झारखंड में पशु सखियों की बदौलत लाखों लोगों की गरीबी के मर्ज़ का हो रहा 'इलाज'
चूल्हा-चौका करने वाली महिलाओं के हाथ में सुई-सीरिंज आने से इनकी गरीबी का मर्ज अब खत्म हो रहा है। अपने हुनर और मेहनत के बदौलत इन महिलाओं को डॉक्टर दीदी कहा जाता है। अब इनके काम की पहचान इनके नाम से हो रही है।
रांची। झारखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ महिलाएं हैं। भेड़, बकरी और मुर्गियों जैसे छोटे पशु इन महिलाओं की आर्थिक लड़ाई के साथी हैं। आदिवासी बाहुल्य जंगलों और पहाड़ियों की धरती झारखंड के लगभग हर घर में मुर्गियां और बकरियां पाली जाती हैं। लेकिन इन्हीं पशुओं में होने वाली बीमारियां उन्हें सबसे बड़ा झटका देती थीं, देखते ही देखते पूरे गांव की बकरियां-मुर्गियां मर जाया करती थीं…लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हालात बदल गए हैं, यूं समझिए कि अब बकरियां और मुर्गियां इनके लिए एटीएम हैं, यानि एनीटाइम मनी.. और इसका पूरा श्रेय जाता है यहाँ की पशु सखियों को।
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पूर्वी सिंहभूम जिला मुख्यालय से लगभग 60 किलोमीटर दूर पटमदा ब्लॉक के इन्दाटाड़ा गाँव में रहने वाली भादूरानी महतो (35 वर्ष) अपने गाँव की पशु सखी की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं, "अब हमें कोई चिंता नहीं रहती। बकरी को जरा सा कुछ हुआ इनको बुला लेते हैं। जब गाँव में ही डॉक्टर हो तो फिर किस बात की चिंता।" वो आगे बताती हैं, "पहले तो हमारे यहाँ बकरी मरने के डर से लोग ज्यादा बकरी नहीं पालते थे लेकिन अब बीमार होने से पहले ही इसका इलाज ये कर देती हैं।" इन्दाटाड़ा गाँव में ज्यादातर घरों में पांच से दस बकरियां सबके पास होंगी और इनकी इलाज करने के लिए यहाँ की पशु सखी पुष्पा रानी हमेशा तैयार रहती हैं।
झारखंड पहाड़ी और जंगली क्षेत्र होने की वजह से यहाँ 70 फीसदी से ज्यादा लोग बकरी पालन करते हैं लेकिन बकरियों की सही देखरेख न होने की वजह से यहाँ 35 फीसदी बकरियां बीमारी की वजह से मर जाती थीं। बकरी और मुर्गियों की मृत्यु दर झारखंड में बहुत बड़ी समस्या बन गई थी।
जंगली-पहाड़ी इलाके में छोटे पशुओं के इलाज के लिए पशु चिकित्सक पहुंच नहीं पा रहे थे, ऐसे में झारखंड स्टेट लाईवलीवुड प्रमोशन सोसाइटी ने स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी महिलाओं को पशु चिकित्सा का प्रशिक्षण देकर उन्हें इलाज का जिम्मा सौंपा। राज्य में करीब 5,000 पशु सखियाँ 58,000 से ज्यादा पशुपालकों की बकरियों की देखरेख का जिम्मा उठा रही हैं। ब्लॉक स्तरीय ट्रेनिंग के बाद ये महिलाएं बकरियों में पीपीआर, खुरपका, मुंहपका जैसी बीमारियों का इलाज करती हैं। साथ ही उन्हें अच्छे पोषण, रखरखाव बेहतर पशुपालन की सलाह देती हैं।
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झारखंड में बकरी और मुर्गी पालन जैसे कार्यों की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं पर हैं। सुखद तस्वीर ये है कि बकरी पालन में मुनाफा और पशु सखी जैसी परियोजनाओं से जुड़कर ग्रामीण महिलाएं न सिर्फ आर्थिक बल्कि सामाजिक रुप से भी सशक्त हो रही हैं। एक पशु सखी महीने के 5000-7000 रुपए गाँव में रहकर आसानी से कमा लेती है। अगर ये पशु सखी राज्य में रहकर दूसरी पशु सखियों को प्रशिक्षित करती हैं तो इन्हें दिन का 500 रुपए मिलता है अगर ये राज्य से बाहर जाती हैं तो इन्हें 15 दिन का 20000-22000 रुपए मिलते हैं।
ग्रामीण महिलाओं के लिए सशक्तीकरण की मिसाल बन रहे झारखंड की पशु सखी योजना को अब देश के कई राज्यों में लागू किया जा रहा है। बिहार जैसे राज्य में पशु सखी की ट्रेनिंग का जिम्मा भी झारखंड की इन पशु सखियों को मिला हैं। अपने हुनर और मेहनत के बदौलत इन महिलाओं को डॉक्टर दीदी कहा जाता है। अब इनके काम की पहचान इनके नाम से हो रही है।
चूल्हा-चौका करने वाली महिलाओं के हाथ में सुई-सीरिंज आने से इनकी गरीबी का मर्ज भी अब खत्म हो रहा है। ग्रामीण अर्थव्वस्था में महत्वपूर्ण बदलाव लाने वाली इन महिलाओं को सरकार भी पूरा साथ और सम्मान दे रही है। झारखंड स्थापना दिवस पर सम्मानित हुईं पशु सखी बलमदीना तिर्की इसका उदाहरण हैं। पांचवी पास बलमदीना को झारखंड सरकार ने उनके सराहनीय कार्यों के लिए न केवल सम्मानित किया बल्कि एक लाख रुपए का चेक भी दिया।
पशु सखियों के इलाज से बकरियों की मृत्यु दर 30 फीसदी घटी
आज झारखंड में 5,000 पशु सखियाँ बकरियों और मुर्गियों का इलाज कर इनकी मृत्यु दर कम कर रही हैं। इनके आने से जो मृत्यु दर पहले 35 फीसदी होती थी वो घटकर केवल पांच फीसदी बची है। जो पशुपालक पहले पांच सात बकरियां पालते थे अब वही 15-20 बकरियां पालते हैं। गाँव-गाँव पशु सखी होने से ग्रामीणों को एक सहूलियत ये भी है कि अगर इनके पास पैसे नहीं भी हैं तो भी ये पशु सखियाँ इलाज कर देती हैं और जब इनके पास जब पैसे हो जाते हैं तो ये पैसे दे देते हैं।
पशु सखी कलावती बताती हैं, "बकरियों की इलाज के लिए गाँव में डॉ नहीं आते थे। बकरी को लादकर कई किलोमीटर अस्पताल ले जाना पशु पालकों के लिए मुश्किल था जिसकी वजह से इनकी समय से इलाज नहीं हो पाती थी और ये मर जाती थीं लेकिन जबसे हम लोगों को ट्रेनिंग मिल गयी है तबसे गाँव में ही इनकी इलाज हो जाती है।"
वो आगे बताती हैं, "पीपीआर जैसी गम्भीर बीमारी में भी हम बकरी को मरने से बचा लेते हैं पिछली साल हमने एक पशु पलक की बकरी बचाई थी।" कलावती के गाँव में रहने वाली सुलजी देवी (55 वर्ष) खुश होकर कहती हैं, "अब बकरी पालने के लिए सोचना नहीं पड़ता। जब बकरी बीमार होती है कलावती को बुला लेते हैं।"
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पांच से 10 रुपए में ये पशु सखियाँ करती हैं इलाज
पशु सखी, सखी मंडल से जुड़ी वो महिलाएं होती हैं जो गांव में ही रहती हैं। उसी गांव की होने के चलते वो पशुपालकों की न सिर्फ समस्याएं आसानी से समझती हैं बल्कि जरुरत पड़ने पर तुरंत इलाज के लिए भी पहुंच जाती हैं। जिस बकरी के इलाज के लिए पहले शहर से आने वाले डॉक्टर 200 रुपए लेते थे अब वही इलाज पशु सखी 5 से 10 रुपए में कर देती हैं।
पिछले तीन-चार वर्षों में पशु सखियों की बदौलत न सिर्फ झारखंड के लाखों परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरी है बल्कि ग्रामीण महिलाओं को आजीविका का जरिया भी मिला है। अबतक सखी मंडल से 19 लाख से ज्यादा ग्रामीण महिलाएं जुड़ चुकी हैं। जिनमें से करीब 5,000 महिलाएं पशु सखी बनकर पशुपालकों की मदद कर रही हैं।
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पुरुषों से ज्यादा कमाती हैं यहाँ की महिलाएं
यहाँ की महिलाएं पुरुषों से ज्यादा मेहनती और जुझारू होती हैं। क्योंकि घर का खर्चा इनके कंधों पर रहता है। शुरुआती दौर में तो इनके पति यहाँ वहां जाने में रोक टोक करते हैं लेकिन जब उन्हें लगता है कि वो उनसे ज्यादा कमा रही है और अगर नहीं जाने दिया तो घर का खर्चा कैसे चलेगा ये सोचकर बड़ा में वो सपोर्ट करने लगते हैं।
पशु सखी बलमदीना तिर्की बताती हैं, "महीने में जितना कमाते हैं उसी कमिया से आज हम अपने बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ा रहे हैं। महीने का पांच सात हजार कमा लेते हैं जब सीआरपी ड्राइव में जाते हैं तब 15 में सात हजार मिल जाता है। अगर दूसरे राज्य में ट्रेनिंग देने जाते हैं तो 15 दिन का बीस बाईस हजार मिल जाता है।"
पशु सखी शारिदा बेगम खुश होकर कहती हैं, "अब पति के आगे पैसों के लिए हाथ नहीं फैलाना पड़ता। अब उन्हें जब जरूरत पड़ती है तो वो हमसे मांगते हैं। अपनी कमाई की बात ही कुछ और है।"
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झारखंड में 58,000 से ज्यादा पशु पालक करते हैं बकरी पालन
राज्य में 58,000 से ज्यादा पशु पालक बकरी पालन कर रहे हैं। यहाँ ब्लैक बंगाल नस्ल पायी जाती है। ये पशु सखियाँ बकरियों के इलाज से लेकर उनके आहार तक की पूरी जानकारी पशुपालकों को घर-घर जाकर देती हैं जिससे बकरियों का खानपान बेहतर रहे और पशुपालकों को इसका अच्छा दाम मिल सके।
राज्य स्तरीय पशु सलाहकार लक्ष्मीकांत स्वर्णकार ने बताया, "छोटे पशुओं के इलाज के लिए सुदूर और दुर्गम इलाकों में डॉ नहीं पहुंच पाते थे इसलिए हमने गाँव में ही पशु सखी के रूप में एक ऐसा कैडर तैयार किया जो गाँव में रहकर छोटे पशुओं की इलाज कर सके।"
वो आगे बताते हैं, "एक पशु सखी 100-150 परिवारों की 200-300 बकरियां और 500-700 मुर्गियों को बीमारी से पहले टीकाकरण और कृमिनाशक देती है। ये पशु सखी हर पशु पालक का चारा, दाना और पानी स्टैंड बनवाती हैं। इसके आलावा महीने में दिया जाना वाला आहार भी तैयार करवाती हैं।"
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आंकड़ों की जुबानी
राज्य में 75 फीसदी ग्रामीण लोग करते हैं बकरी पालन
19 लाख से ज्यादा ग्रामीण महिलाएं जुड़ी हैं सखी मंडल से
5,000 महिलाएं पशु सखी बनकर कमा रही हैं लाभ
58,999 किसान जेएसएलपीएस के सहयोग से कर रहे हैं बकरी पालन
5000-7000 रुपए तक प्रति महीने कमा लेती है एक पशु सखी
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