मौलाना हसरत मोहानी: ‘रूमानियत’ से ‘इंक़लाब’ तक का सफ़र

Update: 2018-01-01 11:16 GMT
मौलाना हसरत मोहानी

लखनऊ। 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' का नारा देने वाले मौलाना हसरत मोहानी, आज़ादी के दीवानों में जिनका नाम बड़े सम्मान और फख़्र के साथ लिया जाता है की आज जन्मदिन है। 1 जनवरी 1875 को उन्नाव के मोहान गाँव में जन्मे हसरत मोहानी एक बेजोड़ शायर और देश की आज़ादी के सच्चे सिपाही थे। 13 मई 1951 में कानपुर में हसरत मोहानी ने दुनिया को अलविदा कहा था। मशहूर शायर सैय्यद फज़्लुलहसन हसरत मोहानी को पढ़ाई का शौक बचपन से ही था, यही कारण था कि उन्होंने राज्य स्तरीय परीक्षा में टॉप किया था।

शायरों में अव्वल

शायरी का शौक रखने वाले मोहानी ने उस्ताद तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी से शायरी कहना सीखा था। ऐसा कहते हैं कि उर्दू की शायरी में हसरत से पहले औरतों को वो मकाम हासिल नहीं था। आज की शायरी में औरत को जो साहयात्री और मित्र के रूप में देखा जाता है वह कहीं न कहीं हसरत मोहानी की ही देन है। शायद ही कोई शख्स होगा जिसे उनकी लिखी गज़ल 'चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है' पसंद न हो। इस गज़ल को गुलाम अली ने गाया और बाद में 'निकाह' फिल्म में भी इस गज़ल को शामिल किया गया।

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अपनी गज़लों में उन्होंने रूमानियत के साथ-साथ समाज, इतिहास और सत्ता के बारे में भी काफी कुछ लिखा है। ज़िंदगी की सुंदरता के साथ-साथ आज़ादी के जज़्बे की जो झलक उनकी गज़लों में मिलती है वो और कहीं नहीं है। उन्हें 'उन्नतशील ग़ज़लों का प्रवर्तक कहा जा सकता है। हसरत ने अपना सारा जीवन कविता करने तथा स्वतंत्रता के संघर्ष में प्रयत्न एवं कष्ट उठाने में व्यतीत किया। साहित्य तथा राजनीति का सुंदर सम्मिलित कराना कितना कठिन है, ऐसा जब विचार उठता है, तब स्वत: हसरत की कविता पर दृष्टि जाती है। इनकी कविता का संग्रह 'कुलियात-ए-हसरत' के नाम से प्रकाशित है।उनकी लिखी कुछ खास किताबें 'कुलियात-ए-हसरत', 'शरहे कलामे ग़ालिब', 'नुकाते सुखन', 'मसुशाहदाते ज़िन्दां' हैं। वह ऐसे शायर और आज़ादी के परवाने हैं जिन्हें हिंदुस्तान और पाकिस्तान के लोग समान रूप से प्यार करते हैं। कराची पाकिस्तान में हसरत मोहानी कालोनी, कोरांगी कालोनी हैं और कराची के व्यवसायिक इलाके में बहुत बडे़ रोड का नाम उनके नाम पर रखा गया।

मशहूर शायर मुन्नवर राणा ने अपनी रचना ‘मुहाजिरनामा’ में हसरत मोहानी को याद करते हुए एक शेर लिखा है -

वो पतली सड़क जो उन्नाव से मोहान जाती है, वहीं हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं...

आज़ादी के दीवाने

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ही उनमें देशभक्ति की जज़्बा जगा था। अलीगढ़ के छात्र उस वक्त दो दलों में बंटे हुए थे। एक दल देशभक्त था और दूसरे को बस खुद से मतलब था। मोहानी उस वक्त देशभक्तों के दल में शामिल हो गए। उन्हें तीन बार कॉलेज से निर्वासित किया गया। वह नियमित रूप से स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लेते थे। देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए वह कई बार जेल भी गए। स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने एक खद्दर भंडार भी खोला था जो खूब चला।

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वह बालगंगाधर राव को बड़े सम्मान से तिलक महाराज कहते थे और उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे क्योंकि उन्होंने कहा था कि आज़ादी मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। उनकी पत्नी निशातुन्निसा बेगम, जो हमेशा परदे में रहती थीं, ने भी अपने पति के साथ आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था। मौलाना हसरत मोहानी आज़ादी की लड़ाई में इस तरह घुलमिल गये थे कि उनके लिये कि इस राह में मिलने वाले दुख-दर्द, राहत-खुशी एक जैसे थे। वे हर तरह के हालात में अपने आप को खुश रखना जानते थे। उन्होंने बहुत थोड़ी सी आमदनी से, कभी कभी बिना आमदनी के, गुज़ारा किया। वे अंग्रेजों द्वारा कई बार जेल में डाले गये लेकिन उफ़ तक न की और अपना रास्ता नहीं बदला। उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि वे अंजाम की फिक्र किये बिना, जो सच समझते थे कह देते थे। सच की क़ीमत पर वह कोई समझौता नहीं करते थे।

'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' का नारा

आज भी कोई आज़ादी का आंदोलन चलता है तो 'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' का नारा उसका खास हिस्सा होता है। हमारे देश की कोई भी सियासी पार्टी या कोई संगठन अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन करता है तो इस नारे का इस्तेमाल आन्दोलन में जान फूंक देता है। भारत की आज़ादी की लड़ाई में तो यह नारा उस लड़ाई की जान हुआ करता था और जब भी, जहां भी यह नारा बुलन्द होता था आज़ादी के दीवानों में जोश का तू़फ़ान भर देता था।

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'इंक़लाब ज़िंदाबाद' का यह नारा आज़ादी के अज़ीम-ओ-शान सिपाही मौलाना हसरत मोहानी का दिया हुआ है। भारत की आज़ादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले हिन्दुस्तानी रहनुमाओं और मुजाहिदों की फेहरिस्त में मौलाना हसरत मोहानी का नाम सरे फेहरिस्त शामिल है। उन्होंने इंक़लाब ज़िन्दाबाद का नारा देने के अलावा टोटल फ्रीडम यानि पूर्ण स्वराज्य यानि भारत के लिये पूरी तरह से आज़ादी की मांग की हिमायत की थी। 13 मई 1951 को कानपुर में हसरत मोहानी का देहांत हुआ था।

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