‘हर हाथ को काम हर खेत को पानी’ मगर काम है कहां

Update: 2017-12-07 18:28 GMT
न तो हर हाथ को काम मिला और न गरीबी हटी।

साठ के दशक में तब की जनसंघ पार्टी ने एक नारा दिया था 'हर हाथ को काम, हर खेत को पानी' उसी दशक के अन्त में में कांग्रेस अघ्यक्ष और देश की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने नारा दिया था 'गरीबी हटाओ' ये दोनों ही उद्घोष एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन न तो हर हाथ को काम मिला और न गरीबी हटी। उत्पादन बहुतायत में हो यह तो ठीक है लेकिन यदि बहुतों के हाथों से हो तभी हर हाथ को काम मिलेगा, यह बात खेती किसानी पर भी लागू होती है।

अस्सी के दशक में एक हजार किसानों पर दो ट्रैक्टर थे और एक लाख चालीस हजार यूनिट प्रंति वर्ष बनते थे। इक्कीसवीं सदी आते आते 6 लाख प्रतिदिन बनने लगा। सुनने में अच्छा लगता है लेकिन सोचिए इनके कारण कितने किसान खेत से बाहर मेड़ पर आ गए। जानवरों की संख्या 1951 में 155 करोड़ थी जो 2012 में 190 करोड़ हुई। इसी बीच देश की आबादी 36 करोड़ से बढ़कर 130 करोड़ हो चुकी है। अर्थात जो जानवर किसान को काम देते थे उन्हें ट्रैक्टरों ने छीन लिया। किसानों की अनुमानित आबादी 60 करोड़ है जिनके लिए सरकारों ने गाँवो में ही नए काम सृजित नहीं किए।

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शिक्षित शहरी आबादी का सोचना हो सकता है कि दफ्तरों में कम्प्यूटर और सड़कों पर लोडर, डम्पर, जेसीबी आदि के आने से बेरोजगारी बढी है लेकिन इनसे देश की केवल 40 करोड़़ आबादी का रोजगार प्रभावित हुआ है और जब किसान अपने खेत से बाहर मेंड़ पर आ गया तो देश की 90 करोड़ आबादी प्रभावित हुई। सोचने की बात है कि देश में अधिकतर छोटी जोत वाले लघु और सीमान्त किसान रहते हैं जिन्हें जानवरों से करोड़ों मेगावाट ऊर्जा मुफ्त में मिला करती थी। हमारी सरकारों ने बिना सोचे समझे बाजार में टैक्टर और हारवेस्टर उतार दिए जो 365 दिन का काम 30 दिन में कर डालते हैं लेकिन सरकारों की बुद्धि में यह नहीं आया कि बाकी बचे 335 दिनों हेतुं 90 करोड़ किसानों के लिए काम की व्यवस्था की जाय।

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जिस देश में खेती को श्रेष्ठ व्यवसाय माना जाता था और कहते थे 'उत्तम खेती मध्यम बान, निपट चाकरी भीख समान' उस देश का किसान आत्महत्या कर रहा है। जैसे-जैसे खेती अलाभकारी होती गई और नौकरशाही का दबदबा बढ़ता गया, किसान और किसानी दयनीय दशा में पहुंचती गई। किसान सही अर्थों में अन्नदाता हुआ करता था अब सरकार के रहमोकरम पर निर्भर है। चहे अपने परिवार का भरण पोषण तो करता ही था राहगीरों और साधु सन्तों को भी भेाजन कराता था और उसके घर में हर समय अनाज का भंडार रहता था साल भर खाने के लिए और खेतों में बोने के लिए। उसके देशी बीज से बोई गई फसल में रोग नहीं लगता था और किसान के शरीर में भी कम ही रोग लगता था।

किसान को अपनी अच्छी परम्पराएं छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा भले ही अब का आधुनिक वैज्ञानिक उन्हीं बातों की वकालत कर रहा है। तब किसान अपने बीजों का उपयोग करता था जो रोग अवरोधी होते थे, बहुफसली खेती करता था यानी एक साथ कई अनाज बोता था, ऑर्गेनिक खेती करता था, खेतों की गहरी जुताई नहीं करता था, पानी का किफायत से उपयोग करता था और विदेशी खाद और कीटनाशक तो थे ही नहीं। अब तथाकथित नई विधियों ने जब मिट्टी की उर्वरा शक्ति घटा दी, जल और वायु को प्रदूषित कर दिया और उत्पादन घटना आरम्भ हो गया तो समझदार किसान पुरानी पद्धति की और मुड़ रहे हैं।

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खेती किसानी का सारा काम जानवरों से होता था जिनकी संख्या आदमियों की आबादी से कहीं अधिक थी। जानवरों से खेतों की जुताई, पाटा चलाना, बुवाई, खलिहान मे अनाज निकालना, उस अनाज और भूसा को मंडी तक पहुंचाना आदि सभी काम जानवरों से होते थे। किसान का पूरा परिवार जानवरों की सेवा में लगा रहता था और बदले में उसे मिलता था मुफ्त की ऊर्जा, दूध, बछड़े और खाद। यह सच है कि मेहनत अधिक और आमदनी कम थी लेकिन किसान को मशीनों का किराया और खाद का दाम, अनाज और भूसा की ढुलाई का भाड़ा नहीं देना प़ड़ता था। देश की आबादी बढ़ती गई और जानवरों की आबादी घटती गई और बराबर घट रही है।

देश की आबादी 1951 में करीब 36 करोड़ थी और जानवरों की आबादी करीब 155 करोड़। इस प्रकार प्रति व्यक्ति जानवरों की संख्या 4 थी। अब आबादी 130 करोड़ के लगभग है और जानवरों की आबादी 190 करोड़ के लगभग। इस प्रकार अब प्रतिव्यक्ति एक जानवर से थोड़ा अधिक है। जहां जानवरों के घटने से किसानों के पास काम घटा, गोबर की खाद और मिलने वाली ऊर्जा घटी और किसान परिवारों में प्रतिव्यक्ति दूध की उपलब्धता भी घटी। देश में कुल दूध का उत्पादन बढ़ा है बड़ी डेरी और विदेशी पशुओं के कारण, लेकिन यह दूध गरीब के बच्चों तक नहीं पहुंचता। कम आमदनी देने वाली गायों की आबादी घटी और भैंसों की संख्या अधिक वसायुक्त दूध के कारण बढ़ी है।

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रूस और अमेरिका में बड़े बड़े फार्म हैं और आबादी कम है इसलिए मशीनों के बिना काम नहीं चलेगा। हमारे देश में प्रति किसान बहुत कम जमीन है इसलिए मशीन से खेती अलाभकर होगी। पचास के दशक में नेहरू सरकार ने सहकारी खेती का प्रयोग किया जिसमें कई किसान मिलकर सम्मिलित खेती मशीनों से कर सकते थे लेकिन प्रयोग असफल रहा। चैधरी चरन सिंह जो स्वयं एक किसान थे इसके खिलाफ थे। अन्ततः सहकारी आन्दोलन ही फेल हो गया। यह आन्दोलन कुछ अन्य देशों की नकल थी जहां यह प्रयोग सफल रहा है। यह नहीं सोचा कि भारत व्यक्तिवादी देश है यहां सहकारी प्रयोग कभी हुए नहीं। बाद के वर्षों में बैंक आसानी से कर्जा देने लगे और बहुत से किसानों ने देखा देखी ट्रैक्टर खरीदे और तरह तरह की मुसीबतें झोलीं।

पुराने समय में किसान सवेरे 4 बजे उठता था, कामकाजी और दुधारू जानवरों को चारा खिलाता था और खेतों को चला जाता था। अब हल चलाने की जरूरत नहीं तो हल बनाने वाले और लोहार भी किसानों के साथ ही बेकाम हो गए। अब बैलगाड़ी से माल ढोना नहीं है तो बढ़ई भी बेकाम हो गए। किसान आलसी हो गया, निठल्ला हो गया उसके साथ ही अनेक कुटीर धंधे वाले भी बेकाम हो गए। दुधारू जानवर इसलिए नहीं बचे कि चरागाह नहीं हैं और खेतों में मशीनों से अनाज निकालने के बाद पराली की खपत ही नही उसे खेतों में ही जलाकर वायु प्रदूषण बढ़ा रहे हैं। किसान और उसके बच्चे जो दूघ और छाछ पीते थे अब चाय पीते हैं। किसानों का रोजगार तो गया ही जीवनशैली की गुणवत्ता भी चली गई।

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सरकारें हमेशा शहरी उपभोक्ता की चिन्ता करती हैं और 'फूड सिक्योरिटी' जैये कार्यक्रम चलाती हैं। आवश्यकता है किसानों के लिए 'इन्कम सिक्योरिटी' का कार्यक्रम चलाया जाय। प्रधानमंत्री मोदी ने 2022 तक किसानों की आमदनी दूनी करने की बात कही है लेकिन श्रम से पूंजी बनाने के लिए किसान को काम चाहिए, विशेषकर उन दिनों जब खेती किसानी में काम नहीं रहता।

हमारे ध्यान में रहना चाहिए कि भारत के लोगों को धरती से बहुत मोह है और वे खेती की जमीन छोड़कर कारखाने में नौकरी नहीं करेंगे चाहे आय दोगुनी करने की सम्भावना ही क्यों न बनती हो। किसानी में काम होता है 'तेरह कातिक तीन असाढ़' यानी कुछ दिन ही काम रहता है। यदि बाकी दिनों में काम मिल जाय तो शायद आय दोगुनी हो सकती है। खेती का मशीनीकरण और जीवनशैली का आधुनिकीकरण होने के बाद कितने ही बढ़ई, लोहार, बुनकर, कुम्भार, दर्जी जैसे हस्तशिल्पी बिना काम हो गए हैं। इन सब के लिए शहरों में काम नहीं जुटाया जा सकता, वहीं गाँवों में कुटीर उद्योग लगाकर काम दिया जा सकता है लेकिन गाँवों में कौशल विकास का काम भी गति नहीं पकड़ रहा है। अनेक देशों ने गांव गांव छोंटी इकाइयां खोल रक्खी है और वहां कल पुर्जे बनाकर कस्बों और शहरों में असूम्बल करते हैं। हम भी ऐसा कुछ कर सकते हैं कारीगरों को काम देने के लिए।

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किसान की आय बढ़ाने के लिए जरूरी है उसकी उपज का सही दाम मिले। उसकेी फसलें आलू, प्याज, टमाटर और लस्सुन के दामों में इतना उतार चढ़ाव होता है है कि हमेशा किसान घाटे में रहता है और उपभोक्ता भी हाय तोबा करता है। यदि गाँवों में पैकेजिंग, प्रोसेसिंग और संरक्षण की व्यवस्था हो जाय तो किसान को बेहतर दाम और उपभोक्ता को सस्ते विकल्प मिल सकते हैं। चीनी मिलों की जगह गंड़ और खांडसारी को प्रोत्साहन मिले तो किसान को जाड़े के दिनों में काम और गन्ने के उचित दाम मिलेंगे और शहरी लोगों को मधुमेह भी कम होगा और गुड़ हमेशा चीनी से सस्ता रहेगा।

आवश्यक नहीं कि गाँवों में काम लाने के लिए केवल पारम्परिक उद्योग धंधों को ही पुनर्जीवित किया जाय बल्कि रेडियो, टीवी, मोबाइल के पाटर्स और यहां तक आयुर्वेदिक दवाइयां आदि का काम भी छोटे पैमाने पर गाँवों में हो सकता है। घड़ियों, छोटे वाहनों और मशीनों जैसे हजारों उपकरणों के कल पुर्ज बनाकर कस्बों और शहरों में असेम्बल किया जा सकता है। यदि किसान अपनी जगह छोड़़कर नौकरी करने नहीं जाना चाहता तो उसके लिए उसके दरवाजे पर काम सृजित करना होगा ताकि उसकी वर्तमान आय भी प्रभावित न हो। गाँव वालों को खैरात बांटने और कर्जा माफी के बजाय उसके हाथों को काम देना होगा।

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