जमीन बेच दी, बैंक से लोन लिया, लेकिन दर्जी पिता ने बेटी को डॉक्टर बनाकर ही दम लिया

Update: 2018-06-05 05:24 GMT
डॉ शगुफा।

झारखंड की राजधानी रांची से 150 किमी दूर सिमडेगा में एक दर्जी हैं। उनका नाम कलाम अहमद है। ये समय ईद का तो नहीं है लेकिन कलाम अहमद के घर में इस समय जश्न सा माहौल है। हो भी क्यों न, कलाम अहमद की बेटी चीन से डॉक्टर बनकर लौटी है।

शुरू की दो लाइन पढ़कर आपको लग रह होगा कि बाहर से तो बहुत से लोग डॉक्टर, इंजीनियर बनकर लौटते हैं, तो हम कलाम अहमद की बात क्यों कर रहे हैं। दरअसल कलाम अहमद की बेटी शगुफा अर्शी का डॉक्टर बनना किसी सपने का पूरा हो जाने जैसा है। कलाम अहमद ने जिन परिस्थियों में शगुफा को पढ़ाया, वो किसी के लिए भी एक जीवंत उदाहरण हो सकता है। ये खबर हिम्मत, हौसले, बलिदान और परिश्रम की है।

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शगुफा के पिता कलाम अहमद सिमडेगा में दर्जी की दुकान चलाते हैं। किसी तरह से अपनी छोटी कमाई से वे घर का भरण-पोषण कर पाते थे। तीन बच्चों पढ़ाई और परविश कलाम के कंधे पर थी। लेकिन उनकी चिंता बड़ी बेटी शुगूफा को लेकर थी। क्यों वो पढ़ने में शुरू से ही तेज थी। वो पढ़ना चाहती थी। कुछ बनना चाहती थी, लेकिन उसकी सपनों के पंख में कलाम की स्थिति बाधक बन रही थी।

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शगुफा अर्शी तब छोटी थीं। वो मामा के साथ पास के ही मेले में घूमने गयी थी। मामा जब शगुफा के लिए खिलौने खरीदने लगे तो उसने कहा कि इससे तो अच्छा होतो कि आप मुझे जूते दिलवा दो। मुझे स्कूल जाने में दिक्कत होती है। ये बात शगुफा के मामा ने उनके पिता को बताया। और यहीं से कलाम समझ चुके थे कि शगुफा में पढ़ने की लगन है।

शगुफा चीन से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी कर अपने घर लौट चुकी है। अपने सफर के बारे में उन्होंने गाँव कनेक्शन को फोन पर बताया "मैंने उर्सलाइन कॉन्वेंट सिमडेगा से 2007 में 92 प्रतिशत से मैट्रिक पास की। अपनी बड़ाई तो नहीं करूंगी लेकिन शुरुआत से ही पढ़ने में तेज थी। 2000 में इलाज के अभाव में अचानक मेरी नानी का इंतकाल हो गया। उस घटना से मुझे बहुत दुख हुआ और उसी समय प्रण ले लिया था कि मुझे डॉक्टर बनकर असहायों की सेवा करनी है। और झारखंड के गांवों में सेवा करने की जिद ठान ली।

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शगुफा के लिए ये भी संभव नहीं था कि वे अपने घर से पढ़ाई पूरी कर पाएं। और न ही उनकी ऐसी माली स्थिति थी कि वे कहीं बाहर जाकर आगे की पढ़ाई पूरी कर पाएं। इस बारे में शगुफा कहती हैं " घर की हालत ठीक नहीं थी। लेकिन मैं पढ़ना चाहती थी।

मेरे घर वालों ने भी मेरा साथ दिया। और मैं आगे की पढ़ाई के लिए अपने मामा मो. उमर के घर रांची चली गई। यहां रांची वीमेंस कॉलेज में दाखिला लिया। 2010 में 75 फीसद अंक लाकर आईएससी किया। इसके बाद मेडिकल टेस्ट के लिए कोचिंग करने लगी। 2011 की बात है, चीन से कैंपस सलेक्शन के लिए आई टीम का पता चला। मैंने ने भी टेस्ट और इंटरव्यू दिया। मेडिकल के लिए सलेक्शन भी हो गया।"

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चीन में मेडिकल की पढ़ाई के लिए सलेक्शन तो हो गया, लेकिन चीन जाना और वहां पूरी पढ़ाई करना तो अपने ही खर्च पर करना था। इस बारे में शगुफा बताती है "मेरे पूरे घर में उस समय तनाव सा माहौल था। हम सोच रहे थे कि पैसे का बंदोबस्त कैसे होगा। अब्बा कलाम भी बहुत परेशान थे। उनकी इस परेशानी को देखकर अम्मी सफिया ने कहा, जमीन कब काम आएगी।"

कलाम ने जमीन बेच दी। चीन की राजधानी बेजिंग से 180 किमी दूर लिंगो विश्वविद्यालय में शगुफा का एडमिशन हो गया। भाषा और खान-पान की दिक्कतें आईं, पर मिशन डॉक्टर में आड़े न आई। कलाम को एजुकेशन लोन भी लेना पड़ा। लेकिन जब बेटी पिछले महीने डॉक्टर बनकर लौटी, तो घर में ईद मनाई गई।

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इस बारे में कलाम कहते हैं "पैगंबर हजरत मोहम्मद ने फरमाया है कि तालीम के लिए चीन भी जाना पड़े, तो जाओ। मेरी बेटी ने इसे साबित कर दिखाया।" शगुफा की प्रेरणा पाकर उसकी छोटी बहन और भाई भी इंजीनियरिंग कर रहे हैं।

इस बारे में रांची के वरिष्ठ पत्रकार सैयद शहरोज कमर कहते हैं "पैगम्बर ने कहा था कि एक बेटी को पढ़ाना, एक खानदान को पढ़ाना है। कलाम अहमद जैसे पिता हर लाडली को मिले। हर अंधकार तालीमी चिराग से ही छंटेगा।"

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