ग्लोबल वार्मिंग की तपिश में झुलस रहा किसान

यदि गर्मी बहुत बढ़ी तो शुक्र जैसी हालत हो जाएगी पृथ्वी की और यदि कार्बन डाइआक्साइड बहुत कम हो गई तो मंगल जैसी हालत हो जाएगी। दोनों ही दशाओं में प्रलय होगी। इसलिए सन्तुलन बनाए रखने की आवश्यक्ता है।

Update: 2019-01-04 06:28 GMT

मैं भारतीय ग्रामीण विद्यालय में बैठा था तभी चैकीदार दलीप आ गया तो मैंने उससे पूछा इस साल स्कूल में धूल अधिक है, तब उसने कहा साहब जमीन में नमी नहीं है। दलीप चैकीदार की बात को तब बल मिला जब एक दूसरे किसान ने कहा था ''भइया मघा निकरि गा अब धरती का पेटुं र्को भरी"। सच ही है, धरती प्यासी है और वाश्पीकरण की बढ़ती रफतार के कारण शरद ऋतु में ही तालाब सूख गए थे, अनेक प्रान्तों में सूखा घोषित करना पड़ गया है।

गर्मी के कारण साल दर साल बिजली की खपत बढ़ रही है क्योंकि शहर के लोग एसी और फ्रिज खूब चलाते हैं, जिनसे क्लोरोफलोरो कार्बन नाम की ग्रीनहाउस गैस निकलती हैं। अन्य ग्र्रीनहाउस गैसें हैं, मीथेन, कार्बनडाइआक्साइड, सल्फर डाई आक्साइड आदि। ये गैसें ओजोन की नीली छतरी में छेद कर देती हैं उसे आक्सीजन में बदल कर और सूर्य से आने वाली परा बैगनी गैस धरती पर सीघे पहुंच कर मनुष्य और फलों को हानि पहुचाती है। ओजोन की परत इससे हमारी रक्षा करती है।

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पश्चिमी विकसित देश कहते हें जानवरों के सांस लेने और धान के खेतों से ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं। सच यह है कि पश्चिमी देशों द्वारा कल कारखानों और शीतगृहों से सर्वाधिक ग्रीनहाउस गैसे निकलती हैं जिन्हें सीमित करने के लिए 1992 के जून माह में रियोडिजेनेरो शहर में पृथ्वी सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया गया था कि ग्रीनहाउस गैसों को 1990 के स्तर पर सीमित किया जाए। लेकिन उसके बाद हरारे और न्यूयार्क की समीक्षा बैठकों में पाया गया कि लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है। इतना भर हो जाता तो एक कदम आगे बढ़ते।

अमेरिका के पूर्व प्रेसिडेन्ट बराक ओबामा तो जलवायु संमिट के पक्ष में थे लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प ने तो अमेरिका को जलवायु संघि से ही अलग कर लिया है। कारण समझ में आता है जब विचार करें कि मानव जाति के द्वारा प्रतिवर्ष वायुमंडल में 5 अरब टन कार्बनडाई आकसाइड वायुमंडल में छोड़ी जाती है जिसमें केवल अमेरिका 20 प्रतिशत छोड़ता है। अब विकसित देशों ने टेक्नालोजी बदल ली है लेकिन पुराने उपकरण विकासशील देशों को बेचते रहते हैं।


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यह सच है कि विकासशील देश थर्मल पावर के उत्पादन तथा कोयले के अन्य उपयोगों के कारण कार्बनडाइआक्साइड का काफी उत्पादन करते हैं जो वायुमंडल में आक्सीजन का अनुपात कम करती है, परन्तु यदि यह गैस बहुत कम हो जाय तो हिमयुग आ जाता है । आजकल हम दो हिमयुगों के मध्य में हैं जिससे गर्मी और सूखा की हालत बन सकती है।

कार्बन डाइआक्साइड का उपयोग पेड़ और वनस्पतियों द्वारा होता है। पेड़ सूर्य की रोशनी में कार्बनडाइआक्साइउ को ग्रहण करके अपना भेाजन बनाते हैं और बदले में देते हैं आक्सीजन । इसे फोटोसिन्थेसिस कहते हैं। रात के समय जब सूर्य की रोशनी नहीं होती तब पेड़ अपना भोजन नहीं बनाते बल्कि श्वास लेते हैं और आक्सीजन का उपयोग करते हैं। यदि हम पेड़ों को काट डालेंगे तो कार्बनडाहआक्साइड रूपी जहर को कौन खपाएगा। निर्वनीकरण से ग्लोबल वार्मिंग जल्दी आएगी। बचने के उपाय केवल भारतीय संस्कृति में हैं।


भारत की सनातन संस्कृति में वृक्षों की पूजा होती है विशेषकर बरगद और पीपल की जो सर्वाधिक आक्सीजन देते हैं। यहां वनपति को नमन करते हैं ''वनस्पतये नमः "। लेकिन पश्चिमी देशों की औद्योगिक क्रान्ति के बाद कार्बनडाइआक्साइउ की मात्रा 25 प्रतिशत बढ़ी है और मीथेन दूनी हो गई है। वैज्ञानिकों ने यह गणना बर्फ की मोटी परतों में दबी वायु बुलबुलों का विश्लेषण करके की है। यदि गर्मी बहुत बढ़ी तो शुक्र जैसी हालत हो जाएगी पृथ्वी की और यदि कार्बन डाइआक्साइड बहुत कम हो गई तो मंगल जैसी हालत हो जाएगी। दोनों ही दशाओं में प्रलय होगी। इसलिए सन्तुलन बनाए रखने की आवश्यक्ता है।


गांव का किसान यह तो नहीं जानता कि ग्लोबल वार्मिंग क्या है, क्यों होता है परन्तु वह जानता है कि पिछले 60-70 साल में मौसम और इसलिए जलवायु में बहुत बदलाव आया है। यह बदलाव सुखद नहीं है । बीमारियां बढ़ी हैं और फसलों पर विपरीत असर पड़ा है। हमारा किसान और कुछ तो नहीं कर सकता लेकिन हरे पेड़ काटना बन्द करके अधिकाधिक नए पेड़ लगाना आरम्भ कर सकता है, कुछ तो भला होगा।    

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