विदेश से फिर दाल मंगा रही सरकार : आख़िर किसको होगा फायदा ?

देश में दाल उगाने वाले किसानों की लागत नहीं निकल पा रही है और सरकार एक बार फिर विदेशों से दाल मंगाने जा रही है। जबकि इस साल बेहतर मानसून में दलहनों के भी अच्छे उत्पादन की संभावना है।

Update: 2018-06-15 09:52 GMT

लखनऊ। देश में दाल उगाने वाले किसानों की लागत नहीं निकल पा रही है और सरकार एक बार फिर विदेशों से दाल मंगाने जा रही है। जबकि इस साल बेहतर मानसून में दलहनों के भी अच्छे उत्पादन की संभावना है।

विदेशों से निर्यात और आयात के लिए जिम्मेदार विभाग ने 11 जून 2018 को दिल्ली में हुई विदेश व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी) ने देशभर के 345 दाल मिल और कारोबारियों को दलहन आयात की मंजूरी दे दी है। डीजीएफटी की अधिसूचना के अनुसार, 31 अगस्त तक देश में 1,99,891 (करीब 2 लाख मीट्रिक टन) अरहर (तुर), 1,49,964 टन मूंग और 1,49,982 टन उडद़ आयात हो जानी चाहिए।

जबकि देश की मंडियों में अरहर की दाल सरकार के तय न्यूनतम समर्थन मूल्य 5450 रुपये प्रति कुंतल से कम पर बिक रही है। कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र समेत देश के कई राज्यों में दालों का अच्छा उत्पादन होता है, लेकिन पिछले कई वर्षों से किसान परेशान हैं। कर्नाटक को तो दाल का कटोरा कहा जाता है। यहां के किसानों ने अपनी अरहर 3000 से लकर 4300 रुपए प्रति कुंतल तक बेची है।


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कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के दौरान रैली को संबोधित करने पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां हुई रिकॉर्ड अरहर दाल की पैदावार का जिक्र किया था। उन्होंने किसानों से ज्यादा अरहर उगाने और उसको बेचने के लिए सरकारी खरीद पर सरकार की कोशिशों का हवाला दिया था, लेकिन इसी राज्य के किसानों का सबसे बुरा हाल है।

सिर्फ कर्नाटक ही नहीं, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के किसान भी अरहर के सताए हुए हैं। मध्य प्रदेश में वर्ष 2017 और 2018 के शुरुआती दिनों में देश में जो किसान आंदोलन हुए, उनकी जड़ें अरहर दाल से जुड़ी रहीं। वर्ष 2015 में अरहर दाल के रेट 70 रुपए से उठकर 200 रुपए तक पहुंच गए थे। तब केंद्र की एक साल पुरानी नरेंद्र मोदी सरकार ने उपभोक्ता वर्ग को राहत देने के लिए म्यांमार और अफ्रीकी देशों से दाल का आयात किया। इसके अगले साल देश में दालों का भरपूर उत्पादन हुआ और रेट औंधे मुंह नीचे गिर गए और किसानों की लागत तक नहीं निकली।

ऑल इंडिया दाल मिल एसोसिएशन के चेयरमैन सुरेश अग्रवाल कहते हैं, "वर्ष 2015 में पूरे देश में 173 लाख मीट्रिक टन दहलन का उत्पादन हुआ। इसी साल रेट तेज हुए। किसान ने अगले साल खूब बुआई की। वर्ष 2016 में 221 लाख मीट्रिक टन यानि 48 लाख मीट्रिक टन ज्यादा पैदावार हुई। इतना ही नहीं, इसी साल 57 लाख मीट्रिक टन दालों का सरकार को बाहर से आयात करना पड़ा। यही वजह थी कि दलहन के रेट तेजी से नीचे गिए, किसान की लागत नहीं निकल पाई।"

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"हमारे देश में दाल की कितनी जरूरत है, कितने क्षेत्रफल में दाल बोई या कोई फसल बोई गई है। इसके सही आंकड़े सरकार के पास नहीं होते। ज्यादातर आंकड़ें डेस्क पर बनते हैं और सरकारी उन्हीं आंकड़ों पर नीति बनाती है,जिसके चलते जमीन पर चींजे गलत हो जाती हैं।"- केदार सिंह सिरोही, कोर सदस्य, आम किसान यूनियन

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भारत दाल का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है। भारत में दुनिया की 85 फीसदी अरहर की खपत होती है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, पूरी दुनिया में 49 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में अरहर बोई जाती है, जिसमें से 42.2 लाख टन उपज होती है। इस उत्पादन में 30.7 लाख टन का अनुमानित उत्पादन की हिस्सेदारी भारत की है।


भारत में चना, उड़द, मटर, मंसूर, मूंग समेत 14 किस्म की दालें होती हैं। पिछले दिनों कर्नाटक में कई दिन किसानों के बीच बिताने वाले ग्रामीण मामलों के जानकार और पत्रकार अरविंद कुमार सिंह कहते हैं, "मांग और आपूर्ति को कम करने के लिए सरकार ने विदेशों से ठेका खेती की संभावनाएं तलाशी तो देश में किसानों को प्रोत्साहन दिया, जिसकी बदौलत पूरे देश में करीब 33 फीसदी रकबा बढ़ा है। लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि कई राज्यों में अरहर एसएसपी से नीचे बिक रही है, ऐसे में आगे किसान घाटे के लिए क्यों दालें उगाएगा ?"

वो आगे बताते हैं, "देश के तमाम राज्यों की तरह कर्नाटक भी कृषि संकट की चपेट में है। और बीते पांच सालों में यहां 3500 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 2014-2015 और 2016 में सदी के भयानक तीन सूखे भी यह राज्य झेल चुका है।"

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अरहर या दूसरी दालें जब विदेश से मंगाई जाती हैं तो देश में किसानों का गणित बिगड़ जाता है। लेकिन न तो देश में एकाएक दालों की कमी होती है और न ही एकाएक रेट आसमान पर पहुंचते हैं, जिससे आयात की नौबत आ जाए। 


म्यांमार और थाईलैंड समेत कई देशों में कमोडिटी के क्षेत्र में काम कर चुके कृषि व्यापार के जानकार और मध्य प्रदेश में आम किसान यूनियन के कोर सदस्य केदर सिरोही इसकी वजह आंकड़ों की गलत गणना बताते हैं। केदार बताते हैं, "हमारे देश में दाल की कितनी जरूरत है, कितने क्षेत्रफल में दाल बोई या कोई फसल बोई गई है। इसके सही आंकड़े सरकार के पास नहीं होते। आपने सुना होगा कि इस प्रदेश में इतने लाख हेक्टेयर फसल बोई गई, लेकिन क्या आपने अपने खेत के आसपास कोई लेखपाल या पटवारी देखा है? नहीं न, ज्यादातर आंकड़ें डेस्क पर बनते हैं। और सरकारी उन्हीं आंकड़ों पर नीति बनाती है,जिसके चलते जमीन पर चींजे गलत हो जाती हैं।"

किसान घाटे के लिए क्यों उगाएगा?

मांग और आपूर्ति को कम करने के लिए सरकार ने विदेशों से ठेका खेती की संभावनाएं तलाशी तो देश में किसानों को प्रोत्साहन दिया, जिसकी बदौलत पूरे देश में करीब 33 फीसदी रकबा बढ़ा है। लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि कई राज्यों में अरहर एसएसपी से नीचे बिक रही है, ऐसे में आगे किसान घाटे के लिए क्यों दालें उगाएगा ? -अरविंद कुमार सिंह, ग्रामीण मामलों के जानकार और पत्रकार

एक कृषि प्रधान देश में दाल या दूसरी जिंसों का आयात न सिर्फ देश की मुद्रा को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि देश के लिए आत्मसम्मान पर असर डालता है। देश में 1950 के बाद से कृषि प्रसार (एग्रीक्चर एक्सटेंशन) पर जोर है। अच्छे बीज, नई तरीके और सुविधाएं देने की बात की जा रही है, लेकिन उन्नत बीजों की कमी और नकली बीजों की भरमार भी किसानों और देश दोनों को नुकसान पहुंचाती है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद गुजरात के पूर्व निदेशक मुक्ति सदन बसु अपने लेख में लिखते हैं, "देश में जमीन पर कागजों पर दाल उत्पादन ज्यादा हुआ है। राष्ट्रीय बीज निगम और राज्य फार्म निगम लिमिटेड का पिछले दिनों कृषि मंत्रालय में सरकार को विलय करना पड़ा, क्योंकि बीज निगम पर लगातार निकली बीजों की आपूर्ति कर किसानों को संकट में डालने का आरोप था, मैं खुद लगातार इस पर सवाल उठाता रहा हूं। जब बीच अच्छे नहीं होगे उत्पादन कहां से होगा।" 

दाल की कीमतों में उठापटक के पीछे सरकारी उदासीनता के अलावा एक और चीज जिम्मेदार मानी जा सकती है, वो है भारतीयों का अरहर दाल से प्रेम। गाँव कनेक्शन के प्रधान संपादक डॉ. शिव बालक मिसरा ने अपने कई लेखों में हमारी फूड हैबिट यानि खान-पान की आदतों का जिक्र किया। एक लेख में उन्होंने लिखा, "हमारे देश में शाकाहरी भोजन में प्रोटीन की पूर्ति दालों से होती है। जब अरहर दाल की कमी हो जाती है तो हाय-तौबा मचती है। आखिर प्रोटीन दूसरी दालों में भी होता है लेकिन हम कोई समझौता करने को तैयार नहीं। ऐसी समस्याएं दूसरे देशों में भी आती होंगी लेकिन वे खाने के मामले में इतने जिद्दी नहीं होंगे।"

देश के बड़े हिस्से में दाल के रूप में अरहर और उड़द, मूंग का ही इस्तेमाल होता है। इनकी मांग ज्यादा होने से सरकार पर बनता है। उपभोक्ता हितैषी उन्हीं की सुविधा के लिए चीजों का आयात करती है। जिसका असर किसानों पर पड़ता है।

कर्नाटक : दाल किसानों के हाथ 'खाली कटोरा'



 



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