गांव का एजेंडा: प्रिय पीयूष गोयल जी, आयात-निर्यात की नीतियों में बदलाव से भी बढ़ सकती है किसानों की आय

केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में नई सरकार ने शपथ ले ली है। इसी के साथ शुरू होती है सरकार की परीक्षा कि सरकारी योजनाओं का लाभ और सुविधाएं ग्रामीणों तक पहुंचाना। 'गाँव का एजेंडा' के नाम से अपनी स्पेशल सीरीज में गाँव कनेक्शन, ग्रामीण भारत की उन समस्याओं से मोदी सरकार को अवगत करा रहा है, जिससे दो तिहाई आबादी हर रोज जूझती है।

Update: 2019-06-11 14:00 GMT

प्रिय पीयूष गोयल जी, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री, भारत सरकार

देश के ज्यादातर किसानों को तो शायद आयत-निर्यात के बारे में पता भी नहीं होगा। उन्हें तो बस बाजार में मिल रही कीमतों से मतलब होता है। लेकिन सरकार की गलत नीतियों की वजह से किसानों को हर साल भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। किसानों को तो तुरंत पैसे चाहिए होते हैं इसलिए कीमत बढ़ने का लंबा इंतजार नहीं कर सकते, लेकिन अगर सरकार सही समय पर निर्यात-आयात का फैसला करे तो  किसानों का मुनाफा बढ़ सकता है। ऐसे में आप अगर इन समस्याओं को दूर कर दें तो किसानों की आय खुद ब खुद बढ़ सकती है।

दिसंबर 2017, प्याज सबके आंसू निकाल रहा था। कीमत 80 से 100 रुपए प्रति किलो तक पहुंच जाती है। खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मामलों के मंत्री रामविलास पासवान कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि ये कीमतें कैसे नियंत्रित होंगी। आनन फानन में सरकार ने 2000 टन प्याज आयात करने का फैसला लिया।

फरवरी 2018 के आखिरी सप्ताह में प्याज की कीमतें तेजी से गिरने लगती हैं। कीमतों में 30 फीसदी से ज्यादा की गिरावट आ जाती है। किसानों को फायदा तो हो रहा था लेकिन आम लोगों को राहत देने के लिए प्याज दूसरे देशों से आता है और किसानों को हो रहा मुनाफा रुक जाता है। ऐसा क्यों हुआ, यह समझना भी जरूरी है।

वर्ष 2016-17 में प्याज का निर्यात (एक्सपोर्ट) तीन गुना से भी अधिक बढ़ा, 2015-16 के दौरान देश से सिर्फ 11,14,418 टन प्याज का निर्यात हो पाया था। रिकॉर्डतोड़ एक्सपोर्ट से घरेलू बाजार में प्याज की सप्लाई घट गई थी। इसलिए प्याज की कीमतें आसमान छूने लगी।

गांव कनेक्शन के प्रधान संपादक डॉ एसबी मिश्रा कहते हैं " जब डिमांड बढ़ जाती है तो सप्लाई घट जाती है, तब सरकार शहरी लोगों को राहत देने के लिए अनाज आयात का सहारा लेती है, जैसे अरहर की दाल का आयात हुआ। जिसकी पैदावार ज्यादा होती है उसे बाहर भेजने का फैसला समय पर नहीं हुआ। मतलब अगर सही समय पर फैसले ले लिए जाएं कि निर्यात करना है या आयात करना, तो किसानों को बड़ा लाभ पहुंचाया जा सकता है।"


सरकार की गलत नीतियों से किसानों को कैसे नुकसान हो रहा है इसका एक और उदाहरण देखिए। इस समय तुअर दाल की सरकारी कीमत 5675 रुपए प्रति कुंतल है, लेकिन सरकार की ही वेबसाइट से देश की मंडियों पर नजर डालेंगे तो किसी भी मंडी में 4500 रुपए प्रति कुंतल से ज्यादा कीमत नहीं मिली। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि दूसरे देश से भारत दाल आयात कर रहा है।

यही नहीं तेल का आयात बढ़ने से इस साल तिहलन फसलों का का बुरा हाल रहा। फरवरी महीने के आखिरी दिनों में जिन मंडियों में सरसों की आवक शुरू हुई वहां कीमतें समर्थन मूल्य से कम रहीं। 2019 जनवरी महीने में खाद्य तेलों के आयात में 5.56 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसका सीधा असर किसानों की आय पर पड़ा।

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फरवरी 2019 में मंडियों में सरसों के भाव 3,600-3,800 रुपए प्रति कुंतल रहे। सरकार की वेबसाइट एजी मार्कनेट पर नजर दौड़ाएं तो यह कम कीमत पिछले महीनों से 100-150 कम थी। केंद्र सरकार ने रबी विपणन सीजन 2019-20 के लिए सरसों की एमएसपी 4,200 रुपए प्रति कुंतल तय की है।

राजस्थान, जोधपुर के किसान दिनेश जोशी कहते हैं " पिछले साल मंडी से मुझे एक कुंतल तुअर की एवज में 5000 रुपए मिले थे, लेकिन इस साल यह कीमत और कम हो गई जबकि पैदावार बढ़ी है। इस साल मुझे तो 4700 रुपए मिला, इसमें तो लागत ही बड़ी मुश्किल से निकल पाई।"

आयात नीतियों में खामी

एग्री बिजनेस के जानकार और मोलतोल डॉट इन के सलाहकार संपादक कमल शर्मा कहते हैं " सरकार की आयात-निर्यात नीतियों से किसानों को नुकसान होता है। इसे ऐसे समझिए कि जब हमारे किसी उपज का भाव बढ़ता है तो सरकार उसका आयात करने लगती है।"

कमल शर्मा उदाहरण देते हुए आगे बताते हैं "इस साल का मक्के का उत्पादन कम हुआ है। बिहार में रबी का उत्पादन घटा है। मक्के की कीमत पोल्ट्री और स्टार्च इंडस्ट्री की बढ़ी मांग के कारण बढ़ने लगी तो अचानक सरकार ने की दिया पांच लाख टन मक्का आयात किया जा सकता है। अभी आयात शुरू भी नहीं हुआ है, लाइसेंस ही दिया जा रहा लेकिन मक्के का भाव नीचे आ गया है।"


कमल अपनी बात जारी रखते हुए कहते हैं कि सरकार कहती है कि हम किसानों की आय दोगुना कर देंगे। लेकिन यह कैसे होगा। मक्के की कीमत बढ़ने लगी, किसानों को फायदा होने लगा तो आपने आयात करने का फैसला ले लिया। इस तरह के कदम से तो किसानों को कभी फायदा नहीं होगा, फिर चाहे कमोडिटी की कोई भी फसल हो।

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दालों के साथ भी यही हुआ, पिछले साल ऑस्ट्रेलिया और कनाडा सरकार ने अपने देश के किसानों को दाल न पैदा करने की सलाह दी, क्योंकि भारत में दलहन उत्पादन के अच्छे संकेत मिले। सरकार के आंकड़ों की मानें तो भारत में दुनिया का 25 फीसदी दाल का उत्पादन होता है लेकिन यहां खपत 27 फीसदी सेे ज्यादा है जिस कारण भारी मात्रा में आयात करना पड़ता है। भारत कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, म्यांमार और अफ्रीकन देशों से दाल आयात करता है।

पिछले कुल वर्षों के आंकड़ों को देखें तो दालों का आयात घटा तो है लेकिन अब भी दाम बढ़ने पर आयात हो रहा है। इस साल मानसून अच्छा होने की उम्मीद है तो इससे दालों की पैदावार बढ़ने की उम्मीद भी है। 2018 में भारत ने 5,607 मीट्रिक टन दाल का आयात हुआ।

इंपोर्ट ड्यूटी से बढ़ी परेशानी

कमल शर्मा बताते हैं कि भारत ने दालों के आयात को 55-60 लाख टन तक पहुंचा दिया। इससे हुआ यह है कि ज्यादा उत्पादन होने के कारण भी किसानों को सही कीमत नहीं मिली। लेकिन इस साल सरकार का फैसला है कि वे बस छह लाख टन दाल ही आयात ही करेंगे तो इससे किसानों को थोड़ा फायदा जरूर होगा। ऐसे में जरूरी है कि सरकार को आयात के लिए सही समय का इंतजार करना चाहिए ताकि देश के किसानों को कम से कम एमएसपी तो मिल सके।

वे आगे कहते हैं " सरकार की नीतियां ऐसी होनी चाहिए जिसका फायदा भारतीय किसानों को हो। जब भारत ने तुअर दाल आयात किया तो मोंजाबिक, म्यांमार, कनाडा और इथोपिया के किसानों को फायदा हुआ। चने के आयात से ऑस्ट्रेलिया के किसानों को फायदा हुआ, लेकिन भारत के किसानों को नुकसान हुआ। आयात होने से दाम में गिरावाट आ गई। आज भारत अपने खाद्य तेलों की आपूर्ति आयात करेके कर रहा जबकि एक समय ऐसा भी था जब हमारे खाने भर का तेल देश में ही हो जाता था। इंपोर्ट ड्यूटी घटाकर सरकार किसानों का भारी नुकसान कर रही है।"

बाहर से आने वाले उत्पादों पर सरकार जो टैक्स लगाती है उसे इंपोर्ट ड्यूटी कहते हैं। सरकार इंपोर्ट ड्यूटी घटाती है तो इसका सीधा मतलब यह होता है सरकार उस देश को आयात में सहूलियतें दे रही है।

उत्पादन के साथ-साथ आयात भी बढ़ा

भारत सरकार की वेबसाइट एग्री एक्सचेंज के आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2018 से फरवरी 2019 तक भारत ने 24,552.15 करोड़ रुपए का 39,51,337.79 मीट्रिक टन खाद्य पदार्थ दूसरे देशों से आयात किया। इसमें सबसे ज्यादा दाल (5307.36 करोड़ रुपए का) आयात हुआ है। अमेरिका, अफगानिस्तान, युके, कनाडा, नीदरलैंड, सींगापुर, चीन, मोजांबिक, पाकिस्तान और इंडोनेशिया भारत के लिए सबसे बड़े निर्यातक देश हैं।


एक तरफ हमारा उत्पादन साल दर साल बढ़ता जा रहा है तो दूसरी ओर दूसरे देशों पर निर्भरता भी बढ़ी है। साल दर साल बढ़े आयात के आंकड़ें इसकी गवाही दे रहे हैं। 

2008-09 में भारत ने 33,33,096.45 मीट्रिक टन, 2009-10 में 51,38,790.34 मीट्रिक टन, 2010-11 में 41,80,009.90 मीट्रिक टन, 2011-12 में 46,62,205.27 मीट्रिक टन, 2010-13 में 51,87,811.04 मीट्रिक टन, 2013-14 में 48,81,726.86 मीट्रिक टन, 2014-15 में 60,95,141.53 मीट्रिक टन, 2015-16 में 81,84,332.79 मीट्रिक टन, 2016-17 में 1,45,89,695.55 मीट्रिक टन और 2017-18 में 94,75,461.84 मीट्रिक टन खाद्य उत्पादों का आयात किया।

पिछले साल में मानसून अच्छा रहा और कृषि उत्पादों के समर्थन मूल्य में वृद्धि से किसान अधिक खेती के लिए प्रोत्साहित हुए। कूषि मंत्रालय द्वारा जारी किए गए तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार देश ने फसल वर्ष 2017-18 जुलाई-जून के दौरान चावल, गेहूं, मोटे अनाज, और दालें चारों खाद्यान्नों का रिकार्ड उत्पादन हासिल किया। एक सरकारी बयान में कहा गया, वर्ष 2016-17 के दौरान के 27 करोड़ 51.1 लाख टन के अनाज के पिछले रिकार्ड उत्पादन की तुलना में इस बार उत्पादन 44 लाख टन बढ़कर कुल 27 करोड़ 95.1 लाख टन पहुंचने का अनुमान व्यक्त किया गया। वहीं 2018-19 के लिए 28.52 करोड़ टन अनाज उत्पादन का रखा लक्ष्य है।


इन आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलेगा कि कैसे ज्यादा उत्पादन तो हो रहा है लेकिन उसका लाभ किसानों को मिल ही नहीं रहा। सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीईए) के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर डॉ. बी. वी मेहता कहते हैं " 1992-93 में हम बस 3 से 4 फीसदी ही खाने का सामना आयात करते थे, बाकि का हम कुछ पैदा करते थे। इंपोर्ट ड्यूटी घटाने से स्थिति बिगड़ी। बात अगर मैं बस तिलहन की करूं तो किसानों को सही कीमत नहीं मिली जिस कारण किसान दूसरे क्षेत्रों की ओर जाने लगे।"

फिक्स हो आयात-निर्यात की नीतियां

आयात-निर्यात की नीति कैसे होनी चाहिए, इस पर कृषि अर्थशास्त्री भगवान सिंह मीणा " सरकार को चाहिए कि वे सबसे पहले जो भी नीति बनायें उसे 4-5 वर्षों के लिए फिक्स कर देनी चाहिए। हमारी नीतियां इतनी गड़बड़ है कि जब हमें निर्यात करना चाहिए तो करते नहीं, गलत समय पर आयात करके किसानों को नुकसान पहुंचाते हैं। नीति तय होने से यह फायदा होगा कि हम इस दौरान किसानों को बता सकेंगे कि यह उत्पाद आयात नहीं होगा, यह उत्पाद निर्यात नहीं होगा, इसी अनुसार वे खेती करेंगे।"

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वे आगे कहते हैं " सरकार की जो नीतियों हैं उससे पिछले पांच सालों में किसानों को एक दम बर्बाद कर दिया है। 2013 में दालों की कीमत समर्थन मूल्य से काफी ऊपर थी। अगर मूंग की बात करें तो उस समय उसकी कीमत 6 से 7000 रुपए प्रति कुंतल थी जो कि आज बड़ी मुश्किल से 5000 रुपए तक बिक पा रही है। जबकि फसलों की लागत में काफी बढ़ोतरी हुई है। इससे सरकार को भी नुकसान है। आय कम होने से किसानों को नुकसान हो रहा है, ऐसे में आपको आयात पर ही निर्भर रहना पड़ेगा।"

एक समय था जब तेलों पर पूरी तरह से आत्मनिर्भर थे। लेकिन 90 के दशक में सरकार ने जो नीतियां बदली उससे आज हम सबसे बड़े खाद्य आयातक देशों में से एक हैं। 2014 में सरकार ने अफ्रीकन देशों से दाल आयात करने का फैसला लिया, उससे दलहनी किसानों को लगातार नुकसान हो रहा है। उसी तरह सरकार ने अभी कॉटन निर्यात पर रोक लगा है, इसका खामियाजा भी किसानों को भुगतना पड़ रहा है।"

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