उत्तर प्रदेश : निजी अस्पतालों के खर्चों और लापरवाही पर स्वास्थ्य विभाग का अंकुश नहीं

Update: 2017-12-09 20:04 GMT
मैक्स अस्पताल 

लखनऊ। ज़िंदगियों से खिलवाड़ करने वाले बड़े निजी अस्पतालों का हालिया नमूना दिल्ली का मैक्स अस्पताल बना, जहां जिंदा बच्चे को मृत घोषित कर दिया गया। इस पर दिल्ली सरकार ने बड़ी कार्रवाई करते हुए मैक्स अस्पताल कर लाइसेंस रद्द कर दिया। लेकिन इससे निजी अस्पतालों की मनमानी देखी जा सकती है।

देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के बुरे हाल का ही नतीजा है कि प्राइवेट अस्पतालों की डकैती जारी है, दुखद यह भी कि राज्य का प्रशासन इनकी कार्यशैली पर अंकुश भी नहीं लगा सकता, जब तक दोष सबित न हो जाए।

जिंदा बच्चे को मृत बताने वाले दिल्ली के मैक्स अस्पताल का दिल्ली सरकार ने लाइसेंस रद्द कर दिया है। लेकिन अभी भी कई ऐसे प्राइवेट अस्पताल चल रहे हैं जो बेझिझक अपने हिसाब से लोगों से पैसे की मांग करते हैं और स्वास्थ्य विभाग का उन पर कोई भी अंकुश नहीं है।

ये भी पढ़ें- डॉक्टरों ने बयां की अपनी परेशानी, कहा- एक डॉक्टर को करना पड़ता है चार के बराबर काम

यूपी के चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव प्रशांत त्रिवेदी ने बताया, ''प्राइवेट अस्पताल की फीस निर्धारण का अधिकार स्वास्थ्य विभाग को नहीं है। ये प्राइवेट मार्केट है, जो अस्पताल अपने हिसाब से चलाते हैं," उन्होंने आगे बताया, "अस्पताल में जब लापरवाही की बात आती है तो एक बड़ी जांच के बाद दोष साबित होने पर रजिस्ट्रेशन रद्द किया जाता है। अस्पताल फीस ज्यादा ले रहे हैं या इलाज में लापरवाही में कर रहे हैं, इस पर कोई सीधा नियंत्रण नहीं है।"

इसी निरंकुशता के चलते निजी अस्पताल मनमानी पर उतारू रहते हैं। "हमारा प्राथमिक उद्देश्य सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर बनाना है, अगर वहां कभी ऐसे केस पाए जाते हैं कि इलाज में लापरवाही की गई या पैसा ज्यादा लिया गया तो हम सीधे कार्रवाई कर सकते हैं। प्राइवेट अस्पताल में व्यक्ति अपनी मर्जी से जाता है, और इलाज करवाता है," प्रशांत त्रिवेदी ने बताया।

अगर किसी निजी अस्पताल के खिलाफ ऐसी कोई शिकायत आती है तो मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया कार्रवाई कर सकता है।

ये भी पढ़ें- ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाएं बीमार, झोलाछापों के भरोसे मरीज

उत्तर प्रदेश के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग के महानिदेशक डॉ. पद्माकर सिंह कहते हैं, "प्राइवेट अस्पतालों पर कार्रवाई के लिए विभाग को अभी कोई भी ऐसा अधिकार नहीं मिला है। कोई व्यक्ति प्राइवेट अस्पताल में इलाज करवाने जाता है, उसके साथ कुछ भी हो जाता है, तब भी हम कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। हम उन पर तभी कार्रवाई कर सकते हैं जब कोई कानून आएगा।''

इस तरह के कृत्य में शामिल डॉक्टरों पर कार्रवाई इंडियन मेडिकल एसोसिएशन कर सकता है। इस बारे में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ केके अग्रवाल ने बताया, "कोई भी अस्पताल बिना डॉक्टर के नहीं चल सकता है और सभी डॉक्टर को अंकुश में रखा गया है। हर एक राज्य में नर्सिंग होम एक्ट होता है, उस एक्ट में डॉक्टर का रजिस्ट्रेशन होता है। कोई डॉक्टर गलत करता है तो उस पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन कार्रवाई कर सकता है।"

ये भी पढ़ें- ‘जिस बीमारी से मेरे मां-पापा की मौत हुई, मैं उसी बीमारी के साथ 28 वर्षों से जी रहा हूं’

एक रिपोर्ट के अनुसार लोग प्राइवेट अस्पतालों के लिए 64,628 करोड़ रुपये खर्च करते हैं जबकि सरकारी अस्पतालों पर 8,193 करोड़ रुपये ही खर्च किये जाते हैं। इसके अलावा 18,149 करोड़ रुपये रोगी परिवहन सेवाओं पर खर्च करते हैं

सरकारी वित्त पोषण सहित सभी राजस्व स्रोतों को ध्यान में रखते हुए, निजी अस्पतालों पर खर्च 88,552 करोड़ रूपये और सरकारी अस्पतालों पर 41,797 करोड़ रूपये था।

बजट बढ़ा लेकिन हालत बदतर

वर्ष 2016 में देश के स्वास्थ्य बजट के मुकाबले बजट में 27 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गई है, फिर भी स्वास्थ्य सेवाएं विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुरूप नहीं आ रही हैं। वर्ष 2016 में देश का बजट 37061.55 करोड़ रुपए था जो कि बढ़कर वर्ष 2017 में 47352.51 करोड़ रुपए कर दिया गया था। वर्ष 2017 के स्वास्थ्य बजट में मानव संसाधन और चिकित्सा शिक्षा के लिए 3425 करोड़ रुपए, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए 2903.73 करोड़ रुपए, जो कि पिछले वर्ष एक मुकाबले 705 करोड़ रुपए ज्यादा है, प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के लिए 1525 करोड़ और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के लिए 357 करोड़ रुपए दिए गए।

ये भी पढ़ें- कैंसर से जान बचाई जा सकती है, बशर्ते आप को इसकी सही स्टेज पर जानकारी हो, जानिए कैसे

निजी अस्पतालों का 80 प्रतिशत बाज़ार पर कब्जा

डॉक्टर अरुण गदरे और डॉक्टर अभय शुक्ला ने अपनी किताब ‘डिसेंटिंग डायग्नोसिस’ में निजी अस्पतालों के भ्रष्टाचार का जिक्र किया है। इस किताब की एक समीक्षा इंडिया मेडिकलटाइम्स पर प्रकाशित है। समीक्षा के अनुसार भारत में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं खराब इसलिए भी है क्योंकि यहाँ निजी अस्पतालों का 80 प्रतिशत बाज़ार पर कब्जा है। ऐसे में डॉक्टर लापरवाही कर रहे हैं। इसी किताब में एक दिए एक कोट में मुंबई के डॉ विजय अजगोनकर कहते हैं कि हम बिल्डर नहीं बल्कि डॉक्टर हैं, और अगर हम व्यवसायी बन जाएंगे तो हमारे प्रति लोगों का व्यवार बदल जाएगा।

डब्ल्यूएचओ ने कहा, योग्य नहीं हैं आधे से ज्यादा भारतीय डॉक्टर्

2016 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारतीय डॉक्टरों को लेकर एक रिपोर्ट से बड़ा खुलासा किया था। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के 57 फीसदी एलोपैथिक डॉक्टरों के पास मेडिकल क्वालिफिकेशन नहीं है। तो वहीं रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि एक तिहाई डॉक्टर ऐसे हैं जो केवल सेकेंडरी स्कूल तक ही शिक्षित हैं और दूसरों का इलाज कर रहे हैं। रिपोर्ट 2001 के तथ्यों पर आधारित है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 18.8 फीसदी स्वास्थ्य कर्मी ही मेडिकल योग्यता रखते हैं। औसतन एक लाख की आबादी में 80 डॉक्टर हैं जिनमें 36 डॉक्टर ऐसे हैं जिनके पास एलोपैथिक, होम्योपेथिक, आयुर्वेदिक और यूनानी से संबंधित कोई भी मेडिकल सर्टिफिकेट नहीं है।

ये भी पढ़ें- जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों से होती हैं भारत में 61% मौतें

Similar News