Election 2019 : लोकसभा चुनाव में गाँव और किसान फिलहाल किस मुकाम पर?

किसानों से पूछा कि क्या आपको लगता है कि पिछले पांच साल में किसानों के हालात कुछ सुधरे हैं? क्या आपकी आमदनी बढ़ी है? क्या आप में आज किसान होने की खुशी है? क्या आप आज अपने बेटे-बेटियों को किसान बनने के लिए प्रेरित करेंगे? बेशक इन सरल सवालों के जरिए विपक्षी दल के एक वरिष्ठ नेता, चिदबंरम, किसान को बहुत बड़ा चुनावी मुद्दा मान रहे हैं।

Update: 2019-03-19 10:24 GMT

इस समय तक चुनाव के मुख्य मुद्दे दिखने लगने चाहिए थे क्योंकि मतदान शुरू होने में सिर्फ चार हफ्ते बचे हैं। राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों का भी अब तक कोई अता-पता नहीं है।

फिर भी नेताओं के भाषणों को सुनकर और मीडिया में स्तंभकारों को पढ़कर एक अंदाजा जरूर लगता है कि इस बार के चुनाव में मुख्य मुद्दे क्या बनने जा रहे हैं। और यह आकलन भी कि अब तक चर्चा में आए मुद्दों की प्राथमिकता में गाँव या किसान कहां तक पहुंचा है? लेकिन यह हिसाब लगाने के पहले कुछ और बातों पर भी गौर ज़रूरी है।

आमतौर पर कौन तय करता है चुनावी मुद्दे?

आमतौर पर ये काम हमेशा विपक्ष ही तय करता आया है क्योंकि सत्ता पक्ष को सिर्फ एक काम में लगे रहना पड़ता है कि उसने पिछले पांच साल में क्या किया? हर सरकार के पास अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने के अनगिनत साधन होते हैं। सरकारी साधन तो होते ही हैं, उसके साथ गैरसरकारी और मीडिया के साथ की गुंजाइश भी सरकार के पास ज्यादा होती है।

हालांकि पिछले कुछ चुनाव इस चलन के अपवाद रहे। पिछले चुनाव में मीडिया ने बढ़चढ़ कर सरकार का विरोध किया था। यानी पिछले दो लोकसभा चुनावों में मीडिया आश्चर्यजनक रूप से विपक्ष के साथ रहा था। तत्काल की बातें हमें ज्यादा याद रहती हैं, सो मीडिया ही चुनावी मुद्दों को रचने में अव्वल रहता है।

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लेकिन इस बार ऐसा होता नहीं दिख रहा। मीडिया के स्तंभकार चुनावी मुद्दों पर बात करने से हिचक रहे हैं और सामान्य पत्रकार खुद को बीच में लाए बिना नेताओं के भाषणों को हूबहू छाप रहे हैं। अलबत्ता पत्रकारों के पास यह विकल्प हमेशा रहता है कि किस भाषण को पहले पेज पर लें और किसे अंदर डाल दें।

टीवी पर किसे ज्यादा देर दिखाएं और किसे जल्दी निपटा दें। लेकिन इसका ज्यादा विश्लेषण नहीं हो सकता क्योंकि पत्रकारिता के स्वविवेक को आजतक हम नैतिक ही मानते चले आ रहे हैं। खैर यह मानकर चलने में किसी को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए कि आजकल चुनावी मुद्दे मीडिया ही तय करता है। भले ही मीडिया नेताओं के हवाले से ही यह काम करता हो लेकिन सारा दारोमदार होता पत्रकारों पर ही है।

इस बार मुख्य मद्दों पर अटकल

जब सब कुछ तदर्थ यानी फौरी हो चला हो तो चुनावी मुद्दे भी फौरी क्यों नहीं होंगे। इसीलिए पिछले छह महीनों से कभी लगता है बेरोजगारी मुख्य मुद्दा होगा, कभी लगता है राफेल बनेगा और कभी लगने लगता है कि किसान की बदहाली सबसे ऊपर रहेगी। और कभी लगता है कि राफेल में भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा बन जाएगा।

अगर क्षणिक तौर पर देखें तो तदर्थ के प्रभुत्व वाले इस दौर में इस समय एअर स्ट्राइक, राष्ट्रभक्ति, सेना पर गर्व का एकमुश्त मुद्दा सत्तापक्ष और मीडिया के जरिए हमारे सामने है। लेकिन पुराने अनुभव बताते हैं कि आमतौर पर लोकतांत्रिक जनता देश की रक्षा का मुद्दा अपनी सेना के जिम्मे ही छोड़े रखती है और आश्वस्त रहती है कि अपनी स्थायी और मजबूत सेना की बदौलत हमें इस मामले में ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं हैं।

इसीलिए लोकतांत्रिक जनता का सरोकार अपनी रोजमर्रा की जरूरतों, अपने दु:ख दर्द और परेशानियों से होता है। और इसीलिए हर राजनीतिक दल जनता की उन्हीं परेशानियों को चिन्हित करने में अपना पूरा जोर लगा देता है।

इसे समझने में भी बहुत मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि जनता की परेशानियों को चुनावी मुद्दा बनाने में विपक्ष हमेशा ही आगे रहता है जबकि सत्ता पक्ष पिछले पांच साल की अपनी उपलब्धियों को गिनाने में एड़ी से चोटी का दम लगाता है।

क्या कर रहा है विपक्ष?

हाल फिलहाल ही नहीं बल्कि पिछले तीन साल से विपक्ष इस सरकार के वे वायदे पकड़े हुए है जो इस सरकार ने पिछले चुनाव में किए थे। विपक्ष का काम ही यही है। विपक्ष चाहता है कि वह जनता को यह न भूलने दे कि सरकार ने पिछले चुनाव में क्या वायदे किए थे। साथ ही विपक्ष यह भी बताता चलता है कि इस बार वह सरकार में आया तो जनता के सुख के लिए क्या करेगा।

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यानी विपक्ष यह बताता है कि नई सरकार में उसकी क्या प्राथमिकताएं होंगी। अब अगर विपक्ष के इस तय काम का आकलन करना चाहें तो हमें विपक्ष के नेताओं के भाषणों और उनके पत्रकारीय विश्लेषणों पर गौर करना पड़ेगा। अब चूंकि राजनीतिक प्रचार में इतनी मारधाड और धूम-धड़ाका़ मचा है कि रोज ही हथियार रूपी नए-नए मुद्दे आ रहे हैं और वीरगति को प्राप्त होते रहे हैं। सो पता करना मुश्किल हो रहा है कि इस आपाधापी में जनता के अर्धचेतन में कौन सा चुनावी मुद्दा बैठा होगा।

हालांकि इसी बीच बीती 17 मार्च को विपक्ष के एक प्रमुख नेता यानी कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का एक आलेख हमारे सामने आया है। चिदंबरम के नियमित स्तंभ के लिए इस आलेख में वे सारी बातें हैं जो जो अटकल लगाने के लिए काफी हैं कि विपक्ष इस बार चुनावी मुददों के बारे में क्या सोच रहा है।

साथ ही इस आलेख में इस जरूरी सवाल को जांचने का भी एक नुक्ता है कि इस बार के चुनाव में देश का सबसे बड़ा चुनावी हलका यानी गाँव या किसान इस समय तक कहां पहुंचा है। इसके अलावा गाँव से भी बड़ा यानी आबादी के लिहाज से सबसे बड़े वर्ग यानी युवाओं का सरोकार यानी बेरोज़गारी का मुद्दा इस चुनाव में किस मुकाम पर है?

चिंदबरम के आलेख का वैज्ञानिक विश्लेषण

उन्होंने चुनाव के मद्देनज़र अपने शोधपरक आलेख में जनता के सरोकारों को 12 हिस्सों में बांटा है। इसमें बेरोज़गारी, किसान, सांप्रदायिक उभार के कारण असुरक्षा का भाव और नागरिकों की जासूसी के जरिए उन पर बेजा निगरानी को शुरू के चार चुनावी मुद्दों में रखा है।

उसके बाद प्रश्न वाचक शैली में उन्होंने नोटबंदी, जीएसटी, बैंक घोटालों, राफेल सौदे में भ्रष्टाचार को रखा है। इसके अलावा अपने आलेख में चिदंबरम ने सीबीआई, ईडी आयकर विभाग की साख पर चोट के मुद्दे रखे हैं। आखिर में उन्होंने देश के छह बड़े हवाई अडडों के ठेके देने में सरकार के पक्षपात का भी ज़िक्र किया है।

फिलहाल हमारे आलेख का एक सरोकार किसानों की बदहाली और गाँवों में भयावह बेरोज़गारी तक सीमित है। लिहाज़ा हम चिदंबरम के आलेख में इन दो मुद्दों को गौर से देखते हैं।

किसान और बेरोजगारी शुरू के चार मुद्दों में शामिल

इन चार मुद्दों में बेरोज़गारी को किसानों के पहले रखा गया है। इसका तार्किक विश्लेषण करें तो यह बात निकलती है कि बेरोज़गारी का संबंध युवा वर्ग से है। और यह वर्ग आबादी के लिहाज़ से इस समय सबसे बड़ा है। इस समय उम्र के लिहाज से कोई 65 फीसदी नागरिक युवा हैं, लेकिन गौर करने की बात यह है कि 65 फीसदी युवाओं में आधे से ज्यादा गाँव के ही हैं।

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यानी गाँवों में बेरोजगारी को शहरों से ज्यादा बड़ी समस्या माना जाना चाहिए। देश में खेती-किसानी इस समय ऐसा व्यवसाय है कि उसमें पता नहीं चल पाता कि खेती-किसानी में मजबूरी में कितने लोग फिजूल में ही काम पर लगे हैं। इसे अर्थशास्त्र की भाषा में छद्म बेरोजगारी कहते हैं।

वैसे आमदनी के लिहाज़ से खेती-किसानी को आजकल आंशिक रोजगार की श्रेणी में ही रखा जाने लगा है। यानी आकार के लिहाज़ से बेरोज़गारी ही सबसे बड़ी समस्या साबित होती है, और अगर प्राथमिकता के क्रम में चिंदबरम ने बेरोज़गारी को ऊपर रखा है तो सही ही रखा है।

रही बात बेरोज़गारी को चुनावी मुददा बनाने के तर्क की तो चिदंबरम ने याद दिलाया है कि पिछले चुनाव में यह वादा किया गया था कि हर साल दो करोड़ रोजगार पैदा करके देश में बेरोज़गारी खत्म कर दी जाएगी। इस लिहाज से इस बार के चुनाव में बेरोजगारी में चुनावी मुद्दा बनने के सारे लक्षण हैं।

किसानों से सवाल

किसानों की बदहाली वास्तव में ऐसी समस्या है जिसकी नापतौल आसान नहीं होती। इसीलिए किसानों के लिए तरह तरह की योजनाओं का प्रचार आसान होता है। लेकिन चिदंबरम ने किसानों के मुद्दे की तीव्रता बताने के लिए प्रश्नवाचक शैली का इस्तेमाल किया। उन्होंने किसानों से पूछा कि क्या आपको लगता है कि पिछले पांच साल में किसानों के हालात कुछ सुधरे हैं?

क्या आपकी आमदनी बढ़ी है? क्या आप में आज किसान होने की खुशी है? क्या आप आज अपने बेटे-बेटियों को किसान बनने के लिए प्रेरित करेंगे? बेशक इन सरल सवालों के जरिए विपक्षी दल के एक वरिष्ठ नेता, चिदबंरम, किसान को बहुत बड़ा चुनावी मुद्दा मान रहे हैं।

(सुविज्ञा जैन प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)


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