पाकिस्तान में उर्दू साहित्य के छात्रों के पसंदीदा शायर कहे जाने वाले जमाल एहसानी का जन्म 21 अप्रैल 1951 को सरगोधा, पाकिस्तान में हुआ था। उन्होंने शायरियों की तीन किताबें लिखी हैं। उनकी मौत के बाद उनकी सारी नज़्में कुल्लियत -ए - जमाल नामक किताब में छपीं। 10 फरवरी 1998 को 47 वर्ष की उम्र में उनकी मौत हो गई थी। आज उनकी पुण्यतिथि पर पढ़िए उनकी लिखी पांच नज़्में...
1. ज़रा सी बात पे दिल से बिगाड़ आया हूँ
ज़रा सी बात पे दिल से बिगाड़ आया हूँ
बना बनाया हुआ घर उजाड़ आया हूँ
वो इंतिक़ाम की आतिश थी मेरे सीने में
मिला न कोई तो ख़ुद को पिछाड़ आया हूँ
मैं इस जहान की क़िस्मत बदलने निकला था
और अपने हाथ का लिखा ही फाड़ आया हूँ
अब अपने दूसरे फेरे के इंतिज़ार में हूँ
जहाँ जहाँ मिरे दुश्मन हैं ताड़ आया हूँ
मैं उस गली में गया और दिल ओ निगाह समेत
‘जमाल’ जेब में जो कुछ था झाड़ आया हूँ
ये भी पढ़ें- सूफी तबस्सुम की पुण्यतिथि पर पढ़िए उनकी 5 नज़्म
2. उम्र गुज़री जिस का रस्ता देखते
उम्र गुज़री जिस का रस्ता देखते
आ भी जाता वो तो हम क्या देखते
कैसे कैसे मोड़ आए राह में
साथ चलते तो तमाशा देखते
क़र्या-क़र्या जितना आवारा फिरे
घर मे रह लेते तो दुनिया देखते
गर बहा आते न दरियाओं में हम
आज उन आँखों से सहरा देखते
ख़ुद ही रख आते दिया दीवार पर
और फिर उस का भड़कना देखते
जब हुई तामीर जिस्म ओ जाँ तो लोग
हाथ का मिट्टी में खोना देखते
दो क़दम चल आते उस के साथ साथ
जिस मुसाफ़िर को अकेला देखते
ए’तिबार उठ जाता आपस का ‘जमाल’
लोग अगर उस का बिछड़ना देखते
3. बिखर गया है जो मोती पिरोने वाला था
बिखर गया है जो मोती पिरोने वाला था
वो हो रहा है यहाँ जो न होने वाला था
और अब ये चाहता हूँ कोई ग़म बटाए मिरा
मैं अपनी मिट्टी कभी आप ढोने वाला था
तिरे न आने से दिल भी नहीं दुखा शायद
वगरना क्या मैं सर-ए-शाम सोने वाला था
मिला न था पे बिछड़ने का ग़म था मुझ को
जला नहीं था मगर राख होने वाला था
हज़ार तरह के थेर रंज पिछले मौसम में
पर इतना था कि कोई साथ रोने वाला था
4. जो तू गया था तो तेरा ख़याल रह जाता
जो तू गया था तो तेरा ख़याल रह जाता
हमारो कोई तो पुर्सान-ए-हाल रह जाता
बुरा था या वो भला लम्हा-ए-मोहब्बत था
वहीं पे सिलसिला-ए-माह-ओ-साल रह जाता
बिछड़ते वक़्त ढलकता न गर इन आँखों से
उस एक अश्क का क्या क्या मलाल रह जाता
तमाम आईना-ख़ाने की लाज रह जाती
कोई भी अक्स अगर बे-मिसाल रह जाता
गर इम्तिहान-ए-जुनूँ में न करते कै़स की नक़्ल
‘जमाल’ सब से ज़रूरी सवाल रह जाता
5. इश्क़ में ख़ुद से मोहब्बत नहीं की जा सकती
इश्क़ में ख़ुद से मोहब्बत नहीं की जा सकती
पर किसी को ये नसीहत नहीं की जा सकती
कुंजियाँ ख़ाना-ए-हम-साया की रखते क्यूँ हो
अपने जब घर की हिफ़ाज़त नहीं की जा सकती
कुछ तो मुश्किल है बहुत कार-ए-मोहब्बत और कुछ
यार लोगों से मशक़्क़त नहीं की जा सकती
ताइर याद को कम था शजर-ए-दिल वर्ना
बे-सबब तर्क-ए-सुकूनत नहीं की जा सकती
इस सफ़र में कोई दो बार नहीं लुट सकता
अब दोबारा तिरी चाहत नहीं की जा सकती
कोई हो भी तो ज़रा चाहने वाला तेरा
राह चलतों से रक़ाबत नहीं की जा सकती
आसमाँ पर भी जहाँ लोग झगड़ते हों ‘जमाल’
उस ज़मीं के लिए हिजरत नहीं की जा सकती