कृषि मंत्री जी, फ़सल बीमा को लेकर कोई खेल तो नहीं हो रहा है 

Update: 2017-07-22 21:11 GMT
किसान कर रहे है प्रदर्शन 

प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना के बारे में CAG की रिपोर्ट आई है। इस रिपोर्ट में 2011 से लेकर अगस्त 2016 तक की बीमा योजनाओं की ऑडिट की गई है। पहले NAIS, MNAIS, WBCIS नाम की फ़सल बीमा याजनाएं थीं, जिन्हें एकीकृत कर प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना कर दिया गया है। हमने फसल बीमा से संबंधित कुछ बयानों और मीडिया रिपोर्ट को सार रूप में पेश करने की कोशिश की है। थोड़ा लंबा हो गया है मगर दो-तीन घंटे की मेहनत से लिखे गए इस लेख से आपके कई घंटे बच सकते हैं।

CAG ने 21 जुलाई को संसद में एक रिपोर्ट सौंपी है। जिसमें कहा गया है 2011 से लेकर 2016 के बीच बीमा कंपनियों 3,622.79 करोड़ की प्रीमियम राशि बिना किसी गाइडलाइन को पूरा किए ही दे दी गई। आप जानते होंगे कि प्रीमियम राशि का कुछ हिस्सा किसान देते हैं और बाक़ी हिस्सा सरकार देती है। इन कंपनियों में ऐसी क्या ख़ास बात है कि नियमों को पूरा किए बग़ैर ही 3,622 करोड़ की राशि दे दी गई। CAG ने कहा है कि प्राइवेट बीमा कंपनियों को भारी भरकम फंड देने के बाद भी, उनके खातों की ऑडिट जांच के लिए कोई प्रावधान नहीं रखा गया है।

क्यों नहीं ऑडिट का प्रावधान है? जब कंपनियां सरकार के खजाने से पैसा ले रही हैं तो हमें जानने का हक नहीं कि वो भुगतान किसानों को कर रही हैं या किसी और को। हम कैसे आश्वस्त हो सकते हैं? क्या आप सोच सकते हैं कि मोदी सरकार के पारदर्शी दावों के दौर पर ऐसा हो सकता है? क्या बीमा कंपनियों के डिटेल की सरकारी और पब्लिक आडिट नहीं होनी चाहिए?

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कृषि मंत्री जी फ़सल बीमा को लेकर कोई खेल तो नहीं हो रहा है

2011-16 के बीच यानी पांच साल में केंद्र और राज्य सरकारों ने बीमा प्रीमियम और दावों के निपटान पर 32,606.65 करोड़ रुपया ख़र्च किया है। इतनी बड़ी राशि का ऑडिट नहीं हो सकता है सोचिये।

CAG ने कहा है कि NAIS के तहत 7,010 करोड़, MNAIS के तहत 332.45 करोड़, WBCIS में 999.28 करोड़ की प्रीमियम राशि का राज्यों ने बीमा कंपनियों को भुगतान ही नहीं किया है। ये सब स्कीम अब खत्म हो चुके हैं मगर कंपनियों ने प्रीमियम तो लिया ही है। किसान मारे मारे फिर रहे होंगे कि बीमा नहीं मिला।

बीमा भुगतान के दावों को निपटाने में सात से आठ महीने लग जाते हैं। जबकि नियम है कि 45 दिन में दावों का निपटारा होगा। देरी के अनेक कारण बताये गए हैं, उन कारणों को पढ़कर लगा कि बैंक से लेकर सरकारों को किसानों की कोई चिन्ता नहीं हैं।

इस स्कीम को लागू करने वाली एजेसिंयों की तरह मॉनिटरिंग भी बेहद ख़राब है। CAG की यह टिप्पणी बेहद गंभीर है। राज्यों के स्तर पर बीमा योजना की मानिटरिंग के लिए ,state level coordination committee on crop insurance (SLCCCI), national level coordination committee on crop insurance (NLCCCI) है। इनके काम को CAG ने VERY POOR माना है।

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आडिट के दौरान कुछ किसानों के सर्वे भी किए गए, पाया गया कि 67 फीसदी किसानों को फसल बीमा योजना के बारे में तो पता ही नहीं है। किसानों को तुरंत पैसा मिले, उनकी शिकायतें जल्दी दूर है, यह सब देखने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है। तो ये है सी ए जी की टिप्पणी। अब आते हैं बाकी बयानों और मीडिया रिपोर्ट पर।

किसान इन दिनों कई राज्यों में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं..

शुक्रवार को संसद में सवाल उठा कि प्राइवेट बीमा कंपनियां मुनाफ़ा कमा रही हैं तो कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने कहा कि राज्यों को भी कहा गया है कि वे अपनी बीमा कंपनी बना सकती है। मंत्री जी ने सवाल का जवाब नहीं दिया, कह दिया कि आप अपनी कंपनी बना लीजिए। गुजरात पंजाब बनाने वाले हैं। यही कह देते कि हमारी ईमानदार सरकार उन कंपनियों की ऑडिट कराएगी और देखेगी कि सही किसानों तक सही समय में पैसा पहुंच रहा है या नहीं।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना 2015 में लांच की गई थी। इसके पैनल में 5 सरकारी और 13 निजी बीमा कंपनियां हैं। राज्यसभा में राधा मोहन सिंह ने कहा कि 2015-16 में कुल प्रीमियम 3,706 करोड़ दिया गया और 4,710 करोड़ के दावे निपटाए गए। अब दावों का खेल देखिये।

16 अगस्त 2016 के इंडियन एक्सप्रेस में पी टी आई के हवाले से ख़बर छपी है कि कृषि मंत्रालय ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत बीमा दावों के निपटान के लिए केंद्र से 11,000 करोड़ की मांग की है। इस रिपोर्ट में एक अज्ञात कृषि अधिकारी ने पी टी आई को बताया है कि 2015-16 के लिए 5500 करोड़ का ही बजट रखा गया है। हमने 11000 करोड़ की मांग की है। पुरानी योजनाओं के तहत ही 7500 करोड़ का बीमा दावा बाकी है।

इसी 8 जुलाई के टाइम्स आफ इंडिया में सुबोध वर्मा की रिपोर्ट है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि बहुप्रचारित फसल बीमा योजना से किसानों को ला सुबोध वर्मा की रिपोर्ट है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि बहुप्रचारित फसल बीमा योजना से किसानों को लाभ नहीं हो रहा है तो फिर किसे लाभ हो रहा है।

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मध्य प्रदेश के मंदसौर में पुलिस के वाहन में भी लगा दी गई आग।

28 मार्च 2017 को लोकसभा में कृषि राज्य मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला का जवाब है कि 2016 के ख़रीफ़ सीज़न के लिए 9000 करोड़ का प्रीमियम बना था। इसमें किसानों को 1643 करोड़ ही देना था। सरकार ने प्रीमियम का अपना हिस्सा 7,438 करोड़ बीमा कंपनियों को सीधे दे दिया है। CAG ने भी कहा है कि केंद्र सरकार अपना हिस्सा देने में देर नहीं करती है। राज्य सरकारें काफी देर करती हैं।

अब सुबोध वर्मा खेल पकड़ते हैं। कहते हैं कि किसानों ने बीमा कंपनियों पर 2,275 करोड़ का दावा किया। प्रीमियम मिला 9000 करोड़। मान लीजिए कि सारे दावे निपटा दिये गए हैं तो भी क्या कंपनियों को 6,357 करोड़ का मुनाफा नहीं हुआ? वो भी एक सीज़न में। जबकि मार्च 2017 तक इन कंपनियों ने किसानों को सिर्फ 639 करोड़ का ही भुगतान किया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि फसल बीमा योजना, बीमा कंपनियों की कमाई का उपक्रम बनता जा रहा है।

इन कंपनियों की हेकड़ी देखिये। एक भी कंपनी ने टाइम्स आफ इंडिया के रिपोर्टर के सवाल का जवाब नहीं दिया। अभी आपने पढ़ा भी कि CAG भी यही रोना रो रही है कि वो किस तरह से सरकारी पैसा ख़र्च कर रही हैं इसके ऑडिट का प्रावधान ही नहीं रखा गया है।

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29 नंवबर 2016 को लोकसभा में कृषि राज्य मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने फसल बीमा योजना पर एक विस्तृत और लिखित बयान दिया था। 2016 के ख़रीफ सीजन में किसानों ने 1,37,535 करोड़ का बीमा कराया। किसान लगातार फसल बीमा कराते जा रहे हैं। सोचिये इसका कितना पैसा सरकार ने प्रीमियम के तौर पर इन कंपनियों के खजाने में दे दिया होगा?

Sabrangindia.in नाम की एक वेबसाइट है। 25 मई 2017 की रिपोर्ट है इस साइट पर। इसने लिखा है कि सरकार ने बीमा कंपनियों को 21,500 करोड़ की प्रीमियम राशि दी है। जबकि उन कंपनियों ने मात्र 3.31 फीसदी दावों का ही निपटान किया। कृषि राज्य मंत्री रुपाला ने राज्य सभा में बताया कि अप्रैल 2017 तक मात्र 714.14 करोड़ के दावे ही निपटाये गए। जबकि 2016 की खरीफ फसलों के लिए 4270 करोड़ के दावे आए थे। वेबसाइट ने लिखा है कि पिछले साल की तुलना में बीमा लेने वाले किसानों की संख्या बढ़ती है मात्र 38 फीसदी और वित्त मंत्रालय जो बीमा प्रीमियम देता है उसमें बढ़ोत्तरी होती है 400 फीसदी की। इस बात को लेकर सवाल उठाए गए हैं।

अब आप कृषि मंत्री और कृषि राज्य मंत्री के दावों को देखिये। इसी शुक्रवार को कृषि मंत्री ने राज्य सभा में कहा कि 2015-16 में कुल प्रीमियम 3,706 करोड़ दिया गया और 4,710 करोड़ के दावे निपटाए गए। यानी प्रीमियम से एक हज़ार करोड़ अधिक का भुगतान। क्या कृषि मंत्री ने आंकड़ों की कोई बाज़ीगरी की है या मीडिया ने सही रिपोर्ट नहीं किया है? उनको बताना चाहिए था कि कितने करोड़ के दावे आए और कितने करोड़ के दावे निपटाए गए। इसी साल इसी राज्यसभा में कृषि राज्य मंत्री का बयान है कि अप्रैल 2017 तक खरीफ़ फ़सलों के लिए 4270 करोड़ के दावे आए थे, मगर मात्र 714 करोड़ का ही प्रीमियम दिया गया था।

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लगता है कि सांसद भी सवाल पूछते समय पिछले बयानों का ख़्याल नहीं रखते हैं। यह भी देखना चाहिए कि किसानों के हितों से जुड़े मसलों पर इस तरह के बारीक सवाल विपक्ष के सांसद करते हैं या सत्ता पक्ष के। इसी 20 जुलाई के हिन्दू बिजनेस लाइन में फसल बीमा से जुड़ी बीमा कंपिनयों पर एक डिटेल रिपोर्ट छपी है। इस रिपोर्ट में कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के दावे पर प्रश्न खड़ा किया गया है कि बीमा कंपनियों को अनुचित मुनाफा नहीं हो रहा है।

हिन्दू बिजनेस लाइन के अनुसार 2016-17 में बीमा कंपनियों ने फ़सल बीमा के प्रीमियम से 16,700 करोड़ का मुनाफा कमाया है। इसे विंडफॉल कहते हैं। टू जी घोटाले के समय भी यही विंडफॉल था। ये सारा पैसा सरकार का है। हिन्दू बिजनेस लाइन की रिपोर्ट तो और भी भंयकर है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत 11 बीमा कंपनियों को 20,374 करोड़ की प्रीमियम राशि दे दी गई। इन कंपनियों ने दावों का भुगतान किया है मात्र 3,655 करोड़। अख़बार के अनुसार यह बात सदन के पटल पर रखी रिपोर्ट में कही गई है।

रबी सीजन के लिए 4,668 करोड़ की प्रीमियम राशि कंपनियों को दी गई और उन्होंने दावों पर खर्च किया मात्र 22 करोड़। दावा भी 29 करोड़ का ही आया था। खरीफ सीजन के लिए 5, 621 करोड़ का दावा आया मगर दिया गया मात्र 3, 634 करोड़। हर जगह अंतर है।

आप इस लेख को ध्यान से पढ़ें। किसानों को बतायें कि हिन्दू मुस्लिम करने से कुछ नहीं होगा। आंकड़ों को ध्यान से पढ़ें। सरकार ने बीमा के लिए अप्रत्याशित रूप से बजट रखा है। कम नहीं है। वो पैसा अगर बर्बाद न हो, सही तरीके से पहुंच जाए तो लाखों किसानों को भला हो सकता है। किसान फिलहाल बीमा कंपनियों के लिए ज़बरदस्त मार्केट बन चुके हैं जिस मार्केट में किसान के लिए दाम नहीं है! समझे गेम ।

(लेखक एनडीटीवी के सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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