हिमाचल प्रदेश से देविंदर शर्मा का विशेष लेख : सुखी-संपन्न गाँव भी हो रहे वीरान!

Update: 2018-01-12 14:38 GMT
सुखी-संपन्न गाँव भी हो रहे वीरान!

दूर से देखने पर यह किसी आम पहाड़ी गाँव के जैसा ही है। पहाड़ी ढलान पर बसा कियारी, हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले की रोहरु तहसील के जुब्बल-कोटखाई इलाके में स्थित एक छोटा सा गाँव है। हालांकि, यह तथ्य कि कियारी कभी एशिया का सबसे समृद्ध गाँव माना जाता था, उसे गाँवों की पारंपरिक छवि से अलग करता है।

एक समय में देश का सबसे समृद्ध गाँव कहा जाने वाला गाँव आखिर है कैसा ? यह जानने के लिए मैं गाड़ी से निकल पड़ा। कियारी शिमला से करीब 45 किलोमीटर दूर है (कुछ लोग इसे अब दूसरा सबसे अमीर गाँव कहते हैं, पहले नंबर का गाँव भी शिमला में ही है)। गाँव तक पहुंचने वाली सड़क पहाड़ों के बीच से होकर गुजरती है। जैसे ही मेरी कार गाँव के बाजार में पहुंची, मेरी पहली धारणा यह बनी कि वाकई यह अमीर गाँव है। मैंने पहाड़ों में जितने गाँव देखे हैं उनसे इस गाँव का बाजार काफी साफ था। यह बाजार एक पार्किंग में खुलता है जो अपेक्षाकृत साफ-सुथरा था।

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गाँव के बुजुर्गों ने मेरा अभिवादन किया। दुआ-सलाम के बाद हम गाँव के अंदर चल पड़े। मैं हैरान था कि गाँव के मंदिर तक जाने वाले रास्ते पर टाइल्स लगी हुई थीं। निश्चित रुप से यह मेरी उम्मीदों से परे था। मुझे आशा नहीं थी कि शहरों की पागल कर देने वाली भीड़ से दूर इस गाँव का यह गलियारा इतना साफ-सुधरा होगा। मैंने एक बागान मालिक सुनील चौहान से पूछा, इस गाँव की समृद्धि का राज क्या है। मुझे उम्मीद थी कि वह बताएंगे कि कैसे गाँव में सेब की खेती से धीरे-धीरे संपन्नता आई। लेकिन उन्होंने मुझे जो बताया मुझे उस जवाब की आशा नहीं थी, सुनील ने कहा, इस गाँव के लगभग 99 पर्सेंट पुरुष सरकारी सेवाओं में हैं। मेरे पिता एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे, मेरे दादा जी भी सरकारी सेवा में ही थे। यही स्थिति गाँव के हर व्यक्ति की है। सरकारी नौकरी की बदौलत उनकी नियमित आमदनी या कहें आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित थी।

ग्राम पंचायत के पूर्व अध्यक्ष देवेंद्र सिंह चौहान ने बात को और स्पष्ट करते हुए कहा, चूंकि गाँव वालों की आय सुरक्षित थी इसलिए उन्होंने जोखिम उठाया और उद्यमिता दिखाई। इसमें कोई शक नहीं है कि सेब की खेती करने से गाँव में अतिरिक्त पैसा आया है, लेकिन इससे पहले भी हम आलू जैसी नकदी फसल करते थे। उस समय औसतन एक शख्स के पास 20 बीघा की जोत थी, जोकि ऊपरी पहाड़ी इलाके के हिसाब से काफी अच्छी मानी जाएगी। लेकिन अब इसमें काफी कमी आई है। उस हिसाब से गाँव के अधिकतर बुजुर्ग काफी पढ़े-लिखे थे, कुछ लोग उस समय लाहौर में पढ़ भी रहे थे। अच्छी शिक्षा और आर्थिक सुरक्षा के चलते उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने में आसानी हुई।

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उस समय हिमाचल केंद्र शासित प्रदेश होता था। 1962 के बाद ऐसे कई सरकारी सर्वे हुए जिनमें कियारी को एक प्रगतिशील गाँव के रुप में दिखाया गया। इसकी मुख्य वजह यह थी कि गाँव के लोगों की बचतें इतनी ज्यादा हो गईं कि सरकार को गाँव में 1967 में सब-पोस्ट ऑफिस खोलना पड़ा। 1981-82 में कियारी को बचत ग्राम घोषित किया गया, मतलब ऐसा गाँव जहां पोस्ट ऑफिस में बहुत अधिक बचतें हों। मैं पोस्ट ऑफिस भी गया जो बहुत साफ सुथरा और व्यवस्थित था। वहां जगत राम मिले। जगत राम पिछले 39 वर्ष से ग्राम डाक सेवक हैं। उन्होंने कहा, यह पोस्ट ऑफिस आस-पास के 29 गाँवों में अपनी सेवाएं देता है। अब बहुत चिट्ठियां नहीं आती हैं, जो आती हैं वे अधिकतर स्कूलों और बैंकों की होती हैं। गाँव में दो बैंकों की शाखाएं हैं – स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और कोऑपरेटिव बैंक। लेकिन आज भी बैंकों से ज्यादा पैसा पोस्ट ऑफिस में जमा है।

गाँव का भव्य मंदिर भी इस क्षेत्र की संपन्नता का उदाहरण है। इसका जीर्णोद्धार हो रहा है, इसका एक आलीशान हिस्सा तैयार हो चुका है। इसके अलावा गाँव में एक प्राइमरी, मिडिल और हाई स्कूल है। गाँव में सिविल अस्पताल, जानवरों का अस्पताल और टेलिफोन एक्सचेंज है। वास्तव में, गाँव में सभी तरह की जरुरी सुविधाएं पहले से ही उपलब्ध हैं। चौहान कहते हैं, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर बच्चे नेपाली मजदूरों के हैं। हमारे बच्चे अधिकतर शिमला में ही पढ़ते हैं।

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इसके बाद गाँव के बुजुर्गों से विचार-विमर्श करने के लिए मैं गांव के प्रतिष्ठित निवासी राजेंद्र चौहान के घर पहुंचा। यहां बातचीत में एक नतीजा यह निकला कि संपन्नता के बावजूद गाँव के अधिकतर युवा गाँव से बाहर चले गए हैं। वे शहरों में रहना पसंद करते हैं। जो लोग गाँवों में रहे गए हैं उनमें से अधिकतर इन युवाओं के बुजुर्ग माता-पिता हैं। यह पूछे जाने पर कि क्यों युवा शहरी जीवन के प्रति आकर्षित हैं, राजेंद्र कहते हैं, इसकी एक वजह यह हो सकती है कि गाँवों में रहने वाले युवाओं के लिए सही रिश्ते नहीं मिलते। आप भले ही गाँव में रहकर, सेब की खेती करके एक करोड़ रुपये कमाते हों लेकिन लड़कियों को आपमें कोई रूचि नहीं होगी। वे चाहती हैं कि उनके होने वाले पति शहर में रहकर कोई नौकरी करें, भले ही उनकी तनख्वाह सेब की खेती से होने वाली कमाई का एक अंश भर हो। सवाल उठता है कि गांव में रहने वाली लड़कियां अपने होने वाली पति के बारे मेँ क्या सोचती हैं? वे भी शहरों में रहने वाले लड़कों को ही वरीयता देती हैं।

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निश्चित तौर पर यह चिंताजनक बात है। अधिकांश समाजशास्त्री गांवों में अवसर की उपलब्धता न होने को शहरों की ओर होने वाले पलायन के लिए जिम्मेदार मानते हैं। लेकिन मैँने कियारी में जो देखा वह एकदम अजीब था, जहां लोग समृद्ध गांवों को भी छोड़कर जा रहे हैं। असल में, यह प्रवृत्ति हिमाचल प्रदेश की पूरी सेब पट्टी में दिखाई देती है। उत्तराखंड के आर्थिक रुप से असुरक्षित सैकड़ों गांव वीरान पड़े हैं यह बात मेरी समझ में आती है। यह पलायन का सामान्य सा उदाहरण है। लेकिन हिमाचल प्रदेश के समृद्ध, संपन्न गांव भी भुतहा गांव बनते जा रहे हैं, कोई इसकी व्याख्या कैसे करेगा?

(यह लेख  12 जनवरी, 2018 को प्रकाशित किया गया था।)

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