इस पैडवुमेन की कहानी पढ़िए, अमेरिका से लौटकर गाँव की महिलाओं को कर रहीं जागरूक

Update: 2019-05-28 06:18 GMT
माया विश्वकर्मा 

"जब मुझे पहली बार पीरियड्स हुए तब मेरी मामी जी ने मुझे बताया कि इस दौरान कपड़े का इस्तेमाल करना है। मैंने उनकी बात को मान लिया और कपड़े का इस्तेमाल करने लगी लेकिन इससे मुझे कई बार इनफेक्शन हुए। ज़िंदगी के न जाने कितने साल मैंने कपड़े का इस्तेमाल करते हुए। जब मैं दिल्ली एम्स में न्यूक्लियर मेडिसिन पर रिसर्च कर रही थी तब मुझे पता चला कि इन इनफेक्शन की वजह कपड़े का इस्तेमाल करना था। जब मैं 26 साल की तब मैंने पहली बार पीरियड्स में सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल किया।'' ये कहना है माया विश्वकर्मा का।

'पैडमैन' मूवी की चर्चा इस समय लगभग पूरे देश में हो रही है। पैडमैन के नाम से मशहूर अरुणाचलम मुरुगनाथम को भी अब हर कोई जानता है लेकिन एक ऐसी महिला भी हैं जिन्हें लोग 'पैडवुमेन' और 'पैडजीजी' के नाम से जानते हैं। माया विश्वकर्मा ही वो पैडवुमेन हैं, जो अमेरिका से लौटकर अब मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर ज़िले में गाँव की महिलाओं को माहवारी स्वच्छता के बारे में जागरूक कर रही हैं।

माया ने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, सैन फ्रांसिस्को में ब्लड कैंसर पर शोध कार्य किया है। जब वह भारत लौटीं तो उन्होंने आम आदमी पार्टी ज्वाइन कर ली और नरसिंहपुर पहुंचकर काम करना शुरू किया। उन्होंने बधवार -स्वराज मुमकिन है किताब लिखी। दो साल पहले जब वह गाँव की महिलाओं से मिलीं तब उन्हें ये अहसास हुआ कि ग्रामीण महिलाएं उसी परेशानी से गुज़र रही हैं जिससे कभी वो गुज़री थीं। माया ने इसके बारे में पूरी रिसर्च की करना शुरू कर दिया। अब वह पूरी तरह से इसी काम जुट हुई हैं।

लाल सूट में माया विश्वकर्मा

नरसिंहपुर ज़िले के मेहरागाँव की रहने वाली माया विश्वकर्मा (36 वर्ष) अपने इलाके की आदिवासी महिलाओं को सिखा रही हैं कि माहवारी के दौरान स्वच्छता बरतना कितना ज़रूरी है। इसके साथ ही वे अपनी संस्था सुकर्मा फाउंडेशन के अन्तर्गत ऐसे सैनिटरी नैपकिन भी बना रही हैं जिनकी कीमत काफी कम है।

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वह बताती हैं कि मैंने इतने साल तक माहवारी में कपड़े का इस्तेमाल किया और मुझे अच्छे से पता है कि इसका हमारी सेहत पर कितना बुरा असर पड़ता है। इसीलिए मैंने इस मुहिम की शुरुआत की ताकि मैं गाँव की महिलाओं को पीरियड्स के बारे में समझा सकूं, इससे जुड़ी भ्रांतियों को उनके मन से निकाल सकूं और इसे लेकर उनके अंदर जो झिझक है उसे दूर सकूं।

माया बताती हैं कि दो साल पहले जब वो अमेरिका से वापस लौटकर भारत आई थीं तब वो पैडमैन के नाम से मशहूर अरुणाचलम से भी मिली थीं लेकिन अरुणाचलम जिस मशीन का इस्तेमाल पैड बनाने के लिए करते हैं उसमें मशीन के साथ हाथों से भी काफी काम करना पड़ता है इसलिए मैंने उनकी तरह मशीन नहीं ली। मुझे ऐसी मशीन की ज़रूरत थी जिसमें हाथ का काम कम हो।

पैडमैन अरुणाचलम मुरुगनाथम के साथ माया विश्वकर्मा 

इसके बाद माया ने एक घर में ही सैनिटरी नैपकिन बनाने का काम शुरू कर दिया। इस घर में महिलाएं ही पैड बनाती हैं। यहां रोज़ लगभग 1000 पैड बनाए जाते हैं। ये महिलाएं दो तरह के पैड बनाती हैं, एक लकड़ी का पल्प और रुई का इस्तेमाल करके और दूसरे पॉलीमर शीट से।लेकिन माया अपने काम को विस्तार देना चाहती थीं। वह चाहती थीं कि सिर्फ उनके गाँव के आस - पास ही नहीं दूर - दराज़ की ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं और लड़कियों को भी इसका फायदा मिल सके।

इसके लिए भारत के साथ - साथ दूसरे देश के कुछ लोगों ने भी माया की मदद की। अब जल्द ही माया की सैनिटरी नैपकिन बनाने वाली फैक्ट्री का उद्घाटन होने वाला है। वह कहती हैं कि ब्रांडेड सैनिटरी नैपकिन के मुकाबले हम जो पैड बनाते हैं, वे काफी सस्ते हैं। हमारे बनाए हुए सात पैड्स की कीमत सिर्फ 15 से 20 रुपये होती है जबकि दूसरे ब्रांड्स के पैड की कीमत काफी ज़्यादा होती है। अगले सप्ताह से, माया मध्य प्रदेश के आदिवासी जिलों में यात्रा करेंगे। वह कहती हैं, ''हमारा लक्ष्य 21 जिलों के 450 से अधिक स्कूलों में लड़कियों तक पहुंचने और पूरे माहौल को सार्वजनिक आंदोलन बनाकर उन्हें सुरक्षित माहवारी के महत्व के बारे में शिक्षित करना है।''

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जब माया से पूछा गया कि क्या 'पैडमैन' फिल्म के बाद लोगों की सोच इस बारे में बदलेगी? वो कहती हैं, ''हालांकि ये फिल्म युवाओं को ज़रूर जागरूक करेगी और हो सकता है कि कई लोगों के मन से माहवारी को लेकर भ्रांतियां भी दूर हों लेकिन जिन गाँवों में मैं काम करती हूं वहां लोगों के पास फिल्म देखनी की कोई सुविधा नहीं है। ऐसे इलाकों के लिए हमें फिल्म नहीं ज़मीन पर उतरकर काम करने वाले लोगों की ज़रूरत है।''

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क्या कहते हैं आंकड़े

हाल ही में जारी किए गए नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे- 4 की रिपोर्ट के मुताबिक, 15 से 24 साल की उम्र की लड़कियों में 42 फ़ीसदी महिलाएं सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं। पीरियड्स के दौरान 62 फ़ीसदी महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल करती हैं। तकरीबन 16 फ़ीसदी महिलाएं लोकल स्तर पर बनाए गए पैड का इस्तेमाल करती हैं। माया ख़ुद भी देश की उन 62 फ़ीसदी महिलाओं में शामिल हैं। गाँव की 48 फीसदी महिलाएं ही माहवारी के दौरान सुरक्षित तरीका इस्तेमाल करती हैं जबकि शहरों में ये आंकड़ा 78 फीसदी है। मध्य प्रदेश में 15 से 24 आयु वर्ग की महिलाओं में 78 फीसदी कपड़े का इस्तेमाल करती हैं, जबकि 24 फीसदी सैनिटरी नैपकिन का उपयोग करते हैं 15 फीसदी स्थानीय रूप से तैयार नैपकिन का उपयोग करते हैं और 3 फीसदी टैम्पोन का इस्तेमाल करते हैं।

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