महिलाओं के साथ अपराध : ‘सिर्फ सज़ा ज्यादा होने से काम नहीं चलेगा’ 

Update: 2018-05-10 11:03 GMT

लखनऊ। एनसीआरबी डेटा के हिसाब से पिछले 10 सालों में बच्चों के ऊपर होने वाले अपराध के मामलों में 500 गुना की वृद्धि हुई है। ऐसा नहीं ये अभी हुआ है। ऐसे कई मामले होते रहते हैं, लेकिन उस समय ऐसा माहौल होता है कि सब लोग उससे प्रभावित हो जाते हैं और बात पूरी दुनिया तक पहुंच जाती है।

ये सबको पता चलना चाहिए क्योंकि ये मामले बढ़ रहे हैं। ये कोई छोटे मामले नहीं हैं। केस तो इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं, लेकिन इनके जो न्याय हैं इनमे किसी भी प्रकार का सुधार सामने नहीं आया है।

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ये बेहतर होगा कि ये चीजें लोगों तक जाएं और लोग इन चीजों को जानें, क्योंकि लोग जितना जानेंगे उतना आगे आएंगे। अब स्थिति बहुत गंभीर हो गयी है। पूरे भारत के आंकड़ों की बात की जाए तो पूरे देश में होने वाले मामलों में से 40 प्रतिशत केस केवल उत्तर प्रदेश में हो रहे हैं। पिछले 10 सालों में बच्चों के खिलाफ अपराध 500 गुना बढ़ा है।

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Posted by Gaon Connection on Monday, May 7, 2018

ये बहुत बड़ी बात है, लेकिन उन्हीं दस सालों में इन अपराधों के लिए सबसे अच्छा कानून पाक्सो एक्ट भी आया है। इससे कई अच्छे न्याय भी मिले हैं। लोगों ने चुप्पी भी तोड़ी है। बच्चों वाले मामलों में 95 प्रतिशत उनके जानने वाले होते हैं जो उनके साथ यौन शोषण करते हैं।

परिवार में जो यौन शोषण और यौन हिंसाएं हो रही हैं उसमें बहुत सारे मामले हमने खुद देखे हैं, जिसमें पतियों ने विडियो दिखा कर कहा है कि तुम मेरे साथ ऐसे रहो। लोगों ने कहा है कि मेरे साथ इस तरीके से सम्बन्ध में रहो।

जेजे एक्ट के अनुसार, अगर 18 साल से कम का कोई भी बच्चा कोई अपराध करता है तो उनको बाल सुधार गृह जाना होता है। ये माना जाता हैं कि उन्हें सुधार के लिए बाल सुधार गृह भेजा जाना चाहिए। उन्हें जेल नहीं भेजा जाता है।

ये सब इसलिए किया गया हैं, जिससे वो अच्छे नागरिक बनकर वापस आ सकें। अगर कोई नाबालिक कोई अपराध करता है तो उसे सिर्फ 18 साल तक उम्र तक बाल सुधार गृह में रखा जाता है उसके बाद उसे छोड़ दिया जाता है।

निर्भया कांड के बाद कानून में कुछ सुधार हुआ हैं कि अगर कोई नाबालिग बेहद दरिंदगी के साथ अपराध करता है तो उसे 16 साल की उम्र में भी वैसे ही सजा दी जा सकती है जैसे किसी व्यस्क अपराधी को दी जाती है।

महिलाएं जब जेल जाती हैं तो उनको पूछने वाला कोई नहीं होता है, क्योंकि उन्हें निकालने में किसी की रुचि नहीं होती है। धारा 379 में जिसमें केवल तीन साल की सजा है वो पांच साल हो गयी है। जरूरी ये नहीं होता हैं कि कितनी सजा मिल जाये।

अगर पाक्सो के कन्वेंशनल रेट को देखें तो 29 प्रतिशत है और सरकारी आंकड़े कहते हैं 52 प्रतिशत बच्चों के साथ कभी न कभी यौन शोषण हुआ रहता हैं, जिसमें लड़की भी शामिल हैं।

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75 प्रतिशत बच्चे किसी को भी बताते नहीं है कि उनके साथ यौन हिंसा हुई है। 25 प्रतिशत जो भी बच्चे बता पाते हैं अपने घर में उसमें कोशिश ये होती है कैसे भी एफआईआर न हो। ये लोग अपने आपकी बदनामी को बचाते हैं।

ये नहीं देखते हैं कि अगर ये बाहर घूमता रहेगा तो न जाने कितना खतरनाक होगा। जिसमें एफआईआर की जाती भी है उसमें कई कमियां सामने आती हैं। बच्चे का बयान नहीं होता है। बच्चे का मेडिकल ठीक से नहीं होता है। 90 प्रतिशत मामलों में मेडिकल 30 दिन बाद हुआ है।

इतने दिन बाद मेडिकल के कौन-सा फोरेंसिक मिलने वाला है। जब केस लम्बा खींच देते हैं तो उसमें दिक्कत ये आती हैं कि हम लोग चीजों को जब भूल जाते हैं तो बच्चा कैसे उन चीजों को याद रखेगा।

सजा ज्यादा होने से काम नहीं चलेगा, कन्वेंशनल रेट में सुधार होनी चाहिए। हम देखते हैं जब लड़कियों के साथ ऐसा कोई हादसा होता है तो उसका बाहर जाना बंद कर देते हैं। उसका स्कूल जाना बंद कर देते हैं या लड़की की शादी कर देते हैं। मेरे हिसाब से सजा हो लेकिन सजा कितनी होनी चाहिए ये नहीं होना चाहिए।

लेखिका आली (एसोसिएशन फॉर एडवोकेसी एंड लीगल इनिशिएटिव्स) की कार्यकारी निदेशक हैं।

गांव कनेक्शन साप्ताहिक अख़बार में प्रकाशित खबर

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