हमारा मानदेय निर्धारित हो, सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिले, सुरक्षा पर सरकार ध्यान दे: आशा कार्यकर्ता

देश में चल रहे आशा कार्यकर्ताओं का धरना प्रदर्शन कोई नई बात नहीं है। ये अपनी मांगों को लेकर हमेशा से रोष जताती आयी हैं, पर हर बार सरकार ने इन्हें अनदेखा किया है। ये आशाएं हर आपदा में स्वास्थ्य विभाग के लिए अहम कड़ी रही हैं पर इन्हें आज तक न तो सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिला है न ही निर्धारित मानदेय।

Update: 2020-08-14 21:08 GMT

देश की दस लाख 'पैदल सेना' कोरोना के विरुद्ध एक ऐसा युद्ध लड़ रही है जो करोड़ों लोगों को सुरक्षित रख रहा है। माहमारी से लड़ती इस गुमनाम "कोरोना वॉरियर्स" को अबतक न तो सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिला है, न ही निर्धारित मानदेय। इन्हें कोविड-19 से जंग में बेहतर सुरक्षा के उपकरण भी नहीं मिले हैं।

बीते दिनों देश के अलग-अलग राज्यों में इन आशा कार्यकर्ताओं को अपनी मांगों के लिए एक बार फिर हड़ताल करने के लिए मजबूर होना पड़ा। पंजाब से लेकर दिल्ली तक स्वास्थ्य विभाग की ये अगुवा कोरोना योद्धा अपनी मांगों को लेकर अलग-अलग तरीके से प्रदर्शन कर सरकार के रवैए पर रोष जता रही हैं। दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रही इन आशा कार्यकर्ताओं पर एफआईआर दर्ज हो गयी है। कई जगह ये हड़ताल अभी भी जारी है।

जंतर मंतर पर धरना पर बैठी आशा कार्यकर्ता कविता सिंह मांग करती हैं, "हमें सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिले और हमारा न्यूनतम वेतन निर्धारित किया जाए।"

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वहीं उस भीड़ में सुमित्रा गहलोत कोविड-19 के दौरान काम करने को लेकर अपनी मुश्किलें बताती हैं, "हमारी कोई इज्जत नहीं है। आशाओं के बैठने की कोई जगह नहीं बनाई गयी। रोजाना का 32- 33 रूपये हमें मिलता है इससे ज्यादा इधर-उधर जाने में हमारा किराया लग जाता है। हमें इंसेंटिव नहीं चाहिए वेतन चाहिए। हमें कभी कोई छुट्टी नहीं मिलती। कंटेंटमेंट जोन में घंटो खड़े रहो, न मास्क, न ग्लब्स, सब अपना लेना पड़ता है।"

कविता और सुमित्रा की तरह देश की दस लाख से ज्यादा आशा कार्यकर्ता न्यूनतम मानदेय, सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिलने को लेकर हमेशा से रोष जताती आयी हैं। कभी इनके रोष की आवाज़ दिल्ली तक पहुंचती है कभी पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती है। 

यह कोई पहला मौका नहीं है जब स्वास्थ्य विभाग इन आशा कार्यकर्ताओं की सुरक्षा और निर्धारित मानदेय को गम्भीरता से नहीं ले रहा है। राज्य सरकारें हमेशा इन आशा कार्यकर्ताओं की सुरक्षा में असफल रही हैं। चाहें इनके मानदेय की बात हो या फिर काम करने के घंटों की, या फिर सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिलने की, इसे हमेशा से अनदेखा किया गया है। 

घर-घर जाकर जागरूक करती आशा कार्यकर्ता.

स्वास्थ्य विभाग की पहली सुरक्षा घेरा रही ये आशाएं हर आपदा में अहम कड़ी रही हैं, ये कई सरकारी योजनाओं को अंजाम देती हैं। कोविड-19 के दौरान इन आशाओं को स्वास्थ्य विभाग की तरफ से कई जिम्मेदारियां सौंपी गयी हैं। गाँव में कितने लोग दूसरे राज्यों से आये हैं, किसे खांसी-जुखाम, बुखार है, कितने लोगों की कोविड-19 की जांचे हुई हैं या होनी हैं? क्वारेंटाइन हुए लोगों का 14 दिनों तक फालोअप करना, सर्वे करना जैसे कई काम शामिल हैं। ये घर-घर जाकर लोगों को सही तरीके से हाथ धुलने, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करवाने और मास्क लगाने के फायदे भी बताती हैं।

इन सब कामों के बदले केंद्र सरकार इन्हें अप्रैल से जून महीने तक 1,000 रूपये इंसेंटिव दे रही थी, कई जगह ये पैसा इन्हें अभी तक नहीं मिला और अब जुलाई से वो भी बंद कर दिया गया। मिल रहा इंसेंटिव बहुत कम था और अब वो बंद हो गया जिसको लेकर इनमें नाराजगी है। 

पंजाब की एक आशा कार्यकर्ता इस समय हॉस्पिटल में हैं इनकी 12 अगस्त को कोविड-19 की रिपोर्ट पॉजिटिव आयी है। नौ महीने की गर्भवती अमरजीत कौर (34 वर्ष) गाँव कनेक्शन को फोन पर बताती हैं, "हमारा काम ही ऐसा है जिसमें हमें कभी भी कोरोना हो सकता है। हमारा नवां महीना शुरू हो गया है पर हमने काम करना बंद नहीं किया, क्योंकि इस समय गाँव में अगर किसी को कुछ होता है तो हमारे अलावा उनकी कोई सुनने वाला नहीं।"


अमरजीत कौर उन दस लाख आशा कार्यकर्ताओं में से एक हैं जो इस समय अपनी जान जोख़िम में डालकर करोड़ों लोगों की सुरक्षा रख रही हैं, पर सरकार की तरफ से इनकी सुरक्षा का कोई ख़ास इंतजाम नहीं किया गया। पंजाब की आशाएं जुलाई महीने से कोविड-19 से जुड़े कामों को न करके अपनी मांगों को लेकर रोष जता रही हैं, वहीं हरियाणा की 20,000 आशा कार्यकर्ताएं हड़ताल पर हैं। दिल्ली में 6,000 आशा कार्यकर्ता 21 जुलाई से हड़ताल पर हैं।

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के आंकड़ों के अनुसार सितंबर 2018 तक देश में कुल आशा कार्यकर्ताओं की संख्या लगभग 10 लाख 31,751 है।

"आशा अपने रूटीन काम कर रही है, हमने जुलाई से सिर्फ कोविड-19 से जुड़े कामों को करना बंद कर दिया है। केंद्र सरकार ने 1,000 रूपये देने की जब बात कही थी, काम के हिसाब से यह पैसा बहुत कम था। हमारे यूनियन की 18,000 आशाओं ने काली पट्टी बांधकर शुरुआत में ही रोष जताया था, " परमजीत कौर ने बताया।   

इस प्रदर्शन के बाद पंजाब सरकार ने इन आशाओं को 1,500 रुपए देने की बात कही। अप्रैल से जून तक इन्हें 1500 राज्य सरकार और 1,000 केंद्र सरकार से मिलाकर 2500 रूपये हर महीने मिले। जून के बाद से जैसे ही केंद्र सरकार ने ये पैसे जारी नहीं किये तो पंजाब सरकार ने भी देना बंद कर दिया। पंजाब की आशाओं के युनियन ने जुलाई से कोविड-19 से जुड़े कामों को करना बंद कर दिया है।

पंजाब की आशा कार्यकर्ता जुलाई से कोविड-19 से जुड़े काम नहीं करके अपना रोष जता रही हैं.

"सरकार के दवाब में कुछ आशाएं जुलाई में भी मजबूरी में काम कर रही हैं पर ज्यादातर ने काम बंद कर दिया है। हमारा काम 24 घंटे का है, गाँव में जब किसी को जरूरत पड़ती है दिन हो या रात तुरंत भागना पड़ता है। स्वास्थ्य विभाग को कोई रिपोर्ट चाहिए तो सबसे पहले आशा को ही याद किया जाता है फिर भी हमें परमानेंट नहीं किया जा रहा है, हम जो काम कर रहे हैं उसका भी पैसा नहीं मिल रहा है," परमजीत कौर ने आशाओं की मुश्किलें बताईं।

परमजीत आशा वर्कर फैसिलेटर युनियन पंजाब की महासचिव हैं। इस संगठन में 18,000 आशा कार्यकर्ता सदस्य हैं। पूरे पंजाब में 21, 500 आशा कार्यकर्ता और आशा फैसिलेटर हैं। 

दस लाख से ज्यादा आशा कार्यकर्ताएं ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की महत्वपूर्ण रीढ़ हैं। इस समय सभी आशा कार्यकर्ता अपने-अपने गाँव की पल-पल की खबर स्वास्थ्य विभाग तक पहुंचा रही हैं। एक हजार आबादी पर एक आशा कार्यकर्ता होती है। ज्यादा आबादी वाले गाँवों में ये संख्या बढ़ जाती है। इन आशा कार्यकर्ताओं को कुछ राज्यों में एक निश्चित मानदेय दिया जाता है जबकि कई जगह इनके काम के आधार पर इन्हें प्रोत्साहन राशि मिलती है। इनके काम के अनुसार इनका मेहनताना बहुत कम है जिसको लेकर इनकी शिकायत रहती है।


कोरोना वायरस की इस लड़ाई में सबसे आगे खड़े 'कोरोना वॉरियर्स' के लिए वित्तीय सुरक्षा का एलान सरकार ने किया है। मेडिकल स्टाफ से लेकर आशा कार्यकर्ता और सफाईकर्मी जो ऐसे समय में अपनी जान जोखिम में डालकर काम कर रहे हैं ऐसे लोगों के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1.70 लाख करोड़ रुपये की घोषणा की है जिसमें सभी का 50 लाख रुपये का इंश्योरेंस भी शामिल है।

मध्यप्रदेश के भोपाल में अप्रैल महीने में रेड जोन में ड्यूटी कर रही एक आशा कार्यकर्ता के पास सुरक्षा के कोई ख़ास उपकरण नहीं थे इनकी रिपोर्ट पॉजिटिव आयी थी। ऐसा कहा गया था कि जो आशाएं कंटेनमेंट जोन में काम करेंगी उन्हें हर माह 10,000 रूपये दिए जाएंगे पर वो भी इन्हें नहीं मिले। ये वही आशा कार्यकर्ता हैं जिनके माध्यम से स्वास्थ्य विभाग की सभी महत्वाकांक्षी योजनाएं ग्रामीण भारत में हर परिवार तक पहुंचती हैं। उन्हीं आशा बहुओं की सुरक्षा को लेकर स्वास्थ्य विभाग गम्भीर नहीं है।

भोपाल के ब्लॉक कम्युनिटी मोब्लाईजर रेवा शंकर अहिरवार की देखरेख में 250 आशाएं और 20 आशा फैसलिटेटर आती हैं। उन्होंने बताया, "आशाओं की सुरक्षा का कोई पैरामीटर ही नहीं है वो अपनी सुरक्षा स्वयं करें।" 

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"हमने कोरोना की थर्मल स्क्रीनिंग की है। गाँव में किसी को भी सर्दी, जुखाम, खांसी है उसकी जांच कराओ, किसी की रिपोर्ट पॉजिटिव आ गयी तो उसे होम क्वेरेंटाइन करो, 14 दिन तक फालोअप करो कितने काम बतायें। अभी तो टीकाकरण भी शुरू हो गया है वो भी कराओ। पर पैसा मनरेगा मजदूरों के बराबर भी नहीं, " आशा सहयोगी ममता कुशवाहा ने बताया।

ये 16 आशाओं को मानीटर करती हैं, इन्हें 16 गाँव जाना पड़ता है। ममता बताती हैं, "इतने रिस्क में काम कर रहे हैं कि पूछिए मत। शुरुआत में कहा गया था कि जो कोरोना संक्रमित क्षेत्रों में काम करेंगे उन्हें महीने 10, 000 रूपये मिलेगा, अभी तक कुछ नहीं मिला। हमें तो ये भी भरोसा नहीं है कि अगर हमें कुछ हो जाता है तो हमारे बच्चों को कुछ मिलेगा भी कि नहीं। रोज कोरोना के बीच से होकर घर जाते हैं, पूरे समय दहशत में रहते हैं कि कहीं बच्चे मेरी वजह से इसकी चपेट में न आ जाएँ।"

ममता की बातों से ये समझिए कि वो किस तरह कोरोना संक्रमित क्षेत्रों में काम करती है फिर गर्भवती महिलाओं बच्चों का टीकाकरण करती, महिलाओं को डिलीवरी के लिए उन्हें अस्पताल ले जाती। इन सबके बीच उसके पास उसकी सुरक्षा के कोई उपकरण सरकार की तरफ से दिए ही नहीं गये।  

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, मध्यप्रदेश के डिप्टी डायरेक्टर डॉ शैलेश साकल्ले गाँव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "शुरुआती स्टेज में इनसे कहा गया था कि स्वयं को सुरक्षित रखते हुए काम करें। लॉकडाउन के दौरान आशाओं ने चार अलग-अलग तरह के सर्वे किये हैं, बच्चों और महिलाओं का इन्होंने ख़ास ध्यान रखा है। मध्यप्रदेश में इन्हें 1, 000 रूपये मिल रहे हैं।" 

जब देशव्यापी लॉकडाउन था, लोग घरों में थे तब आशा कार्यकताओं की एक ऐसी पैदल फौज थी जो गली, मोहल्ले से लेकर गांव-शहर में, भरी दोपहरी में कोरोना के संक्रमितों को ट्रैक करने में जुटी थीं।

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