उच्चतम न्यायालय भी नहीं दिला सका जनमत की सरकार

जनता दल के 38 विधायकों के मतदाताओं ने सत्तासीन कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए वोट दिया था लेकिन कुमारस्वामी ने कुर्सी के लालच में कांग्रेस को फिर से सत्तासीन कर दिया। यह जनमत का अनादर है। गरीब और किसान वोटर ठगा गया।

Update: 2018-05-22 11:20 GMT

कर्नाटक में सरकार बनाने की प्रजातांत्रिक खींचतान चली और उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद कांग्रेस और जनता दल सेकुलर की गठबंधन सरकार बनी है। उच्चतम न्यायालय नें गोवा और मणिपूर वाला ही पैमाना कर्नाटक में भी लगाया। लेकिन यहां स्थिति भिन्न है। जनता दल के 38 विधायकों के मतदाताओं ने सत्तासीन कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए वोट दिया था लेकिन कुमारस्वामी ने कुर्सी के लालच में कांग्रेस को फिर से सत्तासीन कर दिया। यह जनमत का अनादर है। गरीब और किसान वोटर ठगा गया। यदि भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस ने जनतादल सेकुंलर को बिना शर्त बाहर से समर्थन दिया होता तो बात अलग थी।

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 प्रजातंत्र का मतलब है ''जनता से, जनता द्वारा जनता के लिए चुनी गई सरकार" । यह काम केवल हेडकाउन्ट से नहीं हो सकता बल्कि इसके लिए ओपिनिय काउन्ट जरूरी है। चुनावपूर्व गठबंधन में न्यूनतम साझा कार्यक्रम हेाता है, संयुक्त दल का एक नेता होता है और जनता के सामने स्पष्ट विकल्प पेश किया जाता हैं। वोटर को छलने की गुंजाइश कम रहती है। राजनैतिक पार्टियां इस छलावा नीति से बाहर निकलना ही नहीं चाहतीं अन्यथा सरकारिया कमीशन के सुझावों को और स्पष्ट किया जा सकता था। वांछनीय था चुनाव पश्चात गठबंधन की अनुमति ही समाप्त कर दी जाती, पार्टियों के विलय का विकल्प रहता जिसके बाद दलबदल कानून लागू होता। सर्वाधिक लोगों की पसन्द की सररकार बनाने के बहुत से तरीके हो सकते हैं। एक तरीका है कि वोट पार्टियों को दिए जाएं वह भी वरीयता क्रम में न कि व्यक्तियों को। बाद में पार्टियां अपने चुनिन्दा प्रतिनिधि संसद और विधानसभाओं में वोटशक्ति के अनुपात में नामित करें। तब यह नौबत कभी नहीं आएगी कि सरकार ना बन सके, आयाराम-गयाराम, गुटबाजी और अनुशासनहीनता की समस्या भी नहीं रहेगी। लेकिन इसमें कठिनाई यह है कि सरकार पर संगठन हावी रहेगा और प्रतिनिधियों की व्यक्तिगत आजादी नहीं बचेगी ।  
India's polity must consider radical election reforms or the implosion will be irreversible  


दूसरा विकल्प है संसदीय प्रणाली के विपरीत अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों की राष्ट्रपति प्रणाली जिसमें अधिकारों और कर्तव्यों में संतुलन है। उनका राष्ट्रपति अपने देश के जनमानस का प्रतिनिधित्व करता है, जनमत का प्रतीक है, सर्वशक्तिमान है इसलिए खींचतान नहीं होती। हने संसदीय प्रणाली का नतो विकल्प सोचा और न उसमें सुधार का प्रयास किया। जब प्रजातांत्रिक ढांचों के गुण-दोषों पर विचार करते हैं तो इसमें हमारे प्राचीन गणराज्यों और पंचायतों का इतिहास कहीं नहीं रहता। हमने इंगलैंड से संसदीय प्रजातंत्र उधार ले लिया। वर्तमान व्यवस्था में मतदाताओं के सामने तमाम दलों में से विकल्प चुनने होते हैं जिनमें मत विभाजित हो जाते हैं और जीता हुआ प्रतिनिधि सही माने में अपने क्षेत्र का पसन्दीदा प्रतिनिधि नहीं होता। इससे बचने के लिए चुनाव हेतु पार्टियों का विलय करके उनकी संख्या केवल दो रहे, फिर चाहे सैद्धान्तिक गठबन्धन बनाकर या फालतू दलों का निबन्धन समाप्त करके। मतदान वरीयता के आधार पर हो यानी आनुपातिक प्रतिनिधित्व। यह विधा नई नहीं है, राज्यसभा और विधान परिषद में प्रचलित है। चुनाव खर्च घटाना उतना ही जरूरी है जितना जनमानस का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना। 
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 देश में प्रान्तीय और राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव एक साथ हुआ करते थे और आज की अपेक्षा समय और खर्चा बहुत कम लगता था, भ्रष्टाचार भी कम था। महंगाई, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी पांच साल में केवल एक बार झेलते थे। लेकिन सत्तर के दशक में उस समय की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने तर्क दिया कि प्रान्तीय और राष्ट्रीय मुद्दे अलग अलग होते हैं इसलिए दोनों के चुनाव अलग अलग होने चाहिए। एक समय आया कि हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते थे और झंडा, डंडा, बैनर, असलहे, और किराए के बलवान हर समय उपलब्ध रहने लगे। प्रान्तों में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व हुआ और केन्द्र कमजोर होता गया। अतः जरूरी है कि केंद्र और प्रान्तों के चुनाव एक साथ हो। जय प्रकाश नारायण ने दो-तीन अन्य सुधारों की मांग की थी, एक तो चुने गए प्रतिनिधि को यदि जनता चाहे तो वापस बुला सके यानी राइट टु रिकाल और दूसरा यह कि सभी उम्मीदवारों को अयोग्य कहने का अधिकार यानी राइट टु रिजेक्ट। तीसरा है दागी उम्मीदवारों की संख्या घटाना। एक समय आया जब भद्र लोगों ने अराजक तत्वों का समर्थन लेना आरम्भ किया फिर क्या था कालान्तर में अराजक लोगों ने स्वयं अपने को प्रतिनिधियों के रूप में पेश करना आरम्भ कर दिया। न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण कुछ सुधार हुआ है परन्तु बहुत कुछ बाकी है । 
इतिहास को पीटने की नहीं, उससे सीखने की जरूरत है 


 चुनावों में भारी खर्चे के कारण कोई भी व्यक्ति चाहे जितना ही भलामानुस और विद्वान क्यों न हो, धन की कमी से चुनाव नहीं लड़ सकता। राजनैतिक दल भी टिकट देने के पहले जानना चाहते है कि खर्चा कितना करोगे। यदि उम्मीदवारों के चुनाव का खर्चा सरकार वहन करें तो खर्चा घटेगा, काला धन और महंगाई भी घटेगी। अभी राजनैतिक दल चन्दा लेने में काले धन से परहेज़ नहीं करते और इसीलिए अपने को सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं लाना चाहते। पारदर्शिता की बातें तो करते हैं परन्तु व्यवहार में नहीं लाना चाहते।दलबदल विरोधी कानून के चलते अब ''आयाराम-गयाराम" का जमाना तो नहीं है लेकिन बगावत अभी भी होती है। आशा की जानी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय का आदेश मानते हुए अराजक तत्वों पर प्रभावी अंकुश लगेगा और पश्चिमी देशों की तरह दो दलों की प्रणाली विकसित होगी। आनुपातिक वोटिंग द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सही अर्थों में जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करेंगे। राज्यपालों की भूमिका पर बहुत कुछ कहा जा चुका है। अंग्रेजों के जमाने की यह परम्परा और पद समाप्त होने ही चाहिए। 
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