कहीं वहां वे भुखमरी के शिकार ना हो जाएं। 8 फीसदी लोगों ने यह भी कहा कि वे ऐसे मुश्किल समय में अपने परिवार के साथ रहना चाहते थे, इसलिए गांव लौट आये। 5 फीसदी नौकरी जाने या कोई काम न होने की वह से तो 2 फीसदी लोग ऐसे भी रहें जो मकान मालिक द्वारा पैसे मांगने के कारण गांव लौट आये।

मध्य प्रदेश के जिला उमरिया, पंचायत ममान के गांव नेऊसा के वीरेंद्र सिंह औरंगाबाद के जालान में सरिया कंपनी में काम करते हैं। वे नौ मई को अपने गांव लौट आये। बंटाई पर खेत लेकर खेती कर रहे हैं। वे गांव कनेक्शन को बताते हैं, "कंपनी बंद हो गई थी। किसी तरह एक महीने वहां रुके रहें। फिर पैसे खत्म हो गये। लोग खाना देते थे उसी से काम चलता था। फिर धीरे-धीरे वह भी बंद होने लगा। एक टाइम ही खाना मिलता। न खाना था और न ही पैसे। ऐसे में मेरे साथ कई लोग अपने गांव लौट आये। यहां राशन मिल रहा। थोड़ा बहुत काम कर ले रहा हूं।"

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"कोरोना का डर तो था ही लेकिन हमें ज्यादा चिंता खाने की थी क्योंकि हमारे पैसे भी नहीं थे कि हम कुछ खरीदकर खा पाते। गांव लौट आया तो यहां कम से कम भूखे नहीं मरूंगा।"

कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन लगते ही देश में आजादी के बाद का दूसरा सबसे बड़ा रिवर्स माइग्रेशन हुआ और एक करोड़ से अधिक लोग दिल्ली, मुंबई, सूरत, चेन्नई जैसे महानगरों को छोड़कर अपनी गांवों की तरफ लौट आए।

हालांकि यह एक करोड़ का आंकड़ा अलग-अलग सोर्सेज से है। लॉकडाउन के दौरान देश के मुख्य श्रम आयुक्त ने कहा कि लगभग 26 लाख प्रवासी मजदूर रिवर्स पलायन किए। जबकि भारत सरकार के ही सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि लगभग 97 लाख प्रवासी मजदूर लॉकडाउन के दौरान वापस घर गए।

वहीं प्रवासी मजदूरों पर शोध करने वाले शोधार्थियों का कहना है कि ऐसे प्रभावित मजदूरों की संख्या 2 करोड़ से 2.2 करोड़ तक रही। गौरतलब है कि द इकोनॉमिक सर्वे, 2017 के अनुसार देश भर में प्रवासी मजदूरों की कुल संख्या 6 करोड़ से अधिक है, जो रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीण भारत से शहरों की तरफ जाते हैं।

मध्य प्रदेश के जिला सतना में रहने वाले राजेश पांडेय मुंबई की एक टेक्स्टटाइल कंपनी में काम करते थे। वे मुंबई से अपने गांव क्यों लौटे, इसे बारे में बताते हैं, "हम लोग जहां रहते थे वहां कोरोना का डर बहुत ज्यादा था। हमारी बिल्डिंग में कई मामले सामने आये थे और इलाज की व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं थी।"

"और हमारे पास पैसे भी नहीं थे। कंपनी बंद हो गई थी। खाने की दिक्कत होने लगी। इसलिए मैं वहां से आ गया।" राजेश आगे बताते हैं।

अपने गांव लौट आये कामगार लॉकडाउन में जब तक शहरों में रहे उन्हें खाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।


गांव कनेक्शन के सर्वे में शामिल शहरों से लौटे 963 कामगारों में से 17 फीसदी लोगों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान जब वे शहरों में थे तब उन्होंने कई बार अपने खाने में से एक या दो चीजें जैसे किसी ने रोटी नहीं खाई तो किसी ने सब्जी की जगह बस दाल ही खाया। 22 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्होंने खाने की चीजों में कटौती कभी-कभार की। 20 फीसदी लोगों ने कहा कि कुछ खास नहीं जबकि 28 फीसदी लोगों ने किसी भी प्रकार की कटौती से इनकार किया। 13 फीसदी लोगों ने कोई जवाब नहीं दिया।

लॉकडाउन के दौरान श्हरों में रह लोगों के सामने खाने को लेकर इतनी ज्यादा दिक्कत पैदा हो गई थी कि लोगों को भूखे पेट भी सोना पड़ा। सर्वे में शामिल 16 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्होंने एक समय ही खाना खाया। यानी कि एक टाइम खाना ही नहीं खाया। 25 फीसदी लोगों ने कहा कि ऐसा कभी-कभार ही हुआ जब उन्होंने एक टाइम का पूरा खाना ही नहीं खाया हो। 15 फीसदी लोग ऐसे भी रहे जिन्होंने कहा कि बहुत ज्यादा कटौती नहीं कि और 31 फीसदी लागों से इससे इनकार किया कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान कभी भी एक टाइम का पूरा खाना ही नहीं खाया।

सर्वे में और कई चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है। 13 फीसदी लोग ऐसे भी रहे जिन्होंने माना कि लॉकडाउन के दौरान शहरों में उन्होंने कई बार पूरे-पूरे दिन ही खाना नहीं खाया। पूरा दिन भूखे पेट बिताना पड़ा। इनमें 23 फीसदी लोग ऐसे भी रहे जिन्होंने कहा कि वे कभी कभार पूरे दिन भूखे रहे और 15 फीसदी लोगों ने कहा कि ऐसा बहुत कम बार हुआ जबकि 35 फीसदी लोगों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। 13 फीसदी लोगों ने कोई जवाब नहीं दिया।


बिहार के अररिया जिले के रहने वाले नूर आलम जयपुर में एक लेडीज शूट बनाने का काम करते थे। मई में वे किसी तरह बस, ट्रक से सफर करके अपने घर पहुंचे। वे फोन पर बताते हैं, "कंपनी ने लगभग 25 दिन का पैसा नहीं दिया। हम मुश्किल से 7 से 8 हजार रुपए महीने ही कमाते थे। उनमें से कुछ पैसे घर भी भेजते थे। हमारे पास बहुत पैसे नहीं बचते थे, ऐसे में जब कंपनी ने पैसे रोक लिये तो हमें खाने की दिक्कत होने लगी।"

"शुरू में तो कई दिन तक लोग खाने को लेकर ऐलान करते थे तब वहां जाकर दोनों टाइम का खाना ले आते थे। फिर उन लोगों ने बंद कर दिया। कई बार तो ऐसा हुआ है कि हम पूरे दिन बिस्किट खाकर ही रह गये। हमारे पास न तो पैसे थे और न ही खाने का सामाना। फिर हमें लगा कि अगर हम घर नहीं गये तो मर ही जाएंगे।" नूर आलम आगे कहते हैं।

लॉकडाउन के दौरान शहरों में रह रहे लोगों को इलाज और जरूरी दवाओं के लिए भी काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। सख्ती के कारण लोग दवा तक नहीं ले पाये।

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सर्वें में शामिल 15 फीसदी लोगों ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान जब वे शहर में थे तब जरूरी दवा नहीं ले पाये या उन्हें जरूरी इलाज नहीं मिल पाया। 22 फीसदी लोगों के सामने यह समस्या कुछ समय के लिए थी जबकि 14 फीसदी लोगों ने कहा कि दवाओं के लिए उन्हें बहुत ज्यादा परेशान नहीं होना पड़ा। 36 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें दवाओं के लिए कभी परेशान नहीं पड़ा वहीं 13 फीसदी लोगों ने कोई जवाब नहीं दिया।

लॉकडाउन के दौरान शहर गुजरात के अहमदाबाद में फंसे झारखंड की राजधानी रांची के परवेज की इलाज न मिल पाने के कारण मौत हो गई थी। रांची के ईटकी थानाक्षेत्र के ठाकुरगंज रहने वाले परवेज ने वीडियो जारी करके मदद की अपील की थी। उनकी दोनों कीडनी खराब थी।

परवेज के बड़े भाई तौहिद अंसारी गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "22 मार्च को परवेज ने फोन किया था। तब उसने बताया कि वह बीमार है और उसके पास खाने को कुछ नहीं है। उसके पास पैसे भी नहीं थे। मैंने उसके खाते में यहां से 1,200 रुपए भिजवाये लेकिन वह उसे निकाल नहीं पाया। इसके तुरंत बाद लॉकडाउन लग गया। उसके बाद से ठीक से वह वहां खा-पी नहीं पा रहा था। लॉकडाउन की वजह से उसका इलाज नहीं हो पाया। हम तो यहां इतनी दूर थे, जाते भी तो कैसे। छह महीने पहले जब वह घर आया था तो एक दम ठीक था। कई महीने से उसके पास कोई काम भी नहीं था, इसलिए भी बहुत परेशान था।"


उत्तर प्रदेश के जिला भदोही के नीरज कुमार के सामने भी कुछ ऐसी दिक्कत आई थी। वे मुंबई में रहते थे इलेक्ट्रॉनिक का काम करते थे। वे बताते हैं, "मेरे गले में काफी दिक्कत आ गई थी। लीवर में भी दिक्कत थी। लॉकडाउन से पहले ही डॉक्टर को दिखाया था। लॉकडाउन के दौरान दवा खत्म होने के बाद डॉक्टर ने क्लीनिक ही नहीं खोला। सरकारी अस्पतालों में गया तो वहां बस कोरोना की जाच कर रहे थे। मजबूरी में भागकर गांव आया और यहां के डॉक्टर से इलाज शुरू कराया।"

बाहर शहरों में रहे लोगों में से भी खाने की दिक्कत उन लोगों को ज्यादा हुई जिनकी मासिक आय कम रही है। गांव कनेक्शन के सर्वे में शामिल लोगों में से 34 फीसदी लोग जिनकी मासिक कमाई 5,000 रुपए तक थी, उन्हें अपने खाने में से कई बार कोई न कोई आइटम कम करना पड़ा। 33 फीसदी लोग ऐसे रहे जिन्होंने कई दिन एक टाइम ही खाना खाया। 25 फीसदी लोग तो कई बार पूरा दिन बिना खाने की रह गये। वहीं 32 फीसदी लोगों को जिन्हें दवा और इलाज की जरूरत थी, नहीं मिल पाया।

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पांच हजार से 10,000 रुपए कमाने वालों लोगों की स्थिति थोड़ी ठीक रही। इस कमाई के बीच वालों में 20 फीसदी लोग ऐसे रहे जिन्हें अपनी थाली में से खाने के कई बार खाने की कोई न कोई चीजें कम करने पड़े जबकि 19 फीसदी लोगों ने कई बार एक टाइम खाना ही खाया। 17 फीसदी लोग कई बार पूरे दिन बिना खाये रहे जबकि 16 फीसदी लोगों को लॉकडाउन की वजह से इलाज या दवा नहीं मिल सका।

दस हजार रुपए महीने से ज्यादा कमाने वालों की स्थिति थोड़ी और बेहतर रही। 10 फीसदी लोगों ने ही कहा कि उन्हें अपने खाने में से कुछ न कुछ कम करना पड़ा जबकि 8 फीसदी लोग ही ऐसे रहे जिन्होंने कभी न कभी एक टाइम खाना ही खाया। 4 फीसदी लोगों ने स्वीकार किया कि उन्हें भी कई बार भूखे रहना पड़ा जबकि 1 फीसदी ने लोगों ने कहा कि उन्हें इस दौरान दवा और इलाज नहीं मिल पाया।

सर्वेक्षण की पद्धति

भारत के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया संस्थान गांव कनेक्शन ने लॉकडाउन का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव के लिए कराए गए इस राष्ट्रीय सर्वे को दिल्ली स्थित देश की प्रमुख शोध संस्था सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम के परामर्श से पूरे भारत में कराया गया।

देश के 20 राज्यों, 3 केंद्रीय शाषित राज्यों के 179 जिलों में 30 मई से लेकर 16 जुलाई 2020 के बीच 25371 लोगों के बीच ये सर्वे किया गया। जिन राज्यों में सर्वे किया गया उनमें राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, असम, अरुणांचल प्रदेश, मनीपुर, त्रिपुरा, ओडिशा, केरला, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और चंडीगढ़ शामिल थे, इसके अलावा जम्मू-कश्मीर, लद्धाख, अंडमान एडं निकोबार द्वीप समूह में भी सर्वे किया गया।

इन सभी राज्यों में घर के मुख्य कमाने वाले का इंटरव्यू किया गया साथ उन लोगों का अलग से सर्वे किया गया जो लॉकाडउन के बाद शहरों से अपने गांवों को लौटे थे। जिनकी संख्या 963 थी। सर्वे का अनुमान 25000 था, जिसमें राज्यों के अनुपात में वहां इंटरव्यू निर्धारित किए गए थे। इसमें से 79.1 फीसदी पुरुष थे और और 20.1 फीसदी महिलाएं। सर्वे में शामिल 53.7 फीसदी लोग 26 से 45 साल के बीच के थे। इनमें से 33.1 फीसदी लोग या तो निरक्षर थे या फिर प्राइमरी से नीचे पढ़े हुए सिर्फ 15 फीसदी लोग स्नातक थे।


सर्वे में शामिल 43.00 लोग गरीब, 24.9 फीसदी लोवर क्लास और 25. फीसदी लोग मध्यम आय वर्ग के थे। ये पूरा सर्वे गांव कनेक्शन के सर्वेयर द्वारा गांव में जाकर फेस टू फेस एप के जरिए मोबाइल पर डाटा लिया गया। इस दौरान कोविड गाइडलाइंस (मास्क, उचित दूरी, हैंड सैनेटाइजर) आदि का पूरा ध्यान रखा गया।

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गांव कनेक्शन के संस्थापक नीलेश मिश्रा ने इस सर्वे को जारी करते हुए कहा, "कोरोना संकट की इस घड़ी में ग्रामीण भारत, मेनस्ट्रीम राष्ट्रीय मीडिया के एजेंडे का हिस्सा नहीं रहा। यह सर्वे एक सशक्त दस्तावेज है जो बताता है कि ग्रामीण भारत अब तक इस संकट से कैसे निपटा और आगे उसकी क्या योजनाएं है? जैसे- क्या वे शहरों की ओर फिर लौटेंगे? क्या वे अपने खर्च करने के तरीकों में बदलाव करेंगे, ताकि संकट की स्थिति में वे तैयार रहें और फिर से उन्हें आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना पड़े।"

सीएसडीएस, नई दिल्ली के प्रोफेसर संजय कुमार ने कहा, "सर्वे की विविधता, व्यापकता और इसके सैंपल साइज के आधार पर मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि यह अपनी तरह का पहला व्यापक सर्वे है, जो ग्रामीण भारत पर लॉकडाउन से पड़े प्रभाव पर फोकस करता है। लॉकडाउन के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क और अन्य सरकारी नियमों का पालन करते हुए यह सर्वे गांव कनेक्शन के द्वारा आयोजित किया गया, जिसमें उत्तरदाताओं का फेस टू फेस इंटरव्यू करते हुए डाटा इकट्ठा किए गए।"

"पूरे सर्वे में जहां, उत्तरदाता शत प्रतिशत यानी की 25000 हैं, वहां प्रॉबेबिलिटी सैम्पलिंग विधि का प्रयोग हुआ है और 95 प्रतिशत जगहों पर संभावित त्रुटि की संभावना सिर्फ +/- 1 प्रतिशत है। हालांकि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से उनके जनसंख्या के अनुसार एक निश्चित और समान आनुपातिक मात्रा में सैंपल नहीं लिए गए हैं, इसलिए कई लॉजिस्टिक और कोविड संबंधी कुछ मुद्दों में गैर प्रॉबेबिलिटी सैम्पलिंग विधि का प्रयोग हुआ है और वहां पर हम संभावित त्रुटि की गणना करने की स्थिति में नहीं हैं," संजय कुमार आगे कहते हैं।

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