लोगों की मदद करने की भावना और गलत व्यवस्था का विरोध करने की आदत राजनीति में ले आयी : ब्रजेश पाठक

Update: 2017-09-20 16:57 GMT
ब्रजेश पाठक।

लखनऊ। आज आपको उत्तर प्रदेश के एक ऐसे नेता से मिलाते है जिनकी पहचान उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण नेता के रूप में आज भी बरकरार है। कभी सोशल इंजीनियरिंग का ब्रांड रही यह शख्सियत की लोकप्रियता का आलम यह है हरदोई, उन्नाव ,लखनऊ सहित उत्तर प्रदेश कोई भी सामान्य व्यक्ति पूरे अधिकार के साथ इस शख्सियत के आवास पर अपनी समस्याएं लेकर पहुंच जाते है।

हम बात कर रहे है उत्तर प्रदेश के विधि एवं न्याय ,राजनैतिक पेंशन एवम वैकल्पिक ऊर्जा मंत्री ब्रजेश पाठक के विषय में वर्ष 1987 में लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनैतिक सफ़र की शुरुआत के बाद ब्रजेश पाठक को कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। 1987 में विश्वविद्यालय में लॉ प्रतिनिधि चुने जाने के बाद 1989 में लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र युवा संघर्ष समिति के उपाध्यक्ष रहे ब्रजेश पाठक अपने मिलनसार स्वभाव और निडर अंदाज के चलते लोकप्रिय रहे। वर्ष 1990 में लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र यूनियन के अध्यक्ष चुने गए।

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पता नहीं था जहाँ पढ़ाई की उसी विधान सभा में एक दिन चुनाव लड़ूंगा

पुराने दिनों को याद करते हुए ब्रजेश पाठक ने बताया कि विद्यांत हिन्दू डिग्री कॉलेज से बी. कॉम प्रथम वर्ष किया उस समय कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन इसी लखनऊ मध्य से विधायक निर्वाचित हो जाऊंगा।

तीन भाइयों में सबसे छोटे हैं ब्रजेश

साक्षात्कार के दौरान अपने अतीत के यादों का सफर करते हुए ब्रजेश पाठक ने बताया कि वह हरदोइ के मल्लवा गॉव के निवासी है। पिता स्व. सुरेश पाठक व माताजी कमला पाठक के परिवार में तीन बेटे राजेश पाठक ,दिनेश पाठक एवं चार बहनें हैं। भाइयो में ब्रजेश पाठक सबसे छोटे हैं। पाठक ने बताया कि उनकी प्राथमिक शिक्षा गाँव के ही प्राथमिक विद्यालय में पूरी हुई। जिसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वह उन्नाव स्थित अपने चाचा के घर चले आये और उन्नाव के सुभाष इन्टरमीडिएट कॉलेज बांगरमऊ से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की।

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छात्र जीवन मे 50 रुपये मासिक खर्च पर किया गुजारा, सामान्य व्यक्ति की हर समस्या को बखूबी समझते है ब्रजेश

ब्रजेश ने बताया कि पहले के समय में और आज के समय में बहुत अंतर है लोग पहले की अपेक्षा अधिक सविधाओं का उपभोग कर रहे हैं। अब तो सुविधाएं गाँव तक पहुंच रही हैं। लोगों की जीवन शैली में आजादी के बाद से अब तक काफी सुधार हुआ है। एक समय वो भी था जब लोगों के दो जोड़ी कपड़े ,जूते ,चप्पल हो तो मध्यम वर्ग में उसकी अहमियत रहती थी। स्नातक करने के दौरान राजेन्द्र नगर में किराए पर कमरा लेकर रहते थे।

घर से 50 रूपए मासिक खर्च में गुजरा हो जाता था। 30 पैसे के 100 ग्राम का दूध का पैकेट दो दिन चाय के काम आ जाता था। घर जाता तो माताजी पूड़ी बना कर देती थीं दो दिन तक तो पूड़ी से ही काम चल जाता था। खाना मिट्टी के तेल के स्टोव पर ही बनाते थे कभी मिट्टी का तेल खत्म हुआ तो किराए के घर के सामने एक पान की दूकान थी। उनकी पत्नी कोयले की अंगीठी से खाना पकाती थीं तो उनकी अंगीठी की बची हुई आग से रोटी या पराठा बना लेते थे और समोसे वाले आलू को सब्जी की तरह प्रयोग कर लेते थे।

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ब्रजेश अपने पुराने दिनों के साथियों को याद करते हुए कहते है कि उन दिनों छात्रों की सोच काफी सामाजिक हुआ करती थी। संघर्ष करने की गजब ताकत और जज्बा दोनों था साथ ही नौकरी प्रथम प्राथमिकता नहीं थी समय बदल चुका है। विकास के इस दौर में जरूरतों और सुख सुविधाओं को हासिल करने की प्रतिस्पर्धा में लोगों की सोच का दायरा सीमित होता जा रहा है। आज छात्रों पर पढ़ाई और कैरियर को लेकर दबाब पहले की अपेक्षा ज्यादा है।

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