विशेष: गन्ना किसानों के लिए 25 साल चली ये लड़ाई आसान नहीं थी, हार जाते तो किसानों को जमीन तक बेचनी पड़ती- वीएम सिंह

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अब राज्य सरकारें भी गन्ने की कीमत तय कर सकती हैं। जबकि मिलें चाहती थीं कि ये अधिकार केंद्र सरकार के पास रहे। उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के लिए फैसला कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण है। इसी विषय पर हमने गन्ना किसानों की अगुवाई करने वाले किसान नेता सरदार वीएम सिंह से विशेष बातचीत की और इस पूरे घटनाक्रम को समझने की कोशिश की।

Update: 2020-05-13 14:45 GMT
बजट 2021-22 में गन्ना किसानों को क्या मिला? (फोटो- गांव कनेक्शन)

लॉकडाउन में किसानों की बर्बादी की खबरों के बीच 22 अप्रैल 2020 को देश के गन्ना किसानों के लिए एक राहतभरी खबर आई। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि अब गन्ने की कीमत राज्य सरकारें भी तय कर सकती हैं। 27 फरवरी 2020 को सभी पक्षों को सुनने के बाद पांच जजों की संविधान खंडपीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था।

सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के अधिकार को सही माना और चीनी मिलों के वकीलों की याचिका को सात जजों के बेंच ने आगे भेजने के इनकार कर दिया।

मिल मालिक चाहते थे कि गन्ने की कीमत तय करने का अधिकार केवल केंद्र सरकार के पास हो। केंद्र सरकार गन्ना का उचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) तय करती है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में मिल एफआरपी देती है। वहीं, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा में प्रदेश सरकार राज्य समर्थित मूल्य (एसएपी) तय करती है।

फैसला किसानों के हक में देखा जा रहा है, खासकर उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के, लेकिन अगर फैसला इसकी जगह यह आ जाता कि गन्ना किसानों को केंद्र द्वारा निर्धारित मूल्य ही मिलेगा तो क्या होता ? इस बारे में हमने उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के लिए इस पूरी लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले किसान नेता सरदार वीएम सिंह से बात की, उन्होंने सिलसिलेवार इस पूरे घटनाक्रम के बारे में बताया। यह भी बताया कि कैसे प्रदेश के गन्ना किसान भारी नुकसान से बच गये।

आगे वीएम सिंह जो बताते हैं...

सच तो यह है कि आम किसानों को इस बारे में पता हीं नहीं होगा। उन्हें अंदाजा भी नहीं होगा अगर सात जज पूर्व के 2004 के पांच जजों के फैसले को बदल देते तो आगे किसानों को केंद्र द्वारा निर्धारित कम पैसे तो मिलते ही, वर्ष 1996 से राज्य और केंद्र सरकार के गन्ना मूल्य का अंतर वापस करना पड़ता। ऐसा इसलिए करना पड़ता क्योंकि कई वर्षों तक गन्ने की पर्ची पर लिखा होता था, 'लेन-देन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत किया जायेगा'।

लड़ाई 25 साल की है। इसलिए मैं आपको इसे साल दर साल समझाता हूं।

1- वर्ष 1996 से लेकर 2003-04 (8 वर्ष) तक एसएमपी और एसएपी में फर्क 232.70 पैसे था। अगर प्रति एकड़ 250 कुंतल गन्ना की पैदावार की औसत लगाएं तो कुल रकम 58,175 रुपए बनती है। अगर पांच मई 2004 को मिल मालिक जीत जाते तो किसानों को इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के तहत 58,175 रुपए किसानों को प्रति एकड़ वापस करने होते। इन आठ वर्षों में पर्ची पर लिखा रहता था कि लेन देन किया जायेगा सुप्रीम कोर्ट के तहत। तब जब हम जीते थे तब किसानों के खाते में अंतर मूल्य पहुंचा था।

2- वर्ष 2004-2005 से 2011-12 के बीच आठ वर्षों में केंद्र और राज्य सरकार के मूल्य में अंतर था 411.44 पैसे। 250 कुंतल प्रति एकड़ की औसत लगाएं तो कुल रकम 102,970 रुपए बनती है। 17 जनवरी 2012 के आदेश के तहत किसानों को अंतर मूल्य तो मिला पर कोर्ट ने पांच मई 2004 के पांच जजों के फैसले में दोष पाते हुए विचार के लिए 7 जजों को भेज दिया।

3- वर्ष 2012-13 से लेकर 2019-20 तक गन्ना मूल्य का केंद्र और राज्य सरकार का अंतर 505 रुपए प्रति कुंतल था। एक ही साल 2012-13 में 110 रुपए प्रति कुंतल का फर्क था, क्योंकि CO-238 वेरायटी आने के बाद गन्ना का औसत उत्पादन 400 से 600 कुंतल प्रति एकड़ था, अगर 400 कुंतल की भी औसत मानें तो आठ साल में 202,000 रुपए प्रति एकड़ का फर्क बैठता है।


अगर 22 अप्रैल 2020 को सुप्रीम कोर्ट मिल मालिकों की दलील खारिज नहीं करता और कहीं सात जज पांच मई 2004 के फैसले को बदल देते तो किसानों को आज एक एकड़ का 363,145 रुपए वापस करना पड़ता। जमीन बिक जाती, किसान बर्बाद हो जाता। युवा किसान निराश हो जाते।

ये 363,145 रुपए एक एकड़ का हिसाब है। लॉकडाउन में किसानों के पास समय है। वे 1996 से आज तक का अंतर मूल्य और उत्पादन जोड़ लगाकर पिछले 25 साल का हिसाब लगा सकते हैं।

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2004 के फैसले को विचार के लिए सात जजों की बेंच को भेजने की बात कब और कैसे आई, इसे जानने के लिए हमें 1996-97 पेराई सत्र में जाना होगा। उत्तर प्रदेश के मिलों ने एक नवंबर से गन्ना लिया, पर इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका 39889/1996 डाली, जिसमें 11 दिसंबर, 1996 को जस्टिस मार्कंडेय काटजू और बलवीर सिंह चौहान ने आदेश दिए कि राज्य सरकार के पास गन्ना मूल्य घोषित करने का अधिकार नहीं है इसलिए 72 रुपए प्रति कुंतल का गन्ना मूल्य अवैध ठहराया और केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित 45 रुपए प्रति कुंतल के रेट को वैध माना।

दोनों रेट में 27 रुपए यानी कि 1/3 का फर्क था इसलिए किसानों ने आंदोलन किया और सिंभावली चीनी मिल पर तीन किसान शहीद हो गये। सरकार सुप्रीम कोर्ट गई। 22 जनवरी, 1997 को जस्टिस बरुचा और जस्टिस वीएन खरे ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। मिलें गन्ना तो ले रही थीं, पर पैसा नहीं दे रही थीं।

पर्ची पर रेट शून्य लिखकर सील लगी थी 'गन्ना मूल्य सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत दिया जायेगा।'

किसानों से बात करते किसान नेता सरदार वीएम सिंह।

मेरे एक मामले में लखनऊ खंडपीठ ने 27 फरवरी, 1997 को बुलंदशहर की अगौता चीनी मिल की 1996-97 की रिकवरी पिछले साल के 70 रुपए की दर के आधार पर करने की मंजूरी दी तो सरकार ने छह मार्च, 1997 को पर्ची पर 70 रुपए प्रति कुंतल की दर निर्धारित करने का आदेश दिया।

इसके बाद मैंने लखनऊ खंडपीठ में रिट याचिका 2086/1997 दाखिल की जिसमें मैंने कहा कि सरकार और मिल मालिकों की मिलीभगत से उन्होंने इलाहाबाद न्यायालय में यह तथ्य छिपाया कि राज्य सरकार द्वारा निर्धारित गन्ना मूल्य आरक्षण और फॉर्म-सी की वजह से समझौता मूल्य है, इसलिए एसएपी (राज्य परामर्श मूल्य) को सही मानते हुए 72 रुपए दिलवाने के साथ किसानों को 14 दिन विलंब के बाद ब्याज दिया जाए।

एक फरवरी, 1999 को न्यायाधीश हैदर अब्बास रजा और जस्टिस मैथिलीशरण ने एसएपी को समझौता मूल्य मानते हुए राज्य सरकार के अधिकार को माना और ब्याज समेत पैसा देने का आदेश पारित किया।

मिल मालिकों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की और कहा कि राज्य सरकार के गन्ना मूल्य को जब इलाहाबाद न्यायालय ने खारिज कर दिया, तब दो साल बाद उसी गन्ना मूल्य को लखनऊ खंडपीठ कैसे बहाल कर सकता है, उसे खारिज किया जाए।


दोनों मुकदमे नवंबर, 2000 में न्यायाधीश वीएन खरे और न्यायाधीश केजी बालकृष्णन के सामने लगे। कोर्ट ने 15 मिनट में चीनी मिलों के उच्चतम कोटि के वकीलों को सुना। उत्तर प्रदेश और बिहार के वकील दो- दो मिनट में बैठ गये और कोर्ट जब मिलों के हक में फैसला लिखवा रहा था, तब मैंने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि सरकार और मिल मालिक मिले हुए हैं और अगर हमें नहीं सुना गया, तो किसान बर्बाद हो जाएंगे। कोर्ट मुझे दो-तीन बार टोक चुका था और कोर्ट ने कहा कि अगर फिर बोलोगे तो हम जेल भेज देंगे।

मैंने कहा कि मैं जेल जाने को तैयार हूं पर उससे पहले आप मुझे सुन लीजिये। गुस्से में कोर्ट ने दो मिनट का समय दिया। दो मिनट पूरे दिन में तब्दील हो गया। अगले दिन जब कुछ घंटों की बहस के बाद मैं बैठने लगा तब जज साहब ने कहा कि हमने बैठने को नहीं कहा।

हमारी दलील सुनने के बाद कोर्ट ने आदेश दिया कि एक सोसाइटी में एक दर और एक मिल में एक दर होगी, जिससे फॉर्म सी के समझौते के बाद निजी मिलों को भी राज्य सरकार की दर से भुगतान करना पड़ा।

शांति भूषण जी और वेणुगोपाल साहब ने गन्ना मूल्य संबंधी सुप्रीम कोर्ट के दो आदेशों में विरोधाभास बताया। कोर्ट ने मामले को बड़ी बेंच के पास भेज दिया। इस आदेश के बाद भी जब निजी मिलों ने वर्ष 2002-2003 और 2003-04 में एसएपी से कम रेट दिया, तो मेरी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सभी मिल मालिकों, गन्ना आयुक्तों और प्रमुख सचिव के खिलाफ अवमानना का नोटिस दिया। पांच जजों की संविधान पीठ में सुनवाई हुई जिसमें प्रमुख मुद्दा था कि वर्ष 1996-97 के गन्ना मूल्य निर्धारण में इलाहाबाद या लखनऊ खंडपीठ में किसका फैसला सही था।

पांच मई 2004 को संविधान पीठ ने हमारे मामले में लखनऊ पीठ के फैसले को सही माना और उसके बाद किसानों को पिछले भुगतान का अंतर मूल्य मिला।

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मैंने सोचा था कि अब मामला खत्म हो गया, लेकिन मिल मालिक वर्ष 2006-07 के बाद हर साल कोर्ट गये। इस बार राज्य सरकार के अधिकार को चुनौती नहीं दी पर यह कहा कि रेट निर्धारण में गलती है, ज्यादा रेट है कम होना चाहिए क्योंकि मिल मालिक घाटे में हैं। वर्ष 2006-07 के 125 रुपए रेट को 2007-08 में बरकरार रखा तब भी सरकार की मिलीभगत के कारण उसको कोर्ट ने 110 रुपए प्रति कुंतल कर दिया।

सरकार ने अपनी मिलों का भी रेट 110 रुपए कर दिया। इस मुकदमे में मैंने 700 पन्नों का हलफनामा कोर्ट में दाखित किया और 7-8 दिन बहस करके बताया कि मिल मालिक फायदे में हैं और सब ने मिलें बढ़ा ली हैं।


सरकार की खुली मिलीभगत के बाद भी सात जुलाई 2008 को आदेश हमारे पक्ष में आया। मिल मालिक सुप्रीम कोर्ट चले गये पर स्थगित भुगतान किसानों को नहीं मिला। दूसरी तरफ सरकार की मौजूदगी में एक मिल मालिक ने इलाहाबाद कोर्ट से 30 अगस्त 2008 को आदेश लिया जिसमें फिर कहा गया कि राज्य सराकर के पास 125 रुपए तय करने का अधिकार नहीं है और केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित 81.18 रुपए प्रति कुंतल दिया जाये।

इस फैसले के खिलाफ मैं सुप्रीम कोर्ट गया। बाद में सरकार भी आई और दोनों मुकदमे अन्य मुकदमों के साथ तीन जजों की बेंच में नवंबर 2011 में सुने गये, क्योंकि इलाहाबाद कोर्ट ने फिर से राज्य सरकार के अधिकार पर सवाल उठाया था। मिल मालिक ने अब कहा कि वर्ष 2004 की पांच जजों की संविधान पीठ के आदेश और वर्ष 1956 की पांच जजों की संविधान पीठ के आदेश में विरोधाभास है, इसलिए मामले को विचार के लिए सात जजों की संविधान पीठ में भेजा जाये।

मैंने कोर्ट से कहा कि इन आदेशों में विरोध नहीं है पर मिल मालिकों, केंद्र और राज्य सरकार के वकीलों ने सात जजों के विचार के लिए कुछ बिंदु लिखित में दिये। कोर्ट मेरी दलीलों को सही माना और राज्य सरकार से किसानों को सहकारी मिलों से 125-130 रुपए दिलवाए और फिर एक सोसाइटी एक दर के आदेश के तहत निजी मिल मालिकों को भुगतान का आदेश दिया। वहीं कोर्ट ने 1956 और 2004 के आदेशों में विरोधाभास को मानते हुए मामले को सात जजों की बेंच में विचार के लिए भेजने की सिफारिश की।


तीन जजों की बेंच सात जजों की बेंच की सिफारिश नहीं कर सकती, इसलिए पांच जजों के सामने फरवरी, 2020 में मामला आया, जिन्होंने पूरा मामला देखा और अब 79 पेज के आदेश में कहा कि वर्ष 1956 और 2004 के आदेशों में कोई विरोधाभास नहीं है। उन्होंने कहा कि 2004 का आदेश सही है कि राज्य सरकार को गन्ना मूल्य तय करने का अधिकार है।

यह 25 साल की मेहनत है, आसान नहीं था। राज्य सरकार को अपने अधिकार में कम दिलचस्पी थी। वो तो मिल मालिकों को फायदा करवाने में लगी थी इसलिए कभी हाई कोर्ट तो कभी सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया कि वीएम सिंह को न सुना जाये, वह किसान नहीं है।

सरकार ने वर्ष 2011 की बहस से पहले दर्जनों फर्जी मुकदमे लगाकर कोर्ट में जाने से रोकने की कोशिश की और फरवरी 2020 में तो सरकारी वकील साहब बीमार होने के कारण आठ साल बाद लगे केस को आगे बढ़वाना चाहते थे। सरकार चाहे या न चाहे उसका अधिकार सुरक्षित है।

अब सरकार को अपने अधिकार का फायदा मजबूती से उठाना चाहिए और वर्ष 2020-21 के पेराई सत्र में किसानों को उनका वाजिब हक, लागत के डेढ़ गुना दाम दिलवाने की तैयारी करनी चाहिए, ताकि कोरोना महामारी के बाद देहात की अर्थव्यवस्था में असर न आये और किसान, युवाओं की जीविका चलती रहे।

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