कच्छ के बन्नी घास के मैदान की वो मालधारी महिलाएं, जिन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई

पशुओं को पालने में मालधारी समुदाय की महिलाओं की बहुत बड़ी भूमिका होती है। इसके अलावा वह बेहतरीन कलाकार भी हैं। कपडे पर कशीदाकारी का उनका हुनर, पारंपरिक कला का बेहतरीन नमूना है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर इस समुदाय की उन तीन महिलाओं की कहानी, जिन्होंने सपने देखने की हिम्मत की और खानाबदोश समुदाय में अपनी एक अलग जगह बनाने में कामयाबी हासिल की।

Update: 2023-03-07 09:50 GMT

आस्था चौधरी और दीप्ति अरोड़ा

गुजरात के कच्छ में बन्नी घास का मैदान 2,500 वर्ग किलोमीटर में फैला है। इस खूबसूरत से इलाके के 19 ग्राम पंचायतों में 55 से ज्यादा गाँव बसे हैं। घास के ये मैदान कच्छ की चट्टानी मुख्य भूमि और कच्छ के महान रण के बीच पड़ते हैं।

इन्हीं बन्नी घास के मैदानों में रहने वाले समुदायों में से एक मालधारी हैं, जिसमें अधिकांश संख्या मुस्लिमों की हैं। मालधारी एक अर्ध-खानाबदोश समुदाय है, जो चारे और पानी की तलाश में मौसमी रूप से एक जगह से दूसरी जगह पर प्रवास करते रहते हैं। वे बन्नी भैंस (सिंधी भैंस), कांकरेज मवेशी (सिंधी गाय), घोड़े, ऊंट, भेड़ और बकरी जैसे पशुओं को पालते और उन्हीं के जरिए अपना गुजार-बसर करते हैं।

मालधारी समुदाय की महिलाओं पशुओं को पालने में बेहद अहम भूमिका निभाती है। पुरुष आमतौर पर पशुओं को चारे के लिए ले जाते हैं और डेयरियों को दूध बेचने, चरने के रास्ते चुनने आदि के लिए जिम्मेदार होते हैं। तो वहीं बाकी की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर होती है।

मालधारी समुदाय की महिलाओं पशुओं को पालने में बेहद अहम भूमिका निभाती है।

पशुओं के पालन में ज्यादा से ज्यादा समय बिताने वाली इन महिलाओं के पास जानवरों के बारे में जानकारी का अथाह भंडार होता है। सिर्फ दूध देने की मात्रा और उसकी गुणवत्ता को देखकर ही वे बता देती हैं कि उस सुबह मवेशियों ने कहां चारा खाया था। वे भैंसों की खरीद-फरोख्त, उन्हें खिलाए जाने वाले चारे की मात्रा आदि से जुड़े फैसले लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

मालधारी महिलाओं के पास कशीदाकारी का भी हुनर हैं। उनके द्वारा कपड़े पर हाथ से की गई कढ़ाई परंपरागत कला का बेहतरीन नमूना है, जो उन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में मिलता आया है। लड़कियां बहुत कम उम्र में कढ़ाई का काम करना शुरू कर देती हैं। आज उनका ये काम उनकी कमाई का जरिया बन गया है। बन्नी की महिलाएं कई हस्तशिल्प संगठनों से जुड़ी हुई हैं और अपनी इस कारीगरी से पैसा कमा रही हैं।

लेकिन इन सबसे इतर, कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जो तमाम मुश्किलों के बावजूद आगे आईं और अपने गांवों की अन्य महिलाओं को रास्ता दिखाया। उन्होंने अपने काम से साबित किया कि कैसे वह अपनी स्थिति में सुधार लेकर आ सकती हैं। यहां हम कुछ मजबूत इरादों वाली महिलाओं की कहानियां लेकर आए हैं जिन्होंने सपने देखने की हिम्मत की और बन्नी घास के मैदानों के मालधारी समुदायों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाबी हासिल की।

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नाज़िया मुतवा: बन्नी की पहली ग्रेजुएट महिला

कच्छ के रण के पास वाले गोरेवली गाँव में रहने वाली नाज़िया मुतवा 21 साल की मौलाना हैं। बतौर मौलाना वह मदरसे में इस्लाम के सिद्धांतों को पढ़ाती हैं और महिलाओं को जुम्मे के दिन नमाज पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।

गोरेवली उन कुछ गांवों में से एक है जहां पिछले दशक में लड़कियों की शिक्षा में सुधार देखा गया है। लेकिन फिर भी ज्यादातर लड़कियां घर पर मदद करने या फिर शादी के चलते स्कूल छोड़ देती हैं।

सौभाग्य से नाज़िया के मामले में ऐसा नहीं हुआ। हमेशा से पढ़ने और टीचर बनने की इच्छा रखने वाली नाजिया को हमेशा अपने पिता का साथ मिलता रहा। वह मोहम्मदिया तिब्बिया कॉलेज से उर्दू और अरबी में अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए महाराष्ट्र के मालेगाँव चली गईं। उन्होंने पवित्र कुरान में और अधिक कुशल बनने के लिए आलमियत कोर्स को पूरा किया।

कच्छ के रण के पास वाले गोरेवली गाँव में रहने वाली नाज़िया मुतवा 21 साल की मौलाना हैं। बतौर मौलाना वह मदरसे में इस्लाम के सिद्धांतों को पढ़ाती हैं और महिलाओं को जुम्मे के दिन नमाज पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।

लेकिन ऐसा करना आसान नहीं था। उन्होंने बताया कि यह काफी मुश्किल था क्योंकि उन्हें सख्त नियम- कायदों का पालन करना पड़ा था। बुर्के में रहने के साथ-साथ बाहरी दुनिया के साथ बहुत ज्यादा घुलने-मिलने से खुद को रोकना पड़ा। मौलाना बनने की उनकी इच्छा ने उन्हें कभी हारने नहीं दिया। उनके जज्बे ने उन्हें नैतिक और सभ्य जीवन जीने में मदद की।

नाजिया ने कहा, "मुझे लगा कि एक मौलाना के रूप में मैं अपने समाज पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकती हूं। मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि मैं अपने गाँव की सबसे शिक्षित महिला हूं और मैं अपने बैच की उन चंद महिलाओं में से एक हूं, जिन्हें मोहम्मदिया तिब्बिया कॉलेज से पास होने के बाद काम करने का मौका मिला। सबसे अच्छी बात यह है कि मैं युवा लड़कियों में कुछ आशा जगाने में कामयाब रही हूं। मैं उन्हें बता पाईं हूं कि सभी सीमाओं के बावजूद उनका भी भविष्य उज्जवल हो सकता है।”

नाज़िया बाकी गाँव की महिलाओं की तरह पारंपरिक कढ़ाई भी करती हैं। इसके साथ ही वह अपने छात्रों के लिए वर्दी भी सिलती हैं।

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रबानी जाट: एक बाहरी महिला जो मालधारी बन गई

आमतौर पर बन्नी घास के मैदानों में मालधारी समुदायों के बीच शादियां समुदाय के भीतर ही होती हैं। लेकिन कभी-कभी बाहर की महिलाओं, आमतौर पर पश्चिम बंगाल या बिहार से आई महिलाओं को स्वीकार कर लिया जाता है।

पश्चिम बंगाल के आसनसोल की 24 साल की रबानी की कहानी भी कुछ ऐसे ही शुरू हुई थी। उन्होंने बताया, " महज 18 साल की उम्र में मैं यहां आ गई थी। शुरू में काफी परेशान हुई क्योंकि यहां के लोग, संस्कृति, वेशभूषा, गहने, सब कुछ मेरे लिए नया था। मैंने अपनी मां से कहा कि मैं यहां नहीं रहना चाहती।' रबानी की शादी पश्चिमी बन्नी के गाँव शारदा में एक जाट समुदाय में हुई थी। परंपरागत रूप से ये लोग बन्नी भैंसें पालते हैं और अर्ध-खानाबदोश जीवन जीते हैं।


लेकिन आज रबानी 'बाहरी' नहीं हैं। उसने बेहद जल्द समुदाय के तौर-तरीके सीख लिए थे। आज वह घर में भैंसों देखभाल करने वाली प्रमुख महिला है। उनके मुताबिक, दरअसल ‘बाहरी’ होने की वजह से वह बेहिचक अपने विचार रखने का साहस दिखा पाईं थीं।

उन्होंने कहा, "मेरा इरादा किसी को ठेस पहुंचाना नहीं, बल्कि सही चीजों के लिए खड़ा होना है।" रब्बानी का मानना है कि रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक सोच महिलाओं की सेहत और जीवन में विकल्पों को प्रभावित करती है। रब्बानी आठवीं पास है और अपने लोगों के बीच सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी हैं।

हनीफा जाट: उद्यम स्थापित करने के लिए आपदा को अवसर में बदला

हनीफा जाट पश्चिमी बन्नी के शेरवो गाँव की रहने वाली हैं। वह एक उद्यमी महिला हैं जिन्होंने आजीविका कमाने के लिए अपने रास्ते में आने वाले अवसर को जाया नहीं जाने दिया। आपदा में मिले कुछ अनुभवों को उन्होंने आगे बढ़ने का जरिया बना लिया। फिलहाल हमीफा अपनी उम्र के 50 वें दशक में है। उन्हें आप अपने सिर और कंधों पर कपड़ों के बंडल लटकाए, घर-घर कपड़े बेचते हुए देख सकते हैं। वह भुज से कपड़े खरीदती है और उन्हें सारदा, शेरवो और भितरा के तीन गांवों में जाट समुदायों को बेचती हैं।

हनीफा ने बताया, “चार साल पहले हमारे गांवों में बाढ़ आई थी। अपनी जान बचाने के लिए ऊपरी इलाकों में अपना सामान लेकर भागना पड़ा था। तभी मैंने कुछ कपड़े बेचे जो मुझे पिछले साल भुज से मिले थे।” वह आगे कहती है कि उसके बाद से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनके समुदाय की महिलाएं उनके आने का और उनसे कपड़े खरीदने का बेसब्री से इंतजार करती हैं।

आज वह न सिर्फ कमा रही हैं बल्कि आठ सदस्यों और पांच मवेशियों के परिवार की देखभाल करने में भी पीछे नहीं रहती हैं। उनके पति दिहाड़ी मजदूर है। हनीफा महीने में 15,000 रुपये तक कमा लेती हैं। हनीफा बताती हैं, "मैंने अपने लिए एक बूंगा (एक घर) बनाया है और एक छकड़ा यानी थ्री व्हीलर भी खरीद लिया है।" हनीफा ने कहा कि काम करके उसे अपनी आजादी का अहसास होता है और साथ ही अपने परिवार को आगे बढ़ाने में मदद भी मिल जाती है।

दीप्ति अरोड़ा और आस्था चौधरी को-एक्जिस्टेंस कंसोर्टियम से जुड़ी रिसर्च स्कॉलर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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