दिल्ली की देहरी : शायर-शायरी की जुबानी, उर्दू की कहानी

Update: 2019-02-19 06:11 GMT

नलिन चौहान

अमीर खुसरो को उर्दू भाषा का प्रथम कवि माना जाता है। पटियाली (अवध) में पैदा हुए खुसरो ने सबसे पहले उर्दू में कविताएं कीं। उर्दू की सबसे पहली गजल अमीर खुसरो की ही है। इस गजल की विशेषता यह है कि इसकी एक पंक्ति फारसी की है तो दूसरी उर्दू की।

जहाल मस्कीं मकुन तगाफुल दुराय,

नैना बनाय बतियां।

उन्नीसवीं शताब्दी में बोलचाल की भाषा को लगभग हमेशा हिन्दी की कहा जाता था, जबकि अठारहवीं शताब्दी में रेख्ता को बोलचाल की भाषा के लिए बेझिझक इस्तेमाल करते थे। प्रसिद्ध शायर 'मीर' तक़ी 'मीर' का पहला शेर है (पहला दीवान, 1752 से पूर्व)

गुफ्तगू रेख्ते में हमसे न कर,

यह हमारी जबान है प्यारे।

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भाषा के नाम की हैसियत से उर्दू शब्द का प्रयोग पहली बार 1780 के आसपास हुआ। मुसहफी के पहले दीवान में हैः

अलबत्ता मुसहफी को है रेख्ते में दावा

यानी के हैं जबां दां उर्दू की वो जबां का

'मीर' ने बिलकुल सीधे-सादे शब्दों में कहा,

पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग।

मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।।

गौरतलब है कि उनके प्रतिद्वंद्वी 'सौदा' ने भी, जो निन्दात्मक काव्य के बादशाह समझे जाते हैं और जिनकी कभी-कभी 'मीर' से शायराना चोटें चल जाती थीं, 'मीर' की खुले शब्दों में प्रशंसा की हैः-

सौदा' तू इस ज़मीं से ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही लिख।

होना है तुझको 'मीर' से उत्साद की तरफ़।।

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इसी तरह, दिल्ली की ही मिर्जा मोहम्मद रफी "सौदा" ने उर्दू में उत्कृष्ट कविताएं लिखीं। इनकी कविताओं में भारतीय रीति-रिवाजों के चित्रण हुए हैं। कसीदा-लेखन में इनकी विशिष्ट ख्याति है। उर्दू साहित्य में आवेशपूर्ण हज्ब की रचना का श्रेय सौदा को ही है जिसमें व्यंग्य होता है और विनोद भी, हास-परिहास होता है तो उपहास भी।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल 'हिंदी साहित्य के इतिहास' में लिखते हैं, ''देश के भिन्न-भिन्न भागों में मुसलमानों के फैलने तथा दिल्ली की दरबारी शिष्टता के प्रचार के साथ ही दिल्ली की खड़ी बोली शिष्ट समुदाय के परस्पर व्यवहार की भाषा हो चली थी। खुसरो ने विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में ही ब्रजभाषा के साथ-साथ खालिस खड़ी बोली में कुछ पद्य और पहेलियां बनाई थीं। औरंगजेब के समय फारसी मिश्रित खड़ी बोली या रेख्ता में शायरी भी शुरू हो गई और उसका प्रचार फारसी पढ़े-लिखे लोगों में बराबर बढ़ता गया।

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इस प्रकार खड़ी बोली को लेकर उर्दू साहित्य खड़ा हुआ, जिसमें आगे चलकर विदेशी भाषा के शब्दों का मेल भी बराबर बढ़ता गया और जिसका आदर्श भी विदेशी होता गया।'' प्रो. एजाज़ हुसैन ने अपनी किताब 'मज़हब और शायरी' में दिखाया है कि उर्दू कविता का जन्म और पालन-पोषण सौ फ़ीसदी धर्म अर्थात इस्लाम का नतीजा है। लेकिन उन्होंने खुद उर्दू को फ़ारसी-परस्ती से जोड़ा है।

आज की उर्दू को दिल्ली के मुगल दरबार की भाषा बनते बहुत देर लगी। गैर सरकारी भाषा का रूतबा भी उसके लिए उसी समय सम्भव हो सका, जब शाहआलम द्वितीय (शासनकाल 1759-1806) जनवरी 1772 में दिल्ली वापस आया। अपनी कृति 'अजायब-उल-कसस' में उसने इस दास्तान की भाषा का नाम हिन्दी ही लिखा है।

दिल्ली के शेख इब्राहीम 'जौक', मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने भी इनका शिष्यत्व ग्रहण किया था, की अधिकांश रचनाएं 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की विभीषिका की भेंट चढ़ गयीं जिसका उल्लेख 'आबेहयात' में मिलता है। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इन्होंने उर्दू भाषा को सुसंस्कृत और परिमार्जित किया।

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मिर्जा असदुल्लाह खां 'गालिब' के बिना उर्दू अधूरी है। गालिब फारसी भाषा के विद्वान और कवि होने के साथ समर्थ गद्यकार भी थे। उनके पत्रों के संग्रह 'ऊदे हिन्दी' और 'उर्दूए मोअल्ला' उर्दू में लिखित पत्रों के संग्रह ही हैं।

अरे, बन्दे खुदा उर्दू बाज़ार न रहा उर्दू कहाँ ?

दिल्ली, वल्लाह, अब शहर नहीं है, कैंप है, छावनी है,

न क़िला न शहर, न बाज़ार न नहर. (ग़ालिब के पत्र)

यही कारण है कि ये उर्दू के महाकवि घोषित किए गए। इनकी रचनाओं में मात्र काव्य का उत्कर्ष ही नहीं, दर्शन का गहरा पुट भी है। ग़ालिब के बारे में मीर का मानना था कि अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बनेगा, वरना मोहमल (अर्थहीन) बकने लगेगा।

उर्दू-साहित्य को मीर और ग़ालिब से क्या हासिल हुआ, इस बारे में अपनी पुस्तक "ग़ालिब" में रामनाथ सुमन कहते हैं: जिन कवियों के कारण उर्दू अमर हुई और उसमें 'ब़हारे बेख़िज़ाँ' आई उनमें मीर और ग़ालिब सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। मीर ने उसे घुलावट, मृदुता, सरलता, प्रेम की तल्लीनता और अनुभूति दी तो ग़ालिब ने उसे गहराई, बात को रहस्य बनाकर कहने का ढंग, ख़मोपेच, नवीनता और अलंकरण दिये।

उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'

हिन्दुस्तां में धूम हमारी ज़बां की है

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दिल्ली में जन्मे दाग सिद्धहस्त कवि थे। 'गुलजारे दाग', 'आफताबे दाग' और 'माहताबे दाग' उर्दू साहित्य की अपूर्व निधियां हैं। कसीदे और रूबाइयां लिखने वाले दाग की रचनाओं में उर्दू भाषा का परिमार्जन और सौकुमार्य दृष्टिगोचर होता है।

1920 के दशक में निजामुद्दीन दरगाह के सज्जादानशीबन व लेखक ख्वाजा हसन निजामी ने 1857 की आजादी की लड़ाई पर उर्दू में पुस्तिकाएं छापी जो कि दिल्ली पर केंद्रित थीं। 'दिल्ली की आखरी शमा' इनमें से सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुई। इस रचना के लेखक मिर्जा फरहतुल्लाह बेग थे। दिल्ली की आखरी शमा (मूल शीर्षक था 'दिल्ली का आखरी मुशायरा', ख्वाजा हसन निजामी ने इसका शीर्षक बदल दिया था)। दिल्ली में 1857 से कुछ वर्ष पहले एक मुशायरे की कल्पना है जिसमें दिल्ली के तमाम बड़े शायर (लगभग पचास) भाग लेते हैं। फरहतुल्लाह बेग ने 19 वीं शताब्दी के मध्य के दिल्ली के सांस्कृतिक माहौल का इसमें बड़ा विश्वसनीय चित्रण किया है। यह तस्वीर मौखिक परंपरा पर आधारित है।

'धर्मनिरपेक्षता की खोज में हिन्दी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि' पुस्तक में विजयदेव नारायण साही लिखते हैं कि दिल्ली की उर्दू का मतलब था सात सौ बरसों की बंजर फ़ारसीगोई का बहिष्कार, लेकिन लगे हाथ सारे ब्रजभाषा साहित्य का बहिष्कार भी, जिससे उसका जन्म हुआ और जिसकी परम्परा को निभाने में उर्दू असमर्थ रही। मीर और ग़ालिब का मतलब सिर्फ देव और बिहारीलाल को ही भूलना नहीं हुआ बल्कि फेहरिस्त से कबीरदास, जायसी, रहीम और उन तमाम लोगों का नाम खारिज करने का हुआ जिन्होंने एक मिले-जुले देसी मिजाज को बनाने में पहल की थी।

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