उलझ गया है कृषि का अर्थशास्त्र, हमें पुरानी नीतियों की ओर लौटना होगा

Update: 2017-09-22 14:52 GMT
किसान नीतियों में बदलाव की जरूरत है।

आदिकाल से ही कृषि हमारे देश की अर्थव्यवथा की रीढ़ की हड्डी रही है। लेकिन आज वही रीढ़ की हड्डी अपने आप को बचाने के लिए बदलाव तलाश रही है। देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने वाली कृषि का अर्थशास्त्र आज अपने आप में उलझा हुआ है। परिणाम स्वरूप किसान आत्महत्या कर रहा है। किसानों की संपन्नता ख़त्म सी हो गई है।

बुजुर्गों के जुबान से खेती कई किस्से-कहानियां सुनी हैं। किसानों ने ही बंजर भूमि को उपजाऊ बनाया, फसल पैदा की, जानवरों को मौसम से बचाया, उम्मीद से ज्यादा उत्पादन किया बावजूद इसके आज किसान नुकसान में है। इसका प्रमुख कारण ये है कि किसान उत्पादन के लिए तो आजाद रहा फसल बेचने और बाजार की आजादी उसे नीं मिली।

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इस नुकसानी की वजह किसानों को बहुत पहले समझ में आ गई थी। इसलिए जब राजाओं और अंग्रेजों का मुख्य कार्य खेती से लाभ कमाना था तब वह लाभ किसानों से 50 से 60 प्रतिशत चुंगी या कर के माध्यम से लेते थे। यही किसानों का सबसे बड़ा आर्थिक शोषण था। इस शोषण को किसानों ने समझ लिया था। इसलिए इतिहास में किसानों ने खेती पर लगने वाले कर, चुंगी के खिलाप लड़ाइयां लड़ीं क्योंकि उनको समझ में आ गया था कि यदि कर बढ़ेगा तो लागत बढ़ेगी, लाभ कम होगा तो किसान आर्थिक रूप से कमजोर होता चला जायेगा और एक दिन किसान ख़त्म या विलुप्त प्राय हो जायेगा। इसलिए तो आजादी के पहले से ही किसान आन्दोलन होते रहे हैं।

क्योंकि राजाओं से लेकर प्रधानमंत्री, सबकी सोच एक जैसी रही है। कोई बदलाव नहीं था। खेती की आय से सरकार की कमाई हो और जनता को सस्ता भोजन मिले, इन कारणों से किसानों का लाभ हमेशा हाशिए पर चढ़ता रहा। जैसे-जैसे हम लोग आधुनिक विकास की ओर बढ़ते गए, कृषि की हालत ख़राब होती गई। पहले हमारे देश में कृषि इसलिए ठीक थी क्योंकि उस समय की नीतियां किसानों के हित में हुआ करती थीं। ग्रामीण ढांचा ही ऐसा था जिस कारण किसानों को लाभ मिलता था। उस समय सामान के बदले सामान ख़रीदा और बेचा जाता था।

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यदि किसी को जूते बनवाने हैं तो अनाज दूध, घी देना पड़ता था। इसी प्रकार खेती में मजदूरी, बीज और घरेलू आवश्यकता की पूर्ति सामान के बदले सामान से करते थे। ऐसे में किसानों को उनकी उपज का मूल्य तय करने का और सामने वाले की वस्तु का भाव तय करने का अवसर मिलता था। इसी के कारण जो गाँव थे वो उद्योग की तरह थे। अधिकतर जीवन यापन की वस्तु का उत्पादन और विपणन गाँव में होता था। उत्पादक और उपभोक्ता के बिच सीधा लेनदेन था। किसानों की बाजार पर सीधी पकड़ थी।

इस मॉडल को अंग्रेजों ने आकर तोड़ दिया, क्योंकि व्यवस्था को अर्थव्यवस्था के नजरिये से देखा गया। अंग्रेज हमारे देश में विकास करने नहीं व्यवसाय करने आए थे। उनको लाभ कमाना था, परन्तु हमारे यहाँ की व्यवस्था में उनका व्यवसाय फल-फुल नहीं सकता था। उन्होंने हमारे ग्रामीण उद्योगों को ख़त्म किया, सीधे बाजार को ख़त्म किया, किसानों से उद्योग के विपरीत फसल उगवाई। फिर उन्हीं फसलों को सस्ते में ख़रीदकर, बाहर भेजा और फिर वही उत्पाद हमें महंगे दामों में भेजे जाते थे। इस तरह से उनको दो लाभ था, एक सस्ता खरीदना और महंगा बेचना, दूसरा उनके लोगों को रोजगार देना।

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इसीलिए हमारे यहाँ उद्योग ख़त्म होने लगे और बेरोजगारी बढ़ती गई। परिणाम स्वरूप नील का अन्दोलान, चम्पारण, खेड़ा जैसे कई किसान आन्दोलन हुए। क्योंकि उस समय लोग अंग्रेजों नीतियों को भांप गए थे। इसी कारण हर जगह आजादी की लड़ाई की शुरुआत किसानों ने की थी। जैसे ही हम आजाद हुए, देश के नेता देश को मजबूत करने की जगह पार्टियों को मजबूत करने में लग गए। जो अभी तक चल रहा है। आज देश के संविधान से बड़ा राजनातिक दलों का संविधान हो गया है। आजादी के बाद भी किसानों ने अपनी मेहनत के बलबूते उत्पादन बढ़ाया लेकिन किसानों के साथ अन्याय ही होता आ रहा है।

सस्ते व्यापार को बढ़ावा देने के लिए सरकारों ने किसानो की उपज का भाव नहीं दिया। खेती धीरे-धीरे घाटे में जाती रही। किसानों ने घाटा कम करने के लिए उत्पादन बढ़ाया और खुद के खर्च को कम करता गया। फिर भी किसान अधिक उत्पादन और कम खर्च की आखिरी सीढ़ी पर खड़ा है। यह सब इसलिए होता गया क्योंकि किसानों का आजादी के बाद राजनीतिक शोषण शुरू हो गया। क्योंकि नेता सरकार बनाने के लिए गरीबों को सस्ता अनाज देना था और दूसरा उद्योगपतियों से आर्थिक मदद के लिए कच्चा माल सस्ते में दिलवाने लगे, नतीजा सबके सामने है।

राजनीतिक पार्टियों का दायरा बढ़ने लगा। नेता गांव से लेकर शहर तक जीतने लगे और अपनी पार्टियों को मजबूत करने लगे। किसानों का मुद्दा दूर होता रहा। जाति और धर्म के नाम राजनीति होने लगी। किसानों के मुद्दे विलुप्त होते गए। लेकिन इन पर राजनीति जरूर होती है। जब पार्टी प्रत्याशी चुनाव जीतते हैं तो उनका पहला धर्म पार्टी का विकास करना होता है।

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पार्टी की गाइड लाइन पर चलना होता है। इसलिए किसान की आवाज सिर्फ चुनाव के पहले उठती है। बाद में ख़त्म हो जाती है। किसानों की वास्तविक आवाज का समाधान आज भी मझधार में अटका पड़ा है। धीरे-धीरे जो हमारे हैं वो पार्टी के नेता होते चले गए, शोषण के खिलाफ चंपारण या खेड़ा जैसे आन्दोलन की सोच भी ख़त्म हो गई। इसलिए आज खेती लाभ के व्यवसाय की जगह डूबता जहाज बन गई है। आज सारी ग्रामीण व्यवस्था और खेती आश्रित हो गई है। गाँव के बाजारों पर कार्पोरेट ने कब्ज़ा कर लिया है। किसान के उत्पदान का व्यापार हो रहा है लेकिन किसान कर्ज में है।

अब देश में बदलाव की जरूरत है। देश की राजनीति और देश की व्यवस्था में अब एक बदलाव चाहिए। हमें पुनः ग्राम आधारित व्यवसाय की तरफ जाना होगा। पुनः सामान के बदले सामान जैसे योजना बनानी होगी। स्वास्थ्य, शिक्षा और ग्रामीण व्यवसाय को सहकारिता के सहारे बढ़ाना होगा। खेती में सहकारिता संभव नहीं है क्योंकि उसमें कई समस्याएं हैं पर हम खेती अलग-अलग कर के भी लागत के संसाधन (खाद बीज मशीन) और प्रोसेसिंग, मार्केटिंग सहकारिता के माध्यम से कर उपभोक्ता तक सीधे पहुंचा जा सकता।

गाँव में रोजगार और अपने उत्पाद की अच्छी कीमत मिल सकती है। पलायन रुक सकता है। किसानों के स्वयं के बाजार खड़े करने होंगे और इन सबके साथ ही साथ किसानों के अपने अधिकार की जगह को राजनीतिक पार्टियों से मुक्त करना होगा, जैसे मंडी, सहकारिता, पंचायती राज्य जैसे किसानों के संस्थानों को किसानों के फायदे के बनाने पड़ेंगे क्योंकि आज यह संस्थान किसानों की जगह राजनीति का अड्डा बन गई हैं।

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किसान की आवाज के साथ राजनीति की जा रही है। ऐसे में इसका सीधा फायदा राजनीतिक पार्टियों को हो रहा है। किसान की ताकत कमजोर हो गई है। किसानों को संगठित होना पड़ेगा, नहीं तो ऐसे ही राजनीतिक दल फायदा उठाते रहेंगे। किसानों को खुद आपनी आवाज उठानी पड़ेगी। उनकी आवाज उठाने वाले कोई नेता नहीं, किसान हो ताकि वे उनके दर्द और तकलीफ को समझ सके। बदलाव की शुरुआत करनी होगी। जब किसान बदलेगा तभी गाँव बदलेगा फिर शहर बदलेगा और एक दिन जैसा हम चाहते हैं वैसा बदलाव देश में आएगा

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