ज़रूरत 20,250 की, लेकिन हैं सिर्फ 898 मनोचिकित्सक

Update: 2018-02-11 11:32 GMT
प्रतीकात्मक तस्वीर

देश में तेजी से मानसिक बीमारियां बढ़ती जा रही हैं लेकिन उनका इलाज करने वाले मानसिक चिकित्सकों की संख्या बहुत कम है। देश में लगभग हर एक व्यक्ति को कोई न कोई मानसिक बीमारी है लेकिन जब चिकित्सक की इतनी कमी है तो इसका इलाज कैसे होगा।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने हाल ही में लोकसभा को बताया कि देश में 20,250 मनोचिकित्सकों की आवश्यकता है लेकिन इनकी संख्या महज 898 है। इसके साथ ही 37,000 मनोचिकित्सा सामाजिक कार्यकर्ताओं की जरूरत की तुलना में 900 से भी कम मनोचिकित्सक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान संस्थान (एनसीआरबी) द्वारा आंकड़ों से पता चला कि एक साल में भारत में पैरालिसिस और मानसिक रोगों से प्रभावित 8409 लोगों ने आत्महत्या की। सबसे ज्यादा आत्महत्याएं महाराष्ट्र में (1412) हुईं। देश में वर्ष 2001 से 2015 के बीच के 15 सालों में कुल 126166 लोगों ने मानसिक-स्नायु रोगों से पीड़ित होकर आत्महत्या की। पश्चिम बंगाल में 13932, मध्यप्रदेश में 7029, उत्तर प्रदेश में 2210, तमिलनाडु में 8437, महाराष्ट्र में 19601, कर्नाटक में 9554 आत्महत्याएं इस कारण हुईं।

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अनुप्रिया पटेल ने सदन को सूचित किया कि जनवरी 2015 तक देश में 13,500 मनोचिकित्सकों की आवश्यकता थी, लेकिन इनकी संख्या महज 3,827 थी। भारत में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी पर पूछे गये सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि वर्तमान में 3,000 मनोचिकित्सा नर्सेां की आवश्यकता है लेकिन इनकी संख्या सिर्फ 1,500 है।

किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी के कुलपति एमएलबी भट्ट ने बताया, “देश में मानसिक चिकित्सकों की कमी का एक मुख्य कारण यह है कि अभी तक मानिसक विभाग को मेडिकल कॉलेज में महत्वपूर्ण की श्रेणी में नहीं रखा गया है, जिस दिन यह हो जायेगा सभी मेडिकल कॉलेज में मानसिक चिकित्सकों की सीटों में बढ़ोत्तरी हो जाएगी। मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया (एमसीआई) ने मानसिक स्वास्थ्य को महतवपूर्ण किये जाने की मांग की है।”

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वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देशभर में 7.22 लाख से अधिक लोग मानसिक बीमारी से ग्रसित थे जबकि 15 लाख से अधिक लोगों में बौद्धिक अक्षमता थी। देश में सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में 76,603 लोग किसी न किसी प्रकार के मनोरोग से ग्रसित हैं, इसके बाद पश्चिम बंगाल में 71,515, केरल में 66,915 और महाराष्ट्र में 58,753 लोग मानसिक बीमारी से ग्रसित हैं। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के मुताबिक भारत में लगभग 7 करोड़ लोग मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं।

मनोचिकित्सकों की कमीं पर ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस (एम्स) दिल्ली के वृद्ध मानसिक स्वस्थ्य विशेषज्ञ और रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन (आरडीए) के अध्यक्ष डॉ हरीजित सिंह भाटी ने बताया, “जिस प्रकार देश में मानसिक स्वास्थ्य बढ़ रहा है उस हिसाब से डॉक्टर की संख्या बहुत कम है। आज कल देखा जा रहा है कि हर एक व्यक्ति किसी न किसी रूप से मानसिक स्वास्थ्य से परेशान है तो उसे एक सलाहकार की जरुरत बहुत ज्यादा होती है। मानसिक चिकित्सकों की संख्या में बढ़ोत्तरी बहुत ज्यादा जरूरी है।”

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उन्होंने आगे बताया, “छात्र मानसिक चिकित्सा पढ़ना चाहते हैं लेकिन सीटें बहुत कम होती है इसलिए सबसे पहले मनोचिकित्सक की सीटों को बढ़ाया जाना बहुत ज्यादा आवश्यक है। एक मनोचिकित्साक के लिए नौकरी बहुत ज्यादा आवश्यक होती है लेकिन वो भी उन्हें नहीं मिल पाती है क्योंकि सरकारी मनोचिकित्सक की सीटें भी बहुत कम होती हैं। अब न पढ़ने के लिए ज्यादा सीटें और न ही नौकरी की ज्यादा सीटें तो मनोचिकित्सकों की कमीं तो रहेगी। सरकारी नौकरी न मिल पाने के कारण एक मनोचिकित्सक अपना प्राइवेट का क्लीनिक खोल देता है जहां पर वह मनोचिकित्सक नहीं बल्कि एक फिजीशियन बन कर ही रह जाता है।”

राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय के वरिष्ठ मानसिक रोग विशेषज्ञ डॉक्टर देवाशीष शुक्ला बताते हैं, “बेजा महत्वाकांक्षा डिप्रेशन का कारण बन रही है। बदलती लाइफ स्टाइल और प्रतिस्पर्धा के दौर में हर कोई मानसिक दबाव में है। बच्चों से लेकर अधेड़, बुजुर्ग तक इसके शिकार हो रहे हैं। शुरुआत में जब मरीज आता है तो हमें सिर दर्द बताता है। वो कहता है कि काफी दिनों से सिर में दर्द हो रहा है, लेकिन जब उसकी जांच करते हैं तो पता चलता है कि वह डिप्रेशन का मरीज है।”

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डॉक्टर देवाशीष शुक्ला बताते हैं “डिप्रेशन को समझने के लिए सबसे पहले हमें इसके लक्षणों को समझना होगा। इसके लक्षणों में से एक है जो डिप्रेशन से पीड़ित होता है वह अकेले रहना शुरू कर देता है, उसका गुस्सा रोजाना बढ़ता रहता है और उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है। उसके सोने और उठने में काफी अंतर आ जाता है। वह अपने आप को अकेले रखना चाहता है।”

डॉक्टर शुक्ला आगे बताते हैं, “वो दूसरों से कट कर अपना ज्यादा से ज्यादा समय मोबाइल और टेलीविजन में बिताता है। डिप्रेशन काफी खतरनाक बीमारी है इसलिए डिप्रेशन से पीड़ित परिवार को थोड़ा सावधान रहना बहुत ही आवश्यक है, परिवार को भी इसके लक्षणों के बारे में ज्ञान होना जरूरी है।”

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