पर्यटन विकास के ख्याल में गाँव कहां?
अपना देश प्राकृतिक और सांस्कृतिक विविधताओं से भरा देश है, प्राचीन सभ्यता के नाते पुरातात्विक महत्व के सैकड़ों पर्यटन स्थलों के विकसित होने की गुंजाइश भी है
सुविज्ञा जैन
लाल किले से इस बार प्रधानमंत्री के भाषण में कई बातें थीं। नई बात यह थी कि सारे नुक़्तों पर लगभग एक सा जोर था। उधर यह सभी मान रहे हैं कि इस समय देश में सबसे ज्यादा जरूरत अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने की है। सो लाल किले के भाषण में भले ही प्रत्यक्ष रूप से अर्थव्यवस्था पर ज्यादा न कहा गया हो लेकिन गौर से देखें तो अर्थव्यवस्था पर भी गौर हुआ है। मसलन यह बात अर्थव्यवस्था के मद्देनजर ही कही गई होगी कि देश के लोग पर्यटन पर ज्यादा निकलें। दरअसल पर्यटन उद्योग भी जीडीपी बढ़ाने में अपनी एक हैसियत रखता है। लोग पर्यटन पर बाहर निकलते हैं तो खर्च करते हैं और उससे तमाम कामधंधे बढ़ते हैं।
बड़ी हैसियत है पर्यटन उद्योग की
पिछले साल तक के आंकड़ों के हिसाब से देश के पर्यटन उद्योग में आठ करोड़ लोग लगे थे। एक मोटा अनुमान है कि जीडीपी में इस उद्योग का योगदान 17 लाख करोड़ रुपए का है। और यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि देश में मंदी के दौर में इस उद्योग पर भी असर पड़ रहा है। इस तरह से देश के लोगों को पर्यटन मे दिलचस्पी लेने की अपील करना अर्थव्यवस्था की बेहतरी के मद्देनज़र एक खास अपील ही माना जाना चाहिए। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि पर्यटन पर ज्यादा खर्च करना लोगों की देशभक्ति ही होगी। अगर इस तरह से बात उठाई गई है सो देर-सबेर सरकार देश में पर्यटन के और ज्यादा विकास की संभावनाएं भी तलाशेगी।
ये भी पढ़ें: कहीं उपभोक्ता बन कर न रह जाएं किसान
पर्यटन की संभावनाओं वाला देश
अपना देश प्राकृतिक और सांस्कृतिक विविधताओं से भरा देश है। प्राचीन सभ्यता के नाते पुरातात्विक महत्व के सैकड़ों पर्यटन स्थलों के विकसित होने की गुंजाइश भी देश में है। हाल फिलहाल भले ही पर्यटन विकास का कोई लक्ष्य सामने न दिख रहा हो लेकिन दस साल बाद का एक सरकारी इरादा जरूर दिखा था। मसलन सन 2028 तक जीडीपी में पर्यटन उद्योग का योगदान 32 लाख करोड़ तक पहुंचाने का इरादा बनाया गया है। अभी इस क्षेत्र का योगदान कोई 17 लाख करोड़ है। सो दस साल में इसे बढ़ाकर दुगना करने का लक्ष्य छोटा ही माना जाना चाहिए। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि दस साल में सिर्फ आठ फीसद विकास की दर से ही यह इरादा खुद व खुद पूरा हो जाएगा। यानी नई परिस्थितियों में फौरन ही पर्यटन विकास का एक बड़ा लक्ष्य भी घोषित किए जाने की दरकार है।
ये भी पढ़ें: किसान अछूते नहीं रहेंगे इस व्यापार युद्ध से...
पर्यटन और अर्थव्यवस्था
माना जाता है कि अर्थव्यवस्था और विदेशी पर्यटकों की आमद के बीच समानुमाती संबंध है। यानी जिस देश में जितने ज्यादा विदेशी पर्यटक आते हैं उसे उतनी ज्यादा विदेशी मुद्रा हासिल होती है। भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में योगदान के लिहाज़ सें पर्यटन उद्योग तीसरे नंबर पर है। पर्यटन को एक तरह से किसी देश के लिए एक प्रकार का निर्यात भी माना जा सकता है। इतना ही नहीं बल्कि ऐसा निर्यात जो अगर एक बार जोर पकड़ ले तो फिर लंबे अंतराल तक वह बढ़ता ही रहता है। थाइलेंड, फ्रांस, इटली, मैक्सिको जैसे देशों की अर्थव्यवस्था में पर्यटन उद्योग की बड़ी भूमिका बन चुकी है। लेकिन हमें गौर करना पड़ेगा कि उनके इस उद्योग में बड़ा हाथ विदेशी पर्यटकों का ही है। लेकिन अपने यहां फिलहाल विदेशी पर्यटकों को लुभाने की बजाए देश के लोगों को ही ज्यादा पर्यटन के लिए प्रेरित किया गया है।
प्रधानमंत्री के भाषण में कहा गया है कि देश के लोग देशभक्ति दिखाएं और वे वर्ष 2022 तक कम से कम 15 बार देसी पर्यटक स्थलों पर देशाटन करने जाएं। बेशक इससे देश की अर्थव्यवस्था को सहारा मिलेगा। यानी मंदी की सरपट आहट में देश में किसी भी तरह की औद्योगिक गतिविधि अर्थव्यवस्था पर आफत को कम ही करेगी। लेकिन जिस मकसद से यह अपील की जा रही है उस लिहाज़ से लगे हाथ विदेशी पर्यटकों को लुभाने की बात भी जोड़ी जानी चाहिए। हो सकता है आने वाले समय में विदेशी पर्यटकों की आमद बढ़ाने के लिए भी सरकार की तरफ से कुछ कदम उठते दिखें।
देसी पर्यटन का मौजूदा रूप
देश में भले ही अलग से भरा पुरा मंत्रालय मौजूद है और पर्यटन से संबंधित सैकड़ों विभाग हैं लेकिन पर्यटन विकास पर अकादमिक शोधकार्यों पर उतना ध्यान दिया जाता नहीं दिखता। फिर भी सामान्य अनुभव यह है कि हमारा पर्यटन उद्योग तीर्थाटन के सहारे ही है। बढ़ती धर्म रुचि के लिए विख्यात अपने देश में तीर्थाटन आज भी औद्योगिक सेवा क्षेत्र का एक बड़ा सहारा माना जाता है। भले ही तीर्थाटन से देश की औपचारिक अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष योगदान दिखाई न देता हो फिर भी देश में बेरोजगारी को और ज्यादा भयावह न बनने देने में तीर्थाटन गतिविधि एक बड़ी भूमिका जरूर निभा रही है।
ये भी पढ़ें:मसला स्वयंसेवी संस्थाओं की क्षमता विकास का
देश में खपत बढ़ाने की चिंता
हम इस समय आबादी के लिहाज से दुनिया के दूसरे नंबर के देश हैं। दुनिया हमें एक बड़े उपभोक्ता के रूप में देखती है। और इसीलिए आज के मुश्किल दौर में हमारी नज़र इस बात पर गई है कि क्यों न हम अपने देश में ही खपत बढ़ा लें और अपने ही उत्पाद को खपाने की गुंजाइश बना लें। लेकिन अभी ये हिसाब लगाना पड़ेगा कि पर्यटन उद्योग के मामले में ऐसा सोचना कारगर हो सकता है या नहीं? वैसे एक शोध परिकल्पना यह जरूर बनाई जा सकती है कि देश में तीर्थाटन के अलावा देशी पर्यटन का क्या कोई और रूप भी हो सकता है जो पर्यटन उद्योग को तेजी से बढ़ा दे।
तीर्थाटन बढ़ाने की कितनी गुंजाइश
आज देश के भीतर तीर्थाटन को अगर यह मान लें कि वह अपने विकास की चरम अवस्था में है तो पर्यटन के दूसरे रूपों पर गौर करना ही पड़ेगा। देश में अभी जितने भी प्राकृतिक और पुरातात्विक पर्यटन गंतव्य हैं वहां विदेशी पर्यटकों की आमद उस रफ्तार से नहीं बढ़ रही है। एक सामान्य पर्यवेक्षण है कि मंदी की मार ने अपने पर्यटन स्थलों पर देसी पर्यटकों की आमद भी घटा दी है।
आउटिंग यानी किसी भी बहाने कुछ दिनों के लिए बाहर घूमने की चाह तो होती है लेकिन खर्च के दबाव में देश के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों की बजाए आमतौर पर लोग प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों पर ही ज्यादा जा रहे हैं। शोधसर्वेक्षणों के जरिए पता किया जाना चाहिए कि सदियों से प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों की बजाए पूजास्थलों या तीर्थस्थलों पर भीड़ बढ़ती जाने का कारण क्या है? कहीं इसके पीछे एक कारण आर्थिक भी तो नहीं है?
पुरातत्व और भूदृश्यों का आकर्षण
अगर यह बात सार्वभौमिक और सार्वकालिक हकीकत है तो अपने यहां पर्यटन विकास के लिए पुरातात्विक महत्व के स्थलों और देश में कई जगह अनुपम भूदृश्यों के विकास पर गौर क्यों नहीं होना चाहिए। कुछ साल पहले जब पर्यटन विकास के लिए अकादमिक विचार विमर्श हो रहे थे तब एक बड़ी काम की बात निकल कर आई थी। वह बात ये बात थी कि कोई विदेशी पर्यटक भारत में सिर्फ शानदार होटल में ठहरने कि लिए भारत नहीं आता।
धनवान देशों में जैसे होटल हैं उनकी तुलना में हमारे होटल पांचवी कार्बन कॉपी जैसे कहे गए थे। तब पुरातत्व स्थलों के पास प्राकृतिक परिवेश को सलीके से पेश करने का सुझाव दिया गया था। लेकिन इस बारे में ज्यादा आगे नहीं बढ़ा जा सका। हो सकता है निवेश की समस्या रही हो। मसलन बुंदेलखंड की प्राचीन विरासत को विश्व पर्यटन के नक्शे पर लाने की बात सोची जरूर गई थी लेकिन आर्थिक कारणों से वह सिरे नहीं चढ़ी। कुछ यह बात भी रही होगी कि बुंदेलखंड की राजनीतिक हैसियत कभी नहीं बन पाई। इसीलिए बुंदेलखंड के खजुराहो, ओरछा, कालिंजर, गढ़कुढ़ार, सोनागिर जैसे पर्यटन स्थलों के चारों तरफ भूदृश्यों का इस्तेमाल बढ़ाया नहीं जा सका।
ये भी पढ़ें: जीडीपी के आंकड़ों को लेकर मीडिया में बड़ी गंभीरता से हो रही हैं बातें
बहरहाल देश में पर्यटन विकास के लिए निवेश बढ़ाने का काम ही है जो किसी भी देश में कभी भी घाटे का नहीं रहा है। मौजूदा मंदी के दौर में जब कैसी भी उत्पादक गतिविघि की गुंजाइश ढ़ूढ़ी जा रही हो तो प्रधानमंत्री के जरिए पर्यटन बढ़ाने की बात ठीक ही है।
इको टूरिज्म के लिए मुफीद है अपना देश
देश के कुछ नगरों में सिटी फॉरेस्ट विकसित किए जा रहे हैं। लेकिन फिलहाल अर्थव्यवस्था की जैसी हालत है उसमें शहरों में वन विकास पर बड़ा निवेश कितना तर्कसंगत है। और वह भी तब जब हमारे पास हर नगर कस्बे के आस पास प्राकृतिक भूदृश्य अभी बचे हुए हैं। एक तरफ इन प्राकृतिक भूदृश्यों को इमारती विकास के भेंट चढ़ाया जाए और दूसरी तरफ नदियों के किनारे खादर की जमीनों पर जंगल उगाकर ईको टूरिज्म बढ़ाने की कोशिश की जाए, ये कुछ विसंगत सा लगता है।
शहरी प्रदूषण कोहनी मार रहा है
कहते है कि शहरी वातावरण में बढती जा रही घुटन लोगों को हर पखवाड़े या महीने बाहर निकलने के लिए जोर मारने लगी है। आजकल ग्रामीण परिवेश में रिसॉर्ट और फार्महाउस में जाकर ठहरने का चलन बढ़ रहा है। लोग शहरी भीड़ भड़क्का और शोर शराबे से दूर कुछ दिन के लिए बाहर जाने लगे हैं। ऐसे में पर्यटन विकास के सरकारी कार्यक्रमों में इन ग्रामीण परिवेश वाले गेस्ट हाउस या फार्म हाउस में निवेश से एक साथ कई मकसद पूरे हो सकते हैं। गांवों में रोजगार पैदा करने का भी यह एक जरिया बन सकता है।
नोट- सुविज्ञा जैन प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं।, ये उनके निजी विचार हैं।
https://www.gaonconnection.com/suvigya-jain
ये भी पढ़ें: विकास की दौड़ में कहां हैं मज़दूर