वाराणसी को नाम दिया जिन नदियों ने कहीं उनका ही नामो-निशान न मिट जाए

Divendra Singh | Mar 20, 2018, 11:22 IST
water pollution
बनारस की गिनती दुनिया के सबसे पुराने शहरों में होती है। लगभग पांच हजार साल पुराने इस शहर को वरुणा और असि नाम की जिन दो नदियों से अपना नाम मिला आज उन्हीं का अस्तित्व खतरे में है, और इसकी वजह हैं खुद हम। बनारस के घरों, कारखानों से निकलने वाला अपशिष्ट इन नदियों को गंदे नालों में बदल रहा है। जरूरत है कि हम इनकी स्थिति सुधारने के बारे में गंभीरता से कोशिश करें।
वाराणसी में गंगा को साफ करने के लिए कई अभियान चलाए जा रहे हैं, लेकिन गंगा की सहायक वरुणा और असि नदियां आज नदी नहीं नाला बना दी गई हैं। वाराणसी का नाम वरुणा और असि नदी के नाम पर ही पड़ा है।

पुराणों में काशी क्षेत्र के उत्तर में वरुणा, पूर्व में गंगा और दक्षिण में असि नदी का उल्लेख मिलता है। इनमें से गंगा के दक्षिणी मोड़ पर मिलने वाली 'असि' नदी को अब नदी मान ही नहीं सकते हैं।

असि का वजूद आज अस्सी नाला के रूप में ही शेष रह गया है। गंगा के जलस्तर में गिरावट ने असि नदी को नाला बना दिया। असि मुक्ति आंदोलन के कार्यकर्ता वल्लभाचार्य पांडेय कहते हैं, "असि वो नदी है जिसका जिक्र पुराणों में भी मिल जाता है, लेकिन आज खुद के अस्तित्व के लिए लड़ रही है। नदियों में नाम मात्र का पानी रह गया है, सीवर का पानी बिना ट्रीटमेंट के इन नदियों में जा रहा है। असि नदी के नौ किमी. क्षेत्र में कूड़ा पाटकर पांच हजार से भी ज्यादा घर बन गए।"

गंगा अन्वेषण केंद्र के कोआर्डिनेटर प्रो. यूके चौधरी कहते हैं कि गंगा के जल स्तर में निरंतर गिरावट और भूमिगत जल के दोहन ने असि नदी को नाला बना दिया, क्योंकि भूमिगतजल का सतहीजल में परिवर्तन होने का नाम ही 'नदी' है। जब भूमिगत जल का स्तर नदी के स्तर से नीचे जाएगा नदियां सूख जाएंगी।"

वरुणा नदी बीएचयू के गंगा रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट के मुताबिक वरुणा-असि नदी का अपना मौलिक जल, गुण, मात्रा और आवेग हुआ करता था। जो नगर के भूमिगत जल स्तर को संतुलित करने के साथ ही गंगा के कटान क्षेत्र में बंधा का काम करता था। ये नदियां अपने द्वारा लाई गई मिट्टी को गंगा के कटाव वाले क्षेत्रों में भर कर उसे स्थिरता प्रदान करती हैं।

वहीं काशी वरुणा नदी का भी अस्तित्व नहीं बचा है, सपा सरकार के कार्यकाल में 201 करोड़ रुपए की योजना से केवल नदी के किनारे सौन्दर्यीकरण का काम हुआ, लेकिन नदी बचाने के लिए कोई काम नहीं हुआ। वरुणा नदी इलाहाबाद के फूलपुर के नजदीक मैल्हन झील से निकलती है और वाराणसी में गंगा में मिल जाती है। हालत ये है कि नदी के उद्गम स्थल में ही पानी नहीं बचा है।

वल्लभाचार्य पांडेय वरुणा नदी की स्थिति के बारे में बताते हैं, "आज ये स्थिति हो गई है कि वरुणा में कोई जीवन ही नहीं बचा है, पहले वरुणा नदी में कई तरह के घोघे मिलते थे, लेकिन आज कुछ नहीं बचा है। बड़ी-बड़ी बातें होती हैं लेकिन होता कुछ नहीं।"

असि को बचाने के लिए चल रही है मुहिम "हर कोई गंगा को साफ करने की बात करता है, लेकिन सहायक नदियों को ही नहीं साफ किया जाएगा तो गंगा कैसे साफ हो पाएगी। हमने असि को मुक्ति दिलाने के लिए असि मुक्ति आंदोलन भी चलाया लेकिन आज वही हाल है, इसके बारे में सरकार को सोचना चाहिए, "वल्लभाचार्य ने आगे बताया।

पूर्वांचल के कई ज़िलों के लिए अभिशाप बन रही आमी नदी

यूपी के पूर्वांचल के सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, संतकबीर नगर जैसे कई ज़िलों से होकर गुजरने वाली आमी नदी, जिसके किनारे मगहर में कभी संत कबीरदास ने समाधि ली थी, आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है।

आमी नदी का उद्गम सिद्धार्थनगर ज़िले के डुमरियागंज के सिकहरा ताल से हुआ है, जहां से निकलकर यह नदी कई ज़िलों से होती हुई गोरखपुर में राप्ती नदी में मिल जाती है। इस नदी की लंबाई करीब 126 किमी. है।

गोरखपुर औद्दोगिक विकास प्रधिकरण (गीडा) के अंतर्गत कई औद्योगिक इकाइयों की स्थापना हुई तो इन इकाइयों ने बिना शोधित कचरे को आमी में डालना शुरू कर दिया। इसी तरह संतकबीरनगर जिले में भी पेपर मिलों की स्थापना के बाद इस क्षेत्र में भी आमी प्रदूषित होने लगी। प्रदूषण का सबसे पहला असर जलीय जीवों खासकर मछलियों की मौत के रूप में सामने आया। नदी में मछली पालन करके जीवन यापन करने वाले करीब ढाई लाख परिवार इससे सीधे प्रभावित हुए।

आमी बचाओ आंदोलन के विश्वविजय सिंह पिछले कई वर्षों से आमी नदी को बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। वो बताते हैं, "कुछ साल पहले तक आमी नदी का पानी भी बिल्कुल साफ था, लोग अपनी फसल की सिंचाई और जानवरों को पिलाने के लिए इसी पानी का इस्तेमाल करते थे, लेकिन जब से इसमें फैक्ट्रियों का पानी इसमें छोड़ना शुरू किया, इसका ये हाल हो गया।"

वो आगे कहते हैं, "पहले कागज फैक्ट्री ने नदी को मैला किया फिर ग्लाईकोल फैक्ट्री ने निकले केमिकल इसे जहरीला कर दिया बचीखुची कसर गोरखपुर की औद्योगिक इकाइयों ने पूरी कर दी। अब नदी सिर्फ लोगों को बीमार कर रही है। अगर जल्द उपाय नहीं हुए तो नदी अभिशाप बन जाएगी, जिसका खामियाजा बड़े पैमाने पर उठाना होगा।"

वो आगे बताते हैं, "संतकबीर नगर जिले में कबीरदास की मजार इसी नदी के किनारे मगहर गाँव में है। कबीरपंथी नदी के पानी को गंगा के बराबर पवित्र मानते थे, लेकिन अब मगहर नाक पर रुमाल रखकर जाना पड़ता है।"

आमी को बचाने के लिए गोरखपुर व संतकबीरनगर में बड़े जन आंदोलन हुए। लेकिन तमाम संस्थानों व विशेषज्ञों ने परीक्षण के आधार पर आमी के प्रदूषण को सरकार के सामने रखा। सन‍् 2009 में आमी बचाओ मंच की स्थापना के बाद संगठित रूप से आमी के प्रदूषण के खिलाफ आवाज उठाई गयी।

वर्ष 2011 में तत्कालीन केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयन्ती नटराजन ने प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर नदी में प्रदूषण फैलाने में जिम्मेदार इकाइयों के विरूद्ध कार्रवाई करने व नदी संरक्षण के लिए परियोजना बनाकर प्रस्तावित करने के लिए कहा। वर्ष 2012 में राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग ने केन्द्र सरकार, प्रदेश सरकार व केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को नोटिस देकर प्रदूषण नियंत्रण के लिए सभी आवश्यक कदम उठाने का निर्देश दिया। लेकिन नतीजा शून्य रहा।

नदी का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व

जब गौतम बुद्ध ने संन्यास का निर्णय लिया तो अपने शाही वस्त्र इसी नदी के किनारे उतार कर संन्यासी वस्त्र धारण किया। इसी तरह कबीर दास ने भी अपनी मौत के लिए मगहर के किनारे आमी के तट को ही चुना। अपने जीवन के अन्तिम समय में कबीर दास इसी नदी के किनारे अपने अनुयायियों को जीवन दर्शन का ज्ञान कराते थे।

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