'मदर्स ऑफ़ इण्डिया' पार्ट-4: बच्चे भूखे न सोएं इसलिए ये माँ बनाती है ट्रकों के पंचर

अपने बच्चों की परवरिश के लिए क्या-क्या करती हैं माएं? महिला दिवस के उपलक्ष्य में गांव कनेक्शन की विशेष सीरीज में मिलिए कुछ ऐसी मांओं से जो अपने परिवार के लिए दहलीज़ लांघकर, लीक से हटकर काम कर रही हैं। आज मिलिए पंचर बनाने वाली तरन्नुम से ...

Update: 2020-03-07 05:35 GMT

पंचर ट्यूब को जोड़ने में व्यस्त वो आसपास के माहौल से बेखबर थी। दुकान के आसपास कुछ लोगों का जमावड़ा लगा था सब उसे ही टकटकी लगाकर देख रहे थे।

गांव कनेक्शन टीम की आवाज़ से तरन्नुम का ध्यान टूटा।

"छोटी-छोटी जरूरतों के लिए बच्चों को रोता हुआ नहीं देख सकती थी। इन हाथों ने 23 साल पहले रिंच और हथौड़ा थामा था तबसे आज तक पंचर बना रही हूं, "पंचर बनाते हुए तरन्नुम बोलीं, "मैं अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा नहीं सकी, इसका मुझे हमेशा मलाल रहेगा।"

तरन्नुम वो बहादुर मां हैं जो अपने बच्चों की परवरिश के लिए 23 साल से उत्तर प्रदेश के लखनऊ में पंचर बना रही हैं। अभी इनकी दुकान छठा मील में है। तरन्नुम साईकिल से लेकर ट्रक तक के पंचर बना लेती हैं।

लखनऊ के छठा मील पर अपनी दुकान पर पंचर बनाती तरन्नुम.

जिस उम्र में औरतें सजती-संवरती हैं, उस उम्र में तरन्नुम ने लोहे का औजार लेकर पंचर बनाने का काम शुरू कर दिया था।

तरन्नुम को नहीं याद है कि अपने खुरदरे पड़ चुके हाथों में आख़िरी बार कब मेंहदी लगाई थी?

"पंचर की दुकान में इतनी आमदनी नहीं होती कि बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाया जा सके। पांच लोगों के खाने का ही इंतजाम करना मुश्किल होता है," लकड़ी के एक बाक्स में हथौड़ा रखते हुए तरन्नुम बोलीं।

देश की आधी आबादी में तरन्नुम (37 वर्ष) ग्रामीण क्षेत्र की वो महिला हैं जिन्होंने न केवल पुरुषों के काम को चुनौती देकर पंचर बनाने का हुनर सीखा बल्कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आकर अपने नाम की एक खास पहचान भी बनाई।


पंचर बनाने का ही काम क्यों चुना इस पर तरन्नुम ने बताया, "मुझे दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा करना पसंद नहीं था। गरीब हैं पर मालिक का रोज अपमान नहीं सह सकते थे। तभी अपना ये हुनर सीख लिया। आप आसपास तरन्नुम पंचर वाली का लीजिये सब मेरी दुकान का पता बता देंगे।"

सड़क चलते राहगीर जो वहां से पहली दफा गुजरते हैं अचानक से उनकी गाड़ी की रफ्तार कम हो जाती है, पैदल चलते लोगों के कदम ठिठक से जाते हैं। क्योंकि यहां उनकी नजर दुबली कदकाठी की उस तरन्नुम पर पड़ती है जो साइकिल से लेकर ट्रक तक का पंचर फुर्ती से बनाती है।

'बेटी तुम बहुत आगे जाओगी, तुम्हें कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाने पड़ेंगें।" इस वाक्य को तरन्नुम आजतक नहीं भूल पायीं हैं। ये शब्द एक रिटायर्ड पुलिस वाले के थे जब तरन्नुम ने पहली बार आज से 23 साल पहले उनकी गाड़ी का पंचर बनाया था।

'देखो कितना अच्छा काम कर रही है!'... 'घर भी संभालती और दुकान भी!'... 'सीखो इनसे!'

कुछ ऐसे वाक्य पंचर बनाते हुए तरन्नुम के कान में अकसर पड़ जाते हैं।


"अब तो बहुत से आदमीं अपनी औरतों (पत्नियों) को लेकर मेरी दुकान पर मेरे काम को दिखाने लाते हैं। कुछ औरतों को मेरा काम अच्छा लगता है तो वो तारीफ़ करके जाती हैं तो कुछ इसे अच्छा नहीं मानतीं।" तरन्नुम हंसते हुए बोलीं।

तरन्नुम मूल रूप से उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर दूर गंगापुरवा गांव की रहने वाली हैं। इनके दो बेटे और एक बेटी है। जब एक छोटे गाँव से निकलकर तरन्नुम लखनऊ आयीं थीं तब उन्हें अंदाजा नहीं था कि क्या करना है?

लेकिन आज लखनऊ के जानकीपुरम क्षेत्र में तरन्नुम वो नाम है जो आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। तरन्नुम पंचर वाली का नाम लेते ही लोग आपको इनकी दुकान तक पहुंचा देंगे। ये पेंटिंग भी करती हैं। 

पर इस मुकाम तक पहुंचना तरन्नुम के लिए कभी आसान नहीं था। मुश्किल हालातों के इनके पास अनगिनत किस्से हैं।

"शादी के एक साल बाद ही मेरे पति ने मुझे ये अहसास करा दिया था कि मुझे भी कुछ काम करना पड़ेगा। वो एक दुकान पर पहले पंचर बनाते थे फिर अपनी दुकान खोल ली। उनको बनाते देख मैंने धीरे-धीरे पंचर बनाना सीख लिया।" हल्के हरे रंग का गले में दुपट्टा डालते हुए तरन्नुम बोलीं।

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गरीब परिवार में जन्मी तरन्नुम की शादी महज 15 साल की उम्र में हो गई थी। शादी के बाद इनके पति ज्यादातर बीमार ही रहते थे। पंचर बनाने में इनके पति की इतनी आमदनी नहीं होती थी जिससे उनका इलाज चल सके और घर का खर्चा। यही वो समय था जब तरन्नुम को घर खर्च के लिए कुछ काम करना था।

"एक साल तक मैंने खाना बनाने का काम किया जिसमें जरा सी गलती पर बहुत डांट पड़ती थी। मुझे खुद से लगने लगा था कि मैं ये काम नहीं कर सकती हूं। पंचर बनाना झाड़ू-पोछा के काम से मुझे ज्यादा अच्छा लगता है," तरन्नुम अपनी छोटी सी दुकान के दिखा रही थीं।

एक हाथ में घड़ी दूसरे हाथ में एक कंगन पहने उस दिन तरन्नुम लाल रंग का छींटदार सूट पहने पंचर बनाने में व्यस्त थीं। आज भी जब महिलाएं जब पुरुषों वाले काम करने की ठानती हैं तो उन्हें पुरुष प्रधान समाज अच्छा नहीं मानता है यही तरन्नुम के साथ भी हुआ।

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"शुरुआती दौर में लोग तरह-तरह की बातें बनाते थे। कोई कहता अब इनसे घर का काम नहीं होता तो सड़क पर बैठ गईं। उस समय ऐसा जमाना नहीं था। पहले ये काम पुरुष ही करते थे," तरन्नुम अबतक एक ट्यूब का पंचर जोड़ चुकी थी।

"मेरी हमेशा से ख्वाहिश थी जिस दौर से मैं गुजरी हूं उन हालातों से कभी मेरे बच्चों का वास्ता न हो। अपनी कोशिश में बेटी की अच्छे घर में शादी कर दी है," तरन्नुम बोलीं, "दोनों बेटे मजदूरी करते हैं। अगर पढ़ा पाती तो शायद आज उन्हें ये काम न करना पड़ता।"

इन 23 सालों में किसी ने तरन्नुम का हौसला बढ़ाया तो किसी ने उनके इस काम का विरोध किया। पर इनकी जिंदगी में बहुत कुछ बदला नहीं। इन्हें अपने नाम की एक पहचान तो मिल गयी पर घर की स्थिति बहुत नहीं सुधरी। ये 23 साल से झोपड़ी बनाकर रहती हैं।

"पंचर बनाने में मेहनत बहुत पड़ती है। अब तो नुक्कड़-नुक्कड़ पर दुकान है तभी ज्यादा आमदनी नहीं होती है। पर मैं खुश हूं कमसेकम मेरे बच्चे भूखे तो नहीं सोते।" ये कहते हुए तरन्नुम के चेहरे पर संतोष था। 

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