गांव का एजेंडा: प्रिय प्रकाश जावड़ेकर जी, सुनिए पर्यावरण पर ग्रामीण भारत क्या सोचता है?

केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में नई सरकार ने शपथ ले ली है। इसी के साथ शुरू होती है सरकार की परीक्षा कि सरकारी योजनाओं का लाभ और सुविधाएं ग्रामीणों तक पहुंचाना। 'गाँव का एजेंडा' के नाम से अपनी स्पेशल सीरीज में गाँव कनेक्शन, ग्रामीण भारत की उन समस्याओं से मोदी सरकार को अवगत करा रहा है, जिससे दो तिहाई आबादी हर रोज जूझती है।

Update: 2019-06-11 05:28 GMT

प्रिय प्रकाश जावड़ेकर जी, सुनिए पर्यावरण पर ग्रामीण भारत क्या सोचता है?

समुद्र तल से 2000 मीटर ऊपर पश्चिमी सिक्किम जिले के ही पाताल गाँव में रहने वाले तिल बहादुर छेत्री (90 वर्ष) इलायची की खेती करने वाले एक बड़े किसान हैं। उन्होंने पिछले नौ दशकों में सिक्किम के हिमालयी क्षेत्रों में होने वाले कई बदलावों को करीब से देखा है।

छेत्री ने बताया, "इनमें से ज्यादातर बदलाव बदलते जलवायु परिवर्तन की वजह से हैं, तापमान में लगातार इजाफा हो रहा है, सर्दियां शुष्क हो गई हैं, मानसून में अनिश्चितता बढ़ गई है, नए तरह के कीड़े दिखाई देने लगे हैं।" छेत्री जैसे किसान पर्यावरण में आ रहे इस तरह के बदलाव को लेकर बहुत चिंतित हैं, क्योंकि इन सबका सीधा असर उनकी खेती और आजीविका पर पड़ रहा है।

बढ़ता हुआ तापमान और अनिश्चित मानसून का मतलब छेत्री के खेतों में इलायची की पैदावर में कमी। राज्य के ऊंचे क्षेत्रों में पैदा होने वाले मंडारिन संतरों को भी इसका नुकसान हुआ है, क्योंकि बढ़ते तापमान से ये खुद को बचा नहीं सकते।

सिक्किम के जलवायु क्षेत्र में बदलाव-पैटर्न, प्रभाव और पहल के नाम से 2012 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार सिक्किम सरकार ने पिछले दो दशकों (1991-2000 से 2001- 2010) में होने वाली वार्षिक बारिश में प्रति वर्ष 17.77 मिमी की कमी को टडोंग मेटरॉलिजकल स्टेशन में रिकार्ड किया। इसके अलावा 1981 से 2010 के बीच न्यूनतम तापमान में भी 1.95 डिग्री सेल्शियस की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई है।


जलवायु परिवर्तन और उसका प्रभाव केवल एक राज्य तक सीमित नहीं है। यह बदलाव देशभर के ग्रामीण समुदायों और किसानों की ओर से भी महसूस किया गया है, ये जलवायु परिवर्तन को समस्या बढ़ाने वाला (थ्रेट मल्टिप्लायर) की संज्ञा देते हैं।

इसलिए पर्यावरण के बढ़ते संकट से निपटने के लिए सबसे पहले इन समस्याओं से की ओर ध्यान देने की जरूरत है-

1. जलवायु परिवर्तन:

देश का 43 प्रतिशत हिस्सा सूखे की चपेट में है, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, झारखंड, बिहार, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के लोग बड़े जल संकट से जूझ रहे हैं। कई क्षेत्र तीन तरह से सूखा झेल रहे हैं- मानसून फेल होने से, कृषि की उपज नहीं होने से, भू-जलस्तर में कमी से।

2. जल संकट ने बढ़ाया सूखा:

किसानों ने दोनों खरीफ और रबी सीजन में होने वाली फसलों में नुकसान झेला। इनमें से कुछ क्षेत्र पिछले दो-तीन वर्षों से लगातार सूखे का सामना कर रहे हैं। पिछले साल सामान्य से कम मानसून वर्षा के बाद, इस वर्ष मानसून की खराब बारिश और अब मानसून में देरी की वजह से देश में सूखे की स्थिति और बढ़ गई है। इसलिए आने वाले सूखे से भारत को बचाना ग्रामीण भारत की दूसरी पर्यावरणीय चुनौती है। यहां वैज्ञानिक तथ्य भी मौजूद हैं, जो बताते हैं सूखा और जलवायु परिवर्तन एक दूसरे से लिंक हैं, भारतीय महासागर का गर्म होना भारतीय ग्रीष्म मानसून में भी बदलाव लाता है।


हमारा मानसून भारत का असली वित्त मंत्री है, क्योंकि भारत में होने वाली 60 प्रतिशत कृषि मानसूनी बारिश पर आधारित है। इसलिए मानसून की बारिश में किसी भी प्रकार के बदलाव का सीधा प्रभाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।

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3. भूजल को बचाना:

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा जैसे अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में नियमन की कमी और भूजल के अत्यधिक दोहन ने सूखे की स्थिति पैदा कर दी है। वर्ष 1972 में राज्य में विकट सूखा पड़ा और बारिश नहीं हुई, लेकिन खुदाई के कुछ फीट के नीचे ही भूजल मौजूद था।

आज मराठवाड़ा के कई इलाकों में 1000-1200 फीट तक भूजल नहीं है। गलत पैटर्न पर गन्ने की खेती करना, जिसमें पानी की काफी आवश्यकता होती है आज क्षेत्र को सूखे के मुहाने पर ला खड़ा किया है। जब भी मानसून की बारिश अच्छी नहीं होती, तो जल संकट इस क्षेत्र पर हावी हो जाता है। यहां न खेती, न ही मवेशियों के लिए पानी है, न ही पीने के लिए। भूजल का विनियमित उपयोग सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है।

4. भारतीय वन अधिनियम, 1927 का अत्यधिक विवादास्पद प्रस्ताव:

इससे देश के 16 राज्यों में वनभूमि से 1.89 मिलियन से अधिक वन निवासी और अन्य वन-निवास वाले घरों से जबरन बेदखली का खतरा मंडरा रहा है। भारतीय वन अधिनियम, 2019 का ड्राफ्ट उच्च प्रबंधन शक्तियों और वन अधिकार अधिनियम, 2006 के साथ वन नौकरशाही के साथ वीटो पावर की एक डिग्री बहाल करने की बात कहता है।

नए बिल का ड्राफ्ट वन अधिकारियों को आदिवासियों को जंगलों के अधिकार से वंचित या बाहर करने की अनुमति देता, यहां तक 2006 अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त वन उपज के लिए आदिवासियों और वनवासियों की वन तक पहुंच कम या प्रतिबंधित करने का हक देता है।


यहीं नहीं, इसमें वन क्षेत्रों में ग्राम सभा की भूमिका कम करके वन अधिकारियों का कहा अंतिम माने जाने की भी बात है। यह अधिनियम वन नौकरशाही शक्तियों को भारत के वनों पर शासन करने की शक्ति प्रदान करता है। जिसमें वन निवासियों के उन बुनियादी मानवाधिकारों को निलंबित किया जाता है, जो देश के अन्य नागरिकों को प्रदान की जाती है।

इस साल 13 फरवरी को भी सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश में उन सभी आदिवासी और वनवासियों को वनों से बेदखल करने का निर्देश दिया गया है। उन्हें वन अधिकार कानून के तहत पारंपरिक वनभूमि के दावे से वंचित रखने का निर्देश दिया गया है। कोर्ट का यह आदेश 1.89 मिलियन से अधिक आदिवासी और वन-निवास परिवारों को प्रभावित कर सकता है। हालांकि शीर्ष अदालत ने आदेश को जून तक के लिए रोक दिया था, लेकिन उसके इस आदेश से लाखों लोगों की वनों से बेदखल होने और उनकी जान पर खतरा बना हुआ है। पर्यावरण मंत्रालय को लोगों के अधिकारों की सक्रिय रूप से रक्षा करने। इसके कानूनी रुख में संशोधन करने के साथ-साथ वन अधिकार अधिनियम का सम्मान करते हुए वनों के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए प्रक्रियाओं की रचनात्मक भूमिका चाहिए।

भारतीय वन अधिनियम के प्रस्तावित ओवरहालिंग को सुनिश्चित करने की तुरंत जरूरत है, 2006 के वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के खिलाफ नहीं है। असल में, एक कदम आगे जाने की जरूरत है, और सभी कानूनों और नियमों में संशोधन करना होगा, जो 2006 के अधिनियम, पत्र, भावना या व्यवहार में विरोधाभासी हैं।

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5. प्लास्टिक कचरे की बढ़ती समस्या :

प्लास्टिक रैपर, बहुस्तरीय वेफर पैकेट, पाउच, डिस्पोजेबल (थर्मोकोल या स्टायरोफोम) फूडवेयर से कचरा लगातार बढ़ रहा है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुमान के अनुसार, देश में 25,940 टन से अधिक प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है। लेकिन यह डेटा ज्यादातर शहरों में किए गए सर्वेक्षणों पर आधारित है। अभी तक ग्रामीण भारत में प्लास्टिक कचरे के बढ़ते भार और प्रभावों के बारे में कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है।


प्लास्टिक कचरा न केवल स्थानीय जल निकायों को रोक देता है, बल्कि जमीन खराब करने की भी वजह बनता है। कचरे पर हमारा ध्यान शहरी भारत की अपशिष्ट समस्याओं से परे जाना चाहिए। इसको लेकर ग्रामीण भारत की चुनौतियों को भी हल करना चाहिए, जिसमें अपशिष्ट प्रबंधन के निपटारे के लिए औपचारिक प्रणाली का अभाव है। जिससे प्लास्टिक कचरे के उत्पादन में वृद्धि का सामना करना पड़ रहा है। 

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