गाँव की लड़की सपना बाजपेई को यह चुनना था कि वह शादी करके टीचर की नौकरी के लिए प्रयास करें या फिर पुलिस की ट्रेनिंग के लिए जाए। उसने पुलिस की नौकरी चुनी और उसके पिता ने भी उसका साथ दिया एक लड़की की कहानी के जरिए गांव की बदलती तस्वीर को दिखाती मनीष मिश्र की रिपोर्ट, जिस खबर के लिए पत्रकारिता के सर्वोच्च सम्मान रामनाथ गोयनका मिला था।
लखनऊ। राजधानी में हजरतगंज कोतवाली के सामने अपनी सहेलियों के साथ पुलिस की वर्दी में खड़ी सपना बाजपेई (23 वर्ष) हाथ से अपनी टोपी सही करते हुए कहती हैं, "जब मैं वर्दी पहनती हूं तो लगता है कि ताकत आ गई है।" सपना की ही तरह आप गाँव से लड़कियां उन क्षेत्रों में अपने कदम रख रही हैं जहां कभी माना जाता था कि लड़की ही जा सकते हैं।
लखनऊ से 35 किमी उत्तर की ओर देवरा गांव के गलियारों में हर रोज सुबह पांच किलोमीटर दौड़ लगाने वाली सपना की जिंदगी में आखिर वह दिन आ ही गया जब उसे फैजाबाद पीटीसी ग्राउंड में पुलिस की नौकरी पाने के लिए सबसे तेज दौड़ लगानी थी। सपना बताती हैं,"मुझे 35 मिनट में ग्राउंड के 13 चक्कर लगाने थे लेकिन मैंने 16 चक्कर लगाएं। मुझे डर था कि कहीं मेरे चक्कर कम ना पड़ जाए इसलिए जब तक समय समाप्त होने की बेल नहीं बज गई मैं दौड़ती रही। ऐसा करने की सलाह पापा ने दी थी।"
यह भी पढ़ें- पत्रकारिता के जरिए गांव को सामने ला रहा है 'गांव कनेक्शन' : पंकज त्रिपाठी
गाँव की रूढ़िवादी मानसिकता की परवाह न करते हुए सपना के पिता सीताकांत बाजपेई (57 वर्ष) ने अपनी बेटी को पुलिस की नौकरी के लिए खुद प्रेरित किया। जिसके लिए उन्होंने कोच की भूमिका भी निभाई। वह कहते हैं, "बिटिया ने मेहनत की है और उसे इसका फल मिला। बेटी ने मेरा सिर ऊंचा कर दिया। आज सभी गांव की माएं चाहती हैं कि मेरी बेटी सपना की तरह ही पुलिस में जाएं।
गाँव में रहकर पुलिस की ट्रेनिंग के लिए सुबह-सुबह प्रैक्टिस करना सपना के लिए आसान नहीं था। जैसा कि हमेशा ही होता है किसी अच्छे काम का लोग पहले मजाक उड़ाते हैं सपना के साथ भी ऐसा ही हुआ। उसे गाँववालों के ताने भी सुनने पड़े। सपने ने थोड़ा गंभीर होते हुए बताती हैं, "जब सुबह-सुबह मैंने गाँव में दौड़ना शुरू किया तो लोग कहते थे कि बाप तो कुछ नहीं कर पाया और बेटी पुलिस में जाएगी।"
यह भी पढ़ें- समय रहते ध्यान न दिया तो गायब हो जाएंगी बुंदेलखंड में नदियां
सपना को अपना सपना पूरा करने के लिए समाज से लड़ाई भी लड़नी पड़ी। उसकी जिंदगी में एक समय ऐसा भी आया जब उसे शादी और पुलिस की नौकरी में से एक को चुनना था। चुनाव थोड़ा मुश्किल था लेकिन इन हालातों में उसने नौकरी को ही चुना। वह बताती हैं, " मेरा रिश्ता तय हो चुका था और लड़की वाले कह रहे थे कि लड़की को बीटीसी की ट्रेनिंग करके टीचर की नौकरी करनी चाहिए। लेकिन मेरा मन पुलिस की नौकरी में जाने का था और पापा भी यही चाह रहे थे। इसलिए मैंने शादी से मना कर दिया और ट्रेनिंग के लिए सीतापुर चली गई।"
यह भी पढ़ें- पढ़िए रामनाथ गोयनका अवार्ड से सम्मानित स्टोरी : तीन लड़कियां
पुलिस कांस्टेबल बनने के बाद सपना की शादी पास के गाँव कुम्हरावां के रहने वाले एक एमबीए लड़के से हो रही है। यह पूछने पर कि जहां से शादी हो रही है वहां के लोगों को पुलिस की नौकरी से कोई एतराज तो नहीं हैं?,"मैंने पहले ही पूछ लिया कि नौकरी से कोई दिक्कत तो नहीं है ना? मेरे ससुराल वालों को मेरी नौकरी से कोई आपत्ति नहीं है।"
आस-पास के दस-बीस गाँवों में पहली बार किसी लड़की ने पुलिस की नौकरी की है। सपना अपनी इस सफलता से रुकने वाली नहीं उसका सपना है कि वह सब इंस्पेक्टर बने।
यह भी पढ़ें- आप अगर संकल्प कर लें तो पत्रकारिता में एक नई तरह की पत्रकारिता कर सकते हैं : राजदीप सरदेसाई
सपना की ही तरह गाँवों की लड़कियां की सोच में काफी खुलापन आ रहा है। जिसकी तस्वीर ये आंकड़े भी करते हैं कि भारत में तीन दशकों में कार्यक्षेत्र में महिलाओं की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई है, लेकिन फिर भी यह 2001 की जनगणना के अनुसार मात्र 25.68 फ़ीसदी ही है। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि गाँव में कामकाजी महिलाओं की संख्या 30.98 फ़ीसदी है जो कि शहरों में काम करने वाली महिलाओं 11.55 फीसदी से कहीं ज्यादा है।
सपना की सफलता के बाद से अंजू, स्वप्निल, सुंदरी जैसी गाँव की दूसरी लड़कियां भी पुलिस में जाना चाहती हैं। जिसकी उन्होंने तैयारी भी शुरू कर दी है। वह कहती हैं," सपना के पुलिस में भर्ती होने के बाद से हम लोगों का हौसला और बढ़ गया है।
यह भी पढ़ें- किसानों के आत्महत्या करने की एक वजह ये भी...
सीताकांत बाजपेई कहते हैं, "हमारी बिटिया के पुलिस की नौकरी में जाने के बाद से ही गाँव के दूसरे लोग भी अपनी बेटी को पुलिस में भर्ती कराना चाह रहे हैं।"
बचपन से शौक था पुलिस में जाने का
संस्कृत में एमए थाना जगतपुर रायबरेली की अंजू सिंह (25 वर्ष) का पुलिस की वर्दी पहनना बचपन से ही सपना था। वह कहती हैँ, "घरवाले चाहते थे कि मैं टीचर बनूं हूं लेकिन मेरा शौक पुलिस में जाना था।" पर जब परिवार के लोगों को अंजू के जुनून के बारे में पता चला तो उन्होंने भी उस पर दबाव नहीं डाला। वह बताती हैं, "मेरे भाई भी मेरे साथ हर सुबह गाँव की पगडंडियों पर रेस लगाने जाते थे।"
सपना की ही तरह अंजू को भी गाँव के लोगों के ताने सुनने पड़े। अंजू बताती हैं, "बहुत बुरा लगता था जब लोग कहते थे कि होना तो कुछ है नहीं, देखों यह दौड़भाग कब तक चलती है। आज गाँव की कई लड़कियां हमारी तरफ पुलिस में जाना चाह रही हैं। मैं चाहती हूं कि मेरी बहन भी पुलिस में जाए।
यह भी पढ़ें- गांव कनेक्शन : ईमानदारी की पत्रकारिता के पांच साल
मुश्किल कुछ भी नहीं
इंग्लिश में एमए करने के बाद पुलिस कांस्टेबिल बनने वाली पूरे रिसाल, रायबरेली की अंजना सिंह (25 वर्ष) कहती हैं,"मुश्किल कुछ भी नहीं होता। आज गाँवों में भी लोगों की सोच बदल रही है। गाँवों में रहने वाले लोग भी अपनी लड़कियों को अपनी मर्जी से अपने विषय चुनने की इजाजत दे रहे हैं।"
अंजना के पिता वीरेंद्र बहादुर सिंह(55 वर्ष) अपनी बेटी की उपलब्धि से काफी खुश हैं। वह कहते हैं," हम मिलिट्री में जाना चाह रहे थे पर किंही कारणों से नहीं जा पाए। इसलिए हम चाहते थे कि मेरी बेटी मेरा सपना पूरा करें। मैं यही चाहता हूं कि हमारे दूसरे बच्चे भी पुलिस या सेना में जाएं। अंजना ने जब पुलिस के लिए प्रैक्टिस शुरू की तो गांव में किसी को भी इसकी भनक तक नहीं लगने दी गई। जैसा कि डर था कि गांव के लोग तरह-तरह की बाते बनाएंगे।अंजना ने सब इंस्पेक्टर बनने के लिए तैयारी शुरू कर दी है। अंजना का वर्दी पहनने का सपना बचपन से ही था।
यह भी पढ़ें- बदलाव की मिसाल हैं थारू समाज की ये महिलाएं, कहानी पढ़कर आप भी कहेंगे वाह !
परिवर्तन बड़ी तेजी से शहर से गांव की ओर पहुंच रहा है। संचार के साधन धीरे-धीरे गाँवों में पहुंच रहे है, जिससे जानकारी से गाँवों में रहने वाले युवा भी महरुम नहीं है। गाँव में लोग अब बाहर की दुनिया से निकल रहे हैं जिससे माता-पिता के नजरिया में बदलाव आ रहा है और वह सोचने लगे कि बेटे के साथ बेटियां भी हर क्षेत्र में आगे जाएं।प्रो. ए. के. श्रीवास्तव, लखनऊ विश्वविद्यालय
ये खबर मूल रूप से 16-22 दिसंबर, 2012 के साप्ताहिक अंक में प्रकाशित हुई थी।