खेत-खलिहान : छोटे किसानों का रक्षा कवच कब बनेगा फसल बीमा ?

Update: 2017-08-08 13:11 GMT
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लेकर फिलहाल कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं।

बहुत जोर-शोर और उम्मीदों के साथ आरंभ की गयी प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लेकर फिलहाल कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। पिछले पखवाड़े जहां एक ओर के नियंत्रक महालेखा परीक्षक यानि सीएजी की रिपोर्ट में इसमें तमाम गड़बड़ियां उजागर हुईं, वहीं संसद में भी कई सांसदों ने इसकी उपयोगिता पर सवाल उठाया। दूसरी ओर सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने एक व्यापक अध्ययन में इसकी तमाम कमजोरियों को उठाया और अपने आकलन में कई अहम सुझाव दिए।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट यानि सीएसई ने उत्तर प्रदेश, हरियाणा और तमिलनाडु में इस योजना की पड़ताल के बाद अपने पहले व्यापक स्वतंत्र मूल्यांकन में पाया कि एक अच्छी योजना होने के बावजूद इसका क्रियान्वयन काफी कमजोर है। बीमा कंपनियां काफी मुनाफा कमा रही हैं। खरीफ 2016 में ही कंपनियों ने दस हजार करोड़ रुपए का मुनाफा कमाया। वहीं कमजोर और कृषि संकट वाले मराठवाड़ा जैसे इलाकों में यह खास प्रभाव नहीं डाल पायी है।

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सीएसई की रिपोर्ट में माना गया है कि जलवायु परिवर्तन के साथ खेती में तमाम खतरे और बहुत से जोखिम बढ़ते जा रहे हैं लेकिन हमारी तैयारियां कमजोर हैं। कृषि बीमा कारोबार बिना सरकारी सहायता या मदद के नहीं चल सकता और भारत ही नहीं कृषि बीमा दुनिया के जिस देश में भी है सरकार सब्सिडी देती है। यह सब्सिडी अमेरिका में 73 फीसदी तक है, जबकि यूरोप में 40 फीसदी तक। लेकिन हमारी फसल बीमा पहले की योजनाओं से बेहतर होने के बावजूद बहुत से जोखिम की तरफ ध्यान नहीं देती है। इसमें सूखा, बाढ़ और पशुओं का बीमा कवर शामिल नहीं है। साथ ही अधिक जोखिम वाले इलाकों के प्रति बीमा कंपनियों की बेरुखी साफ दिखती है।

भारत में फसल बीमा के दायरे में व्यापक पैमाने पर फसल चौपट करने वाले पशु जैसे नीलगाय, जंगली जानवर और बंदर आदि से होने वाली हानि कवर नहीं होती है। इसी तरह फसल कटाई के बाद भी सीमित सुरक्षा दी गयी है। बीमा कंपनियों का नेटवर्क बहुत सी जगहों पर काफी कमजोर है। बहुत से तालुके स्तर पर उनके प्रतिनिधि नहीं हैं न ही उचित तंत्र। इसे बेहतर करने की जरूरत है। फिर भी तमाम कमियों के बावजूद इसके दायरे में किसान बढ़ रहे हैं।

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फसल बीमा के दायरे में खरीफ 2015 में 3.9 करोड़ किसान शामिल थे, जिनकी संख्या बढ़ कर खरीफ 2016 में चार करोड़ हो गयी। इस लिहाज से देखें तो करीब तीस फीसदी की बढोत्तरी हुई है। इसमें छोटे किसान बढ़े हैं लेकिन फसल क्षेत्र 16 फीसदी ही बढ़ा है। लेकिन दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में फसल बीमा की स्थिति ठीक नहीं है। उत्तर प्रदेश में गैर कर्जदार किसान इसमें शामिल नहीं हो रहे हैं। इतने ब़ड़े राज्य में फसल बीमा का फायदा लेने वाले किसानों की संख्या 32 लाख है, जबकि बिहार में तो इस योजना में किसानों की संख्या घट गयी है और भारी लूटमार है। तमिलनाडु की हालत सबसे खराब है और पंजाब तो इस योजना से ही बाहर है।

किसान।

सीएसई के उप महानिदेशक चंद्रभूषण का मानना है कि अच्छी योजना होने के बावजूद प्रधानमंत्री फसल बीमा खराब क्रियान्वयन का एक अनूठा नमूना बन गयी है। वैसे तो पहले की तुलना में अब बीमा राशि उत्पादन लागत के करीब है। खरीफ 2015 के दौरान भूमि की प्रति हेक्टेयर बीमित राशि 20,500 रुपए से खरीफ 2016 में बढ़ कर 34,370 रुपए हो गयी। जाहिर है नुकसान की स्थिति में सैद्धांतिक रूप में किसानों को पहले से अधिक मुआवजा मिलेगा। लेकिन राजस्थान जैसे राज्यों में बीमा राशि उत्पादन लागत का एक तिहाई और बहुत कम है। वैसे भी राज्यों में गंभीर आपदाओं की स्थिति में किसानों को मिलने वाले मुआवजे की राशियों में काफी विभिन्नता है। गोवा में यह एक लाख रुपए हेक्टेयर है तो राजस्थान में 13,000 रुपए हेक्टेयर। सूखे जैसी आपदाओं में किसानों को सात सौ और पांच सौ रुपए के मुआवजे की खबरें आती रहती हैं।

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यह सही है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा अब तक आयी ऐसी सभी बीमा योजनाओं में बेहतर और अग्रणी है लेकिन इसमें भी तमाम खामियां हैं जिसके नाते स्वेच्छा से इसे लेने से किसान कतरा रहे हैं। दूसरी बात इससे बड़ा संख्या में बटाईदारों को कोई लाभ नही है, जबकि उनका जोखिम सबसे ब़ड़ा होता है। और राज्य सरकार उनको किसान ही नहीं मानती है। उनको लेकर बहुत सी बातें उठीं लेकिन उन तक कोई लाभ नहीं पहुंचा। फिर भी इसका एक सकारात्मक पक्ष यह है कि इसमें गैर ऋणी किसानों का प्रतिशत बढ़ रहा है। पहले यह केवल पांच फीसदी था लेकिन 2016-17 में 22 फीसदी तक आ गया है। लेकिन सरकार की ओर से बीमा भुगतान के लिए जिन तमाम आधुनिक तकनीक के उपयोग की बात कही गयी थी वह उपयोग में नहीं आ रही है। सेटेलाइट इमेजनरी या ड्रोन फसल की क्षति आंकने के लिए उपयोग में नहीं आ रहा है और सारी व्यवस्था उन पटवारियों के हवाले है जिनके बीमा एजेंट आसानी से प्रभावित कर लेते हैं। दूसरी तरह यूनिट गांव होने के बाद भी कुछ बड़े आकार के गांवों में तमाम दिक्कतें हैं जिनकी तरफ ध्यान देने की जरूरत है।

हालांकि कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह इस बात को नहीं मानते हैं कि इस योजना में किसानों की बजाए बीमा कंपनियों को फायदा हो रहा है। संसद में उन्होने कहा कि फसल नुकसान की स्थिति में किसानों को पर्याप्त हर्जाना मिले, इसकी केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा निरंतर निगरानी हो रही है। किसान समग्र जोखिम कवरेज के लिये नाम मात्र का प्रीमियम चुका रहे हैं और बीमा कंपनियों का चयन भी पारदर्शी बोली प्रक्रिया के माध्यम से हो रहा है। लेकिन राज्यों में किन फसलों या उत्पादों का बीमा होना है, यह राज्य सरकार तय करती है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और मौसम आधारित बीमा योजना के तहत सभी उत्पादों का बीमा किया जा सकता है और कई राज्यों ने आगे बढ़कर पहल की है। कृषि मंत्री ने कहा कि राज्य सरकारें चाहें तो वो भी फसल बीमा कंपनी बना सकती हैं। अभी फसल बीमा में पांच सरकारी और 13 निजी कंपनियां हिस्सा ले रही हैं।

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लेकिन फसल बीमा योजना पर सीएजी ने कई गड़बड़ियां उजागर कीं। सीएजी के द्वारा 2011-16 के दौरान फसल बीमा की पड़ताल में पाया गया कि 10 निजी कंपनियों को बिना दावों के पड़ताल के ही 3622.79 करोड़ रुपये की धनराशि का भुगतान कर दिया गया। राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, संशोधित राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना और मौसम आधारित फसल बीमा योजना के क्रियान्वयन में काफी गड़बड़ियां सामने आयीं। सीएजी ने पाया कि केंद्र सरकार ने तो अपने हिस्से की राशि जारी कर दी लेकिन कई राज्यों ने समय पर योगदान नहीं दिया। इस नाते करीब दो हजार करोड़ रुपए के बीमा भुगतान लटके रहे। दावों के निपटारे में 45 दिन की समय सीमा की जगह करीब तीन साल का समय लग गया। सीएजी ने पाया कि पुरानी योजनाओं की खामियों के चलते ही 2016 के खरीफ सीजन से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना शुरू हुई लेकिन इसमें भी किसानों को कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। रिपोर्ट बताती है कि 67 फीसदी किसानों को फसल बीमा योजनाओं की जानकारी नहीं थी

वास्तव में अनिश्चितता में जूझ रहे किसानों के हक में आम बजट 2016-17 में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना आरंभ की गयी थी। पुरानी फसल बीमा योजनाओं की अच्छाइयों बुराइयों के व्यापक विश्लेषण के बाद नयी योजना तैयार हुई थी और सरकारी आकलन था कि इसकी परिधि में देश के आधे किसान आ सकते हैं। हालांकि अब तक की योजनाओं में 77 फीसदी किसान योजना की परिधि से दूर ही रहे थे। लेकिन अब तक इस योजना के जो भी नतीजे सामने आए हैं, उस लिहाज से माना जा सकता है कि किसानों में इसे लेकर बहुत खास उत्साह नहीं है।

पिछले तीन दशकों के दौरान अलग-अलग कालखंडों में फसल बीमा योजनाएं आरंभ की गयीं। लेकिन इनका सीमित फायदा रहा और दावों के भुगतान की गति धीमी रही। लालफीताशाही ने किसानों को कुछ परेशान किया और योजनाओं की परिधि में 15 से 23 फीसदी तक ही किसान आ सके। फसल बीमा लेने वालों में बहुमत उनका था, जिन्होंने बैकों से कर्ज ले रखा था। किसानों की बजाय फसल बीमा बैकिंग संस्थाओं के लिए रक्षा कवच बनीं।

आज खेती के बढ़ते संकट और संपन्न इलाको में भी बढ़ रही किसानों की आत्महत्याओं ने कई सवाल खड़े किए हैं। हमारी खेती में सबसे अधिक संकट में छोटे किसान और बटाई पर खेती करने वाले हैं। देश में 13.78 करोड़ किसानों में से 11.71 करोड़ छोटे और मझोले किसान हैं, जिनकी छोटी जोतों को लाभकारी बनाते हुए बीमा का सुरक्षा कवच देना सरल नहीं है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में किसानों द्वारा देय प्रीमियम खरीफ में 2 फीसदी और रबी में 1.5 फीसदी होना अच्छी बात है। यहसही है कि सबसे कम प्रीमियम वाली यह बेहतरीन योजना है। इसमें फसल कटाई के बाद की हानियां और बुवाई फेल होने जैसे मामले भी शामिल किए गए हैं। भाजपा ने चुनाव घोषणापत्र 2014 में वादा किया था कि सरकार बनने पर वह बेहतर कृषि बीमा लागू करेगी। लेकिन योजना अभी किसानों के लिए बेहतर कवच नहीं बन पायी है और राज्यों की बेरूखी इसकी खास वजह है।

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हमारी खेती का 70 फीसदी इलाका मानसून से प्रभावित रहता है। आपदाओं के संकट के साथ खेती भारी जोखिम का सौदा बना हुआ है। इसी नाते फसल बीमा का पहला सीमित प्रयोग 1972 से 1979 तक गुजरात में एच-4 कपास पर लागू हुआ, जिसके दायरे में महज 3110 किसान थे। 1979 से 1985 तक पायलट योजना आरंभ हुई। इसमें प्रीमियम 197 लाख दिया गया, जबकि दावा 157 लाख रुपए का हुआ। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में 1985 में समग्र फसल बीमा योजना 15 राज्यों में लागू हुई लेकिन इसमें बीमा की अधिकतम सीमा 10 हजार रुपए थी। पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री काल में तमाम खामियों को ध्यान में रख कर और व्यापक सलाह-मशविरे के बाद जो फसल बीमा योजना बनी उसमें सभी फसलों के साथ बटाईदारों और काश्तकारों को शामिल किया गया। प्रति किसान बीमित राशि 10 हजार की जगह 25 हजार से अधिकतम 45 हजार रुपए तक की गयी। यह पहले की योजनाओं से बेहतर थी। लेकिन राज्यों को प्रीमियम राशि में आधी भागीदारी करनी थी इस नाते उनकी दिलचस्पी न होने से योजना फेल रही।

1997-98 में प्रायोगिक फसल बीमा सीमित दायरे में आयी। फिर अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में रबी 1999 में और बेहतर योजना आयी लेकिन किसानों का कुल कवरेज महज 15 फीसदी तक ही रहा। फिर बाद में यूपीए सरकार ने 2007 से संशोधित फसल बीमा योजना और मौसम आधारित फसल बीमा लागू की। लेकिन 1999 में नयी योजना के आरंभ से लेकर 2013-14 तक 10,445.65 करोड़ रुपए प्रीमियम की तुलना में 32,860 करोड़ रुपए के दावे का भुगतान हुआ। बाद में ओलावृष्टि जैसी आपदाएं भी इसमें शामिल की गयीं।

तकनीकी कारणों से देश में इस बार खरीज सीजन में लाखों किसान नहीं करा पाए बीमा।

फसल बीमा योजना दुनिया के कई देशों में चल रही हैं और वे घाटे का ही सौदा हैं। तो भी अमेरिका, जापान, मैक्सिको, ब्राजील, फिलीपींस, श्रीलंका, बंगलादेश, थाईलैंड और ईरान में इनको बनाए रखा गया है। अमेरिका और चीन में फसल बीमा किसानों के ऋण से नहीं जुड़ी है। लेकिन कई देशों में यह ऋण से जुड़ी है। आज खेती की लागत बढ़ रही है और वाजिब दाम नहीं मिलने से किसानों का संकट बढ़ रहा है। इसी नाते बड़ी संख्या में छोटे किसान खेती छोड़ शहरों को पलायन कर रहे हैं। इन तथ्यों के आलोक में प्रधानमंत्री फसल बीमा के क्रियान्वयन को और मजबूत बना कर उसे किसानो के लिए रक्षा कवच सरीखा बनाने की जरूरत है।

लेखक- अरविंद कुमार सिंह, राज्यसभा टीवी में वरिष्ठ पत्रकार हैं। गांव और किसान के मुद्दे पर लगातार लिखते हैं। ये उनके निजी विचार हैं।

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