बुंदेलखंड में बनने वाली इस खास चांदी की मछली की धनतेरस और दिवाली पर क्यों बढ़ जाती है मांग ?

बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर ब्लॉक मौदहा की चांदी की मछलियां अपनी विशेष कलाकृतियों के लिए पूरी दुनिया में लोकप्रिय थीं

Update: 2018-11-05 07:30 GMT

हमीरपुर। बुंदेलखंड को भले ही पूरी दुनिया किसानों की बदहाली और पानी की कमी के कारण जानती हो, लेकिन एक समय ऐसा भी था जब यहां के एक जिले में बनने वाली चांदी की मछली पूरी दुनिया में प्रसिद्ध थी। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। लेकिन ये कलाकारी, ये हुनर अब खत्म होने के कगार पर पहुंच चुका है।

बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर ब्लॉक मौदहा की चांदी की मछलियां अपनी विशेष कलाकृतियों के लिए पूरी दुनिया में लोकप्रिय थीं। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। लेकिन कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है। चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। वे तो अब नहीं रहे लेकिन उनके नाती-पनती राजेंद्र सोनी, ओमप्रकाश और रामप्रकाश अभी भी इस काम में लगे हैं।

चांदी की बड़ी मछली

मौदहा की तंग गलियों में जब हम पहुंचे तो चांदी की मछलियों की उस दुकान में कोई था ही नहीं। दुकान के बाहर कांच में कुछ चांदी की मछलियां कैद थीं। हमीरपुर में इस दुकान के बारे में हर कोई जानता है। लगभग 12 बाई 12 के इस दुकान के मालिक राजेंद्र सोनी (55) कुछ देर बाद दुकान पर पहुंचे। इस मछली की खासियत के बारे में वे बताते हैं, "इस तरह की मछली बनाने की कला बस हमारे पास ही है। पूरी दुनिया में ये और कहीं नहीं बनती। कई लोगों ने प्रयास किया लेकिन सफलता नहीं मिली।"

ये भी पढ़ें- पहाड़ का हुनर: 25-30 दिन में बनकर तैयार होती है एक दन, 40 साल तक देती है साथ

राजेंद्र आगे बताते हैं, "इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब आइने अकबरी में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली की जिक्र किया और इसकी कारीगरी की तारीफ भी की है। 1980 में मेरे दादा जगेश्वर को तत्कालीन मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सम्मानित किया था।"

बड़ी आकृति वाली चांदी की मछलियां

इससे पहले 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के हमारे पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। रानी विक्टोरिया को दिया वो उपहार दिखाते हुए राजेंद्र ने बताया।" राजेंद्र के अनुसार वे मछली बनाने वाले सोनी परिवार की 14वीं पीढ़ी के संतान हैं।

ये भी पढ़ें- कभी घर से भी निकलना था मुश्किल, आज मधुबनी कला को दिला रहीं राष्ट्रीय पहचान

इन मछलियों की मांग सबसे ज्यादा मुस्लिम देशों में हुआ करती थी। खासकर दिवाली के समय इसकी मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। इस बारे में राजेंद्र कहते हैं "मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। लोग चांदी की मछली को अपने ड्रॉइंग रूम में सजाकर रखते हैं। धनतेरस और दीपावली पर इसकी खरीदारी खूब होती है, लोग धन-धान्य के लिए इसके उपहार में भी देते हैं। भारतीय परंपरा में आस्था और विश्वास के आधार पर खास दिवसों व पर्वों पर चांदी की मछली रखना शुभ माना जाता है। प्राचीन काल में व्यापारी भी भोर के समय सबसे पहले मछली देखना पसंद करते थे। इसका उल्लेख भी कई पुस्तकों में मिलता है।"

लेकिन धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। इस पर चिंता व्यक्त करते हुए राजेंद्र कहते हैं कि नोटबंदी और जीएसटी के बाद मुनाफा बहुत कम हो गया है। मेरे तीन भाई ही बस इस काम को कर रहे हैं। हमें कुछ आता नहीं इसलिए यही कर रहे हैं। मेरे दोनों बेटों का इस काम से कुछ लेना देना नहीं है। वे दूसरा काम करते हैं। जीएसटी के बाद कच्चे माल बहुत महंगा हो गया है, इसलिए हमने अब बनाना ही कम कर दिया है। दो दिन की मेहनत के बाद मुश्किल से 200 रुपए बचता है, ऐसे में ये काम कौन करना चाहेगा।

जगेश्वर सोनी को रानी विक्टोरिया और उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से मिला सम्मान

ये मछली कैसे बनती हैं, इस पर राजेंद्र बताते हैं, "सबसे पहले मछली की पूंछ बनायी जाती हैं, फिर पत्ती काटकर जिसे जीरा कटान कहते है इसको छल्लेदार टुकड़े बनाते हुए कसा जाता है। इसके बाद सिर, मुंह, पंखे और अंत में लाल नब लगायी जाती है।" लेकिन इस कारीगरी को सरकार की तरफ से किसी तरह का प्रोत्साहन नहीं मिल रहा, जिस कारण ये हमारा ये व्यवसाय अब खत्म होने के कगार पर पहुंच गया है। 400 साल पुराने इस हुनर को बचाने के लिए हमें सरकार से मदद चाहिए, कच्चे माल पर टैक्स कम लगे। राजेंद्र निराश होकर कहते हैं।

Full View

Similar News