कम पानी में बेहतर उपज देती है ये फसल, छुट्टा जानवरों का भी नहीं रहता डर

Update: 2018-03-23 13:32 GMT
कम पानी में बेहतर उपज देती है अलसी की फसल

सागर (मध्यप्रदेश)। पानी की बढ़ती किल्लत से किसानों के हर साल हजारों एकड़ खेत खाली पड़े रहते हैं। इस समस्या से निपटने के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने असिंचित और कम पानी में बेहतर उपज देनी वाली नई प्रजातियां विकसित की हैं।

हमारे देश में तिलहन में अलसी एक ऐसी फसल है जिसे किसान कम पानी में ले सकते हैं। इस फसल में न तो कोई कीटनाशक लगता है और न ही प्रतिकूल वातावरण का कोई असर पड़ता है। छुट्टा जानवर और नीलगाय इस फसल को नुकसान नहीं पहुंचाती। किसान दो सिंचाई में एक हेक्टेयर में 20 कुंतल से ज्यादा उपज ले सकता है। देश में अलसी के कुल रकबे का 56 प्रतिशत रकबा मध्य प्रदेश का है।

कई वर्षों से अलसी की बेहतर गुणवत्ता पर नई प्रजातियों को विकसित करने वाले सागर जिले के डॉ देवेन्द्र कुमार प्यासी का कहना है , “जिन क्षेत्रों में चार-पांच पानी लगाने की सुविधा नहीं है वहां के किसान अलसी की ये प्रजाति जेएलएस-66, जेएलएस-67, जेएलएस-73 और जेएलएस-95 लगा सकते हैं। इस फसल में कीट और पाला का प्रकोप नहीं आता है और न ही छुट्टा जानवर इसको नुकसान पहुंचाते हैं।”

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देश के कुल रकबे में 56 प्रतिशत अलसी मध्य प्रदेश में होती है

वो आगे बताते हैं, “अन्य फसलों की अपेक्षा इसमें मेहनत 30 प्रतिशत कम और लागत आधे से भी कम आती है। एक हेक्टेयर में 10 हजार लागत और 20 कुंतल से ज्यादा पैदावार होती है। अलसी के पौधे से निकलने वाले तने के रेशे की मांग देश और विदेशों में बहुत ज्यादा है इसके बीज में 33 से 45 प्रतिशत तेल, 20 से 30 प्रतिशत प्रोटीन, चार से आठ प्रतिशत रेशा पाया जाता है।”

डॉ देवन्द्र कुमार प्यासी जवाहर लाल कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर के अंतर्गत क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र सागर में संचालित अखिल भारतीय समन्वित अलसी अनुसंधान परियोजना में कृषि वैज्ञानिक है। अलसी की दो प्रजाति जेएलएस-66,जेएलएस-95 का शोध डॉ प्यासी ने किया है। किसान ज्यादा से ज्यादा अलसी की विकसित नई प्रजातियों को लगाएं इसके लिए डॉ प्यासी प्रयासरत रहते हैं।

अखिल भारतीय अलसी अनुसंधान परियोजना 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल दो लाख 62,000 हेक्टेयर अलसी का रकबा था जिसमें मध्यप्रदेश में 1,1600 हजार हेक्टेयर अलसी की बुवाई हुई थी। उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, पश्चिम-बंगाल, छत्तीसगढ़, असम में भी किसान बेहतर उत्पादन ले रहे हैं। अलसी में औषधि गुण भरपूर मात्रा में होने की वजह से स्वास्थ्य संगठन ने अलसी को ‘सुपर फूड’ का नाम दिया है।

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“हमारे यहां पिछले कुछ वर्षों में पानी 200 फिट नीचे चला गया है। गेहूं में चार से पांच पानी लगाने पड़ते हैं जो अब सम्भव नहीं हैं। डॉ देवेन्द्र कुमार प्यासी से अलसी का बीज लिया और इस बार 32 एकड़ बोया है जो अप्रैल के पहले सप्ताह में कटना शुरू हो जायेगा। अलसी का बीज सस्ता मिलता है, 60-80 रुपए प्रति किलो बीज मिलता है जिसे किसान एक एकड़ में 10 किलो आसानी से खरीदकर बुवाई कर सकते हैं।” ये कहना है दिनेश माहेश्वरी (57 वर्ष) का। जो होशंगाबाद जिले के बनखेड़ी ब्लॉक में गोदरई गाँव के रहने वाले हैं।

अखिल भारतीय अलसी अनुसन्धान के राष्ट्रीय परियोजना समन्यवक डॉ पी के सिंह बताते हैं, “ घटते जल स्तर की वजह से किसानों का रुझान अलसी की खेती की तरफ बढ़ा है। वर्ष 2016-17 में 46 प्रतिशत इजाफा हुआ है। 76 प्रकार की प्रजातियां विकसित की गयी हैं जिनमें पदमनीय, शारदा, जेएलएस-73 जेएलएस-66, जेएलएस-67, जेएलएस-95, इंद्रा अलसी-32, कार्तिकेय, दीपिका मुख्य हैं जो कम पानी में किसानों को बेहतर उपज देती हैं।”

वो आगे बताते हैं, “अलसी के रकबे में पिछले दो वर्षों में लगातार इजाफा हो रहा है। धान के बाद 11 मिलियन हेक्टेयर खेत खाली रहते हैं। उन क्षेत्रों के लिए किसान उतेरा पद्यति अपना सकते हैं। जब धान बालियों पर रहे उस समय अलसी का बीज फैला देते हैं इसे उतेरा पद्यति कहते हैं।”

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वैज्ञानिक नई प्रजातियों को विकसित करते रहते  

अलसी की पैकेजिंग कर ले सकते हैं कई गुना मुनाफा

मंदसौर जिले के एक किसान अर्जुन पाटीदार अलसी को थोक में न बेचकर इसको रोस्टेड और पैकेजिंग करके 200 रुपए प्रति किलो के हिसाब से बेच रहे हैं। इस साल 20 एकड़ अलसी की खेती करने वाले अर्जुन बताते हैं, “कम पानी और कम लागत के अलावा इसे किसान फसल चक्र के लिए भी अपना सकते हैं। इसमें कोई खाद और दवाई नहीं डाली है, ये बारिश के मौसम में सड़ती नहीं है। ओमेगा-3 की मात्रा इसमें नौ प्रतिशत होती है। एक एकड़ में सात से आठ कुंतल उत्पादन आसानी से हो जाता है।”

किसानों की मांग इसका भाव हो ज्यादा

सागर जिले के एक किसान आलमवीर सिंह रंधावा (63 वर्ष) ने पिछले वर्ष 80 एकड़ अलसी बोई थी इस बार 62 एकड़ बोई है। ये बताते हैं, “अलसी बोने से सबसे ज्यादा फायदा ये हुआ कि फसल को नीलगाय ने नुकसान नहीं किया। 80 एकड़ में 500 कुंतल पैदावार हुई थी जिसका बाजार भाव 4,000 रुपए प्रति कुंतल मिला। इसमें औषधि गुण बहुत ज्यादा हैं उस हिसाब से बाजार भाव नहीं है। अगर इसका बाजार भाव अच्छा हो जाए तो किसानों के लिए इससे ज्यादा कम लागत में मुनाफा देने वाली दूसरी फसल नहीं होगी।”

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मंदसौर के किसान अर्जुन पाटीदार ने बताया, “छुट्टा जानवर इस फसल को नहीं पहुंचाते नुकसान 

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