पिता के मना करने के बावजूद नुसरत ने नहीं छोड़ा था गाना, उसके बाद जो हुआ वो आज इतिहास है

Update: 2017-08-16 10:57 GMT
सूफी शैली के प्रसिद्ध कव्वाल नुसरत फतह अली खान की आज पुण्यतिथि है। 

लखनऊ। सूफी शैली के प्रसिद्ध कव्वाल नुसरत फतह अली खान की आज पुण्यतिथि है। इनके गायन ने कव्वाली को पाकिस्तान से आगे बढ़कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। लेकिन क्या आप जानते हैं कि नुसरत फतह अली खान के पिना उस्ताद फतह अली खां नहीं चाहते थे कि वे इस श्रेत्र में जाएं। उनके पिता खानदान की 600 सालों से चली आ रही परम्परा को तोड़ना चाहते थे, लेकिन इसके बानजूद उन्होंने गायन के क्षेत्र को ही अपनाया और उसके बाद जो हुआ वो आज इतिहास है।

कव्वालों के घराने में 13 अक्टूबर 1948 को पंजाब के फैसलाबाद में जन्मे नुसरत फतह अली को उनके पिता उस्ताद फतह अली खां साहब जो स्वयं बहुत मशहूर और मार्रुफ़ कव्वाल थे, ने अपने बेटे को इस क्षेत्र में आने से रोका था और खानदान की 600 सालों से चली आ रही परम्परा को तोड़ना चाहा था पर खुदा को कुछ और ही मंजूर था, लगता था जैसे खुदा ने इस खानदान पर 600 सालों की मेहरबानियों का सिला दिया हो, पिता को मानना पड़ा कि नुसरत की आवाज़ उस परवरदिगार का दिया तोहफा ही है और वो फिर नुसरत को रोक नहीं पाए।

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दुनिया ने उन्हें देर से पहचाना, पर जब पहचाना तो दुनिया भर में उनके दीवानों की कमी भी नहीं रही। नुसरत साहब की विशेषता थी पूर्व और पश्चिम के संगीत का संगम करके उसे सूफियाना अंदाज़ में पेश करना। क़व्वाली को उन्होंने एक नया मुकाम दिया। संगीत की सभी शैलियों को आजमाते हुए भी उन्होंने सूफियाना अंदाज़ नहीं छोड़ा और न ही कोई छेड़-छाड़ की खुद से। दुनिया यूँ ही उनकी दीवानी नहीं है। क़व्वाली के तो वे बे-ताज बादशाह थे।

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पूर्व और पश्चिम में के आलौकिक फ्यूजन में भी उन्होंने अपना पंजाबीपन और सूफियाना अंदाज़ नहीं छोडा और फ्यूजन को एक नई परिभाषा दी। उन्होंने सभी सीमाओं से परे जाकर गायन किया। खाने के बेहद शौकीन नुसरत ने सिर्फ इस मामले में अपने डाक्टरों की कभी नहीं सुनी। जी भरकर गाया और जी भरकर खाया।

दुनिया भर का संगीत खुद में समेटे हुए, इस गायक को यदि नहीं सुना हो सुनने निकलिए, हिंदी फिल्मों से, पंजाबी संगीत से, सूफी संगीत से, फ्यूजन से कहीं भी चले जाइए, यह गायक आपको मिल जायेगा। इन्हें आप किसी भी नामी म्यूजिक -शाप में 'वर्ल्ड-म्यूजिक' की श्रेणी में ही पायेगें। 16 अगस्त 1997 को जब नुसरत साहब ने दुनिया को अलविदा कहा, विश्व-संगीत में एक गहरा शोक छा गया।

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