गोरखपुर हादसा : बड़ा खुलासा, बस इंसेफेलाइटिस से ही नहीं हुई बच्चों की मौत

Update: 2017-08-16 16:42 GMT
बीआरडी अस्पताल में एक बच्चा। (सभी फोटो- विनय गुप्ता)

लखनऊ। गोरखपर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में पिछले पांच दिनों में हुई बच्चों की ज्यादातर मौतें इंसेफेलाइटिस की वजह से नहीं हुई हैं। अस्पताल के मेडिकल रिकॉर्ड से ये खुलासा हुआ है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में पांच दिनों में हुई 70 से ज्यादा बच्चों की मौत की वजह पूरा देश जानना चाहता है। प्रदेश सरकार ने इन मौतों के पीछे इंसेफेलाइटिस को वजह बताया है। यहां लंबे समय से इंसेफेलाइटिस के कारण बच्चों की मौत होती आ रही है।

अगर अस्पताल की रिपोर्ट की मानें तो (मिंट डॉट कॉम के पास इसकी कॉपी है) शुरूआती 30 बच्चों की मौतें जो 10 और 11 अगस्त को हुई, उनमें से केवल पांच मौतें इंसेफेलाइटिस की वजह से हुई। इनमें से एक मौत हेप्टिक इंसेफेलोप्थी (इंसेफेलाइटिस का एक प्रकार) से हुई, बाकि बच्चों की मौतें बहुत ज्यादा बीमार होने के कारण हुई।

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कुछ बच्चे निमोनिया, रोगाणुता और स्वान फ्लू से पीड़ित थे। कुछ समय से पहले जन्म लेने के कारण गंभीर अवस्था में थे। जिन 13 बच्चों की मौत 12 अगस्त को हुई, उनमें से केवल एक को इंसेफेलाइटिस था। बीआरडी मेडिकल कॉलेज के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ देवराज यादव ने बताया, '' तेजी से फैल रहा इंसेफेलाइटिस एंट्रो वायरस के कारण होता है। इंसेफेलाइटिस बीमारी जन्म से एक वर्ष तक के बच्चों को नहीं होती। इससे ज्यादा उम्र के लोगों को ये अपने चपेट में लेता है।" आंकड़े बताते हैं कि अस्पताल का रिकॉर्ड अपने बाल चिकित्सा और गहन देखभाल इकाइयों में भर्ती रोगियों के इलाज के लिए अच्छा नहीं है।

2017 में (जुलाई तक) बाल चिकित्सा विभाग में कुल 3878 बच्चे भर्ती हुए, जिनमें से 596 रोगियों की मौत हो गई। नवजात शिशु देखभाल इकाई (नवजात शिशु) में कुल 2,386 एडमिट बच्चों में से 931 मौतें ज्यादा चिंता की बात है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) के अनुसार, उत्तर प्रदेश में शिशु मृत्यु दर देश में सबसे खराब है। यहां प्रति 1000 में 78 बच्चों की मौत हो जाती है, जबकि राष्ट्रीय औसत 41 है।

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बीआरडी मेडिकल कॉलेज में हुई मौतों के कारण बाल स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने राज्य में इमरजेंसी चिकित्सा सेवाओं को मजबूत करने के महत्व पर ध्यान दिया है। 14 जुलाई को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने बीआरडी मेडिकल कॉलेज में आपातकालीन देखभाल पर एक विशेष कार्यशाला आयोजित की। "बीमार मरीजों की देखभाल और और वेंटीलेटर का प्रबंध करना एक प्रमुख आवश्यकता है, जिसकी प्रदेश में भारी कमी है। सौम्य स्वामीनाथन, सचिव स्वास्थ्य मंत्रालय, स्वास्थ्य विभाग और आईसीएमआर की महानिदेशक ने कहा कि इस मुद्दे पर ही हमने अस्पताल में एक कार्यशाला का आयोजन किया था। हमनें कई निजी विशेषज्ञ और दिल्ली के सरकारी अस्पतालों से आये डॉक्टरों को इसमें शामिल किया।

इस मौके पर उन्होंने कहा " इतने सारे मरीजों की मौत दो दिनों में इंसेफेलाइटिस से नहीं हो सकती। जब आईसीएमआर ने उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से गोरखपुर में राष्ट्रीय जापानी इंसेफेलाइटिस नियंत्रण कार्यक्रम के तहत एक रिपोर्ट मांगी तो केवल 5 से 10% मामले जापानी इंसेफेलाइटिस के थे। शिशुओं की ज्यादा मृत्यु दर ये बात साफ हो जाती है कि देखभाल की देखभाल की खराब व्यवस्था और प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी के कारण ये मौतें हुईं।

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उत्तर प्रदेश का सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम सही स्थिति में नहीं है। पिछले 15 वर्षों में राज्य की आबादी 25% बढ़ी है लेकिन सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या और सरकार की मुख्य स्वास्थ्य सुविधाओं में 8% तक की गिरावट दर्ज की गई है। 2017 में टाटा ट्रस्ट्स और पोरेस्ट एरियाज सिविल सोसाइटी (पीएसीएस) कार्यक्रम द्वारा अंतर्राष्ट्रीय विकास (डीएफआईडी) के लिए यूके सरकार के विभाग द्वारा वित्त पोषित एक अध्ययन ने राज्य की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का अध्ययन किया और इसमें प्रमुख समस्याओं का पता चला।

अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश में महिलाओं और बच्चों की स्वास्थ्य सेवा अत्यंत चिंता का कारण है। प्रदेश में एक नवजात शिशु के पास पड़ोसी राज्य बिहार की तुलना में चार साल, हरियाणा की तुलना में पांच साल कम और हिमाचल से सात साल कम जिंदा रहने की आशंका रहती है।

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