लॉकडाउन में संकट से जूझतीं घरेलू कामगार, मार्च के बाद से इन्हें न काम मिला और न ही तनख्वाह

देशव्यापी लॉकडाउन ने ऐसी लाखों महिलाओं की जिंदगी पर गहरा असर डाला है जो घरों में काम करके गुजारा करती थीं। जिन घरों में ये काम करती थीं, कोरोना संक्रमण के दौरान इन्हें काम पर आने से मना कर दिया गया और मार्च के बाद से पैसे भी नहीं दिए गये। ऐसे में हैरान परेशान ये महिलाएं नहीं जानती कि ये मदद के लिए कहां जाएं?

Update: 2020-05-26 01:45 GMT

इस बस्ती की महिलाओं में गुस्सा, नाराजगी और चिंता थी। इन्हें काम पर वापस कबतक बुलाया जाएगा इसको लेकर इन महिलाओं में अनिश्चितता है। हैरान परेशान ये महिलाएं नहीं जानती कि ये मदद के लिए कहां जाएं?

मुंह पर कपड़ा बांधे भीड़ में खड़ी एक दुबली पतली महिला मालती (35 वर्ष, बदला हुआ नाम) बोली, "काम पर नहीं बुला रहीं इसमें मेरी क्या गलती? मार्च के बाद से पैसा नहीं दिया क्योंकि हमने काम नहीं किया। हम तो रोज फोन करके पूछते हैं मेमसाहब कब आ जाएं? वो हर बार एक ही जबाब देती हैं जब लॉकडाउन खुलेगा बुला लूंगी।"

मालती उत्तर प्रदेश लखनऊ के पावर हाउस सेक्टर-जी की रहने वाली हैं। मालती बताती हैं, "मालिक का साफ़ कहना है जब काम पर नहीं आयी हो तो पैसे किस बात के दूँ। इस बात को मैं भी समझती हूँ कि जब हमने काम नहीं किया तो पैसे किस बात के? लेकिन काम पर न बुलाना उनका फैसला था क्योंकि हम छोटी बस्ती में रहते हैं, कोरोना का डर था उन्हें। हम तो पहले दिन से ही काम पर जाना चाहते थे। कौन जानता था ये लॉकडाउन इतने दिन बढ़ेगा।"


देशव्यापी लॉकडाउन ने मालती की तरह ऐसी लाखों महिलाओं की जिंदगी पर गहरा असर डाला है जो घरों में काम करके गुजारा करती थीं। जिन लोगों के घरों में ये काम करती थीं, कोरोना संक्रमण के दौरान उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों ने अपनी घरेलू कामगारों को काम पर आने से मना कर दिया और मार्च के बाद से पैसे भी नहीं दिए। 

मालती जिस बस्ती में रहती हैं यहाँ की 95 फीसदी महिलाएं घरेलू कामगार हैं। इन परिवारों की रोजी-रोटी का मुख्य आधार दूसरे के घरों में झाड़ू-पोछा, बर्तन और खाना बनाकर ही गुजारा होता है। ये परिवार ज्यादातर किराए के घरों में रहते हैं जो कई शहरों से पलायन करके अपनी जीविका के लिए लखनऊ आये हैं। इनके लिए इस समय परिवार का खर्चा चलाना और घर का किराया देना मुश्किल हो रहा है। 

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ ) 2011-12 के 68वें चरण के अनुसार देश में निजी परिवारों में तकरीबन 39 लाख घरेलू कामगार काम करते हैं जिनमें 26 लाख महिलाएं हैं। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार देश भर में क़रीब 47 लाख लोग घरेलू मदद के रूप में काम करते हैं जिसमे से लगभग 30 लाख महिलाएं हैं।

लॉकडाउन में ये दर्जनों महिलाएं रोजी-रोटी के संकट से जूझ रही हैं.

घरेलू कामगारों के साथ काम करने वाली एक गैर सरकारी संस्था अखिल भारती जन वादी महिला समिति की प्रदेश उपाध्यक्ष मधु गर्ग बताती हैं, "कई लोगों ने तो इन्हें 23 मार्च से ही तनख्वाह नहीं दी है। अप्रैल महीने की तनख्वाह हजार में एक लोग ने ही दी है। जिन घरों को ये साफ़-सुधरा रखती हैं इनकी ही कोई पहचान नहीं है। घरेलू कामगरों के लिए कोई कानून नहीं है। जिसका जितने पैसे में मन किया रख लिया, इनकी न कोई छुट्टी है और न ही इन्हें मजदूरों का दर्जा मिला है।"

घरेलू कामगारों के हक़ और अधिकारों पर काम करने वाली मधु गर्ग आगे बताती हैं, "अपार्टमेंट में काम करने वाली महिलाओं को ज्यादा मुश्किल हैं वो तो सीधे जा भी नहीं सकतीं। गेटमैन से बात करने के लिए ये नम्बर मिलवाती हैं, गेटमैन को ही उधर से जबाव मिल जाता है इसे भगा दो। ये बहुत ही आमानवीय स्थिति है। अगर पैसे वाले लोग महीने का दो तीन चार हजार रुपए दे भी देंगे तो उनके ऊपर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन इनके लिए बहुत सहूलियत हो जाएगी।"  

लॉकडाउन के दौरान स्पष्ट रूप से यह सरकारी आदेश था कि किसी का भी इस दौरान पैसा न काटा जाये लेकिन हकीकत में इसका क्रियान्वयन नहीं हुआ। इन घरेलू कामगार महिलाओं की स्थिति मुश्किल भरी है क्योंकि इनके लिए कोई नियम कानून ही नहीं बने हैं। जिसकी वजह से सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रहती हैं। 

इन घरेलू कामगारों को लॉकडाउन में न काम मिल रहा न तनख्वाह.

लॉकडाउन में घरेलू कामगरों की ये स्थिति सिर्फ यूपी की नहीं है। झारखंड, बिहार और बंगाल की ज्यादातर महिलाएं आजीविका की तलाश में दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद और सूरत जैसे बड़े शहरों का रुख करती हैं। कोरोना काल में इन प्रवासी घरेलू कामगारों की स्थिति बहुत ही दयनीय हो गयी है। एक ओर इन महिलाओं को उनके मालिक पैसे नहीं दे रहे जहां ये काम करती हैं वहीं दूसरी ओर इन्हें सरकारी योजनाओं लाभ नहीं मिल पाता क्योंकि ये प्रवासी हैं।

झारखंड के सिमडेगा जिले से दिल्ली काम करने आयी सुनीता (28 वर्ष, बदला हुआ नाम) बताती हैं, "हम दिल्ली में कई सालों से यही काम कर रहे हैं। पहली बार हमारे मालिक ने हमसे मुंह फेर लिया है। घर खाली हाथ वापिस जाकर भी क्या करेंगे? हम तो बस यही चाहते हैं जल्दी से ये लॉकडाउन खुले और हमें काम पर वापस बुलाया जाए। अगर ऐसे एक महीने और टला तो भूखे मरने की नौबत आ जायेगी।"

सुनीता की तरह झारखंड के गुमला, खूंटी और सिमडेगा जिले से पलायन करके गयी सैकड़ों महिलाएं लॉकडाउन में मुश्किल हालातों में जी रही हैं। इनके सामने अब हर दिन पेट भरना चुनौती बन गया है। कुछ महिलाएं वापस जाना चाहती हैं पर ज्यादातर महिलाएं इस आस में बैठी हैं कि जल्दी से लॉकडाउन खुले और उन्हें काम पर वापस बुलाया जाए।

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दिल्ली जैसे बड़े शहरों में अभी पांच सात प्रतिशत महिलाएं ही ऐसी हैं जो काम पर लौट सकीं हैं। ज्यादातर महिलाओं को काम पर इसलिए नहीं बुलाया जा रहा है क्योंकि वो मलिन बस्तियों में रहती हैं जहां साफ-सफाई का वो उस तरह से ख्याल नहीं रख सकती जिस तरह से रखना चाहिए। ऐसे हालातों में मसला इनकी रोजी-रोटी का है। 

पन्द्रह साल से झाड़ू-पोछा का काम करने वाली मालती दो महीने से पैसा न मिलने से काफी परेशान है। इनके पति दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। इधर काम बंद होने से वो भी घर बैठे हैं। मालती के तीन बच्चे हैं, इस समय इनकी छोटी बेटी की तबियत बहुत खराब है। मालती बताती हैं, "इधर-उधर से उधार पैसा लेकर डॉ को दिखाया है, कुछ दिन अस्पताल में भर्ती भी रही। इतना पैसा नहीं था कि ज्यादा दिन भर्ती रखती, घर ले आयी। एक तो ऐसे में बच्ची बीमार दूसरा एक भी पैसा हाथ में नहीं। राशन तक की तबाही मच गयी। रोज इस इंतजार में रहते हैं कोई लोग राशन बांटने आ जाए तो कुछ दिन खाना बन सके।"

बदलाव संस्था द्वारा इन घरेलू कामगारों को दिया गया राशन.

आज भी इस बस्ती में एक संस्था के कुछ लोग इन परिवारों को राशन देने आये थे। बदलाव नाम की ये संस्था लखनऊ में भिखारियों के पुनर्वास को लेकर काम करती है। संस्था के सचिव महेंद्र प्रताप बताते हैं, "हमें कुछ दिन पहले इस बस्ती से एक लिस्ट गयी थी कि इन घरों में खाने की दिक्कतें आ रही हैं। आज जब राशन लेकर इन्हें देने आये तो पता चला यहाँ सबकी स्थिति एक जैसी ही है। एक महिला तो ऐसी थी जिसके पास आज खाना बनाने का राशन ही नहीं था। मेरे राशन देने के बाद अब वो खाना बनाएंगी। सरकार को इनके लिए ठोस कदम उठाने चाहिए जिससे इनके ऊपर रोजी-रोटी का संकट न आये।"

महेंद्र जिस महिला की बात कर रहे थे वो महिला कलावती (56 वर्ष, बदला हुआ नाम) थी जिनके पति का कई साल पहले देहान्त हो गया था, इनकी दो बेटियों की शादी हो गयी है। ये अकेले रहकर एक घर में काम करके अपना गुजारा कई सालों से कर रहीं थीं। 

"अब रोज चाय नहीं पी पाते। दिन में एक बार खाना बनाकर रख लेते हैं वही दो बार में खा लेते हैं। आज घर में खाना बनाने के लिए आटा नहीं था। अगर ये भईया राशन देने नहीं आते तो खाना नहीं बनता। मेरे मालिक अपने गाँव चले गये हैं जब वो वापस आएंगे तब काम मिलेगा, तबतक ऐसे ही गुजारा करना है," कलावती ये बताते हुए भावुक हो गईं। 

ये महिलाएं जल्दी से काम पर वापस जाना चाहती हैं जिससे इनकी मुश्किलें कम हो सकें.

लखनऊ में घरेलू कामगारों के साथ काम करने वाली संस्था विज्ञान फाउंडेशन के सचिव संदीप खरे बताते हैं, "कोविड-19 में सोशल डिस्टेंसिंग और साफ-सफाई को लेकर इतनी बातें हो गयी हैं जिससे लोग दहशत में हैं। घरेलू कामगारों को काम पर न बुलाना ये एक महत्वपूर्ण वजह है। कोरोना संक्रमण के ऐसे मुश्किल दौर में इनके मालिकों को पैसे जरुर देने चाहिए पर ऐसा संभव नहीं हुआ। इनसे बातचीत के आधार पर 15-20 फीसदी लोग ही ऐसे हैं जिनके मालिकों ने उन्हें मदद की है बाकी की स्थिति बहुत दयनीय है। 

"अगर इस समय स्वयं सेवी संस्थाएं मदद के लिए आगे न आतीं तो इनकी स्थिति और बद्दत्तर होती। मैं सबसे यही कहना चाहूंगा इस मुश्किल समय में ज्यादा नहीं तो कमसेकम अपने घरों में काम करने वाली महिलाओं की तो जरुर मदद करें, उनकी तनख्वाह न काटें। जितना संभव हो उन्हें राशन दें जिससे उन्हें इस संकट की घड़ी से निपटने में कोई मुश्किल न आये, " संदीप खरे लोगों से घरेलू कामगारों की मदद के लिए अपील करते हैं। 

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