हाथरस गैंगरेप: यूपी में हर रोज हो रहीं 11 बलात्कार की घटनाएं, इन मामलों में कितनी संवेदनशील है पुलिस ?
एक रिपोर्ट के अनुसार यूपी के 14 मामलों में से 11 मामलों में बलात्कार की एफआईआर तब दर्ज हुई जब इनके सहयोग के लिए किसी न किसी सामाजिक कार्यकर्ता का साथ था। फिर भी इनकी FIR दर्ज होने में 2 दिन से लेकर 228 दिन तक का समय लगा।
हाथरस गैंगरेप मामले में पुलिस के रवैए पर कई सवाल उठ रहे हैं? देश के अलग-अलग हिस्सों में लोग प्रदर्शन करके और सोशल मीडिया पर अपना गुस्सा जाहिर करके आक्रोश जता रहे हैं।
देश में किसी लड़की के साथ दरिंदगी का यह कोई पहला मामला नहीं है जब पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठ रहे हों। ऐसे मामलों में ऐसा कई बार हुआ है जब पुलिस की असंवेदनशीलता देखने को मिली है।
अगर यूपी के हाथरस गैंगरेप मामले की ही बात करें तो पीड़िता के परिजनों के आरोप के अनुसार घटना के 10 दिन बाद पुलिस तब सक्रिय हुई जब मामले ने तूल पकड़ा। अगर घटना के पहले दिन से लेकर पीड़िता के शव के दाह संस्कार तक की बात की जाए तो इस पूरे मामले में पुलिस की कार्रवाई कई सवालों के घेरे में है।
देशभर में अपराधों को दर्ज़ करने वाली संस्था राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार भारत में हर 15 मिनट में एक लड़की के साथ रेप होता है। इन घटनाओं में गिनती की कुछ एक घटनाएं ही निर्भया, कठुआ और हाथरस जैसे मामलों की तरह सुर्खियाँ बन पाती हैं। हाथरस में हुए गैंगरेप से उबल रहे देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में महिलाओं की स्थिति अब किसी से छिपी नहीं है।
जिस दिन हाथरस की 19 वर्षीय दलित बेटी दम तोड़ती है, तभी यूपी के बलरामपुर जिले में एक 22 वर्षीय दलित लड़की के साथ दो आरोपी हाथरस जैसी घटना को अंजाम दे देते हैं। खबरों के अनुसार इस मामले में भी आरोपियों ने पीड़िता के साथ बर्बरता की सारे हदें पार कर दीं। इलाज के दौरान पीड़िता की मौत हो गयी।
हाथरस की बेटी की चिता की आग ठंडी भी नहीं हो पायी तबतक इसकी चिता को भी जला दिया गया। बलरामपुर पुलिस ने ट्वीट कर बताया है कि नामजद दोनों आरोपी गिरफ्तार किये जा चुके हैं।
थाना को0 गैंसड़ी की घटना में पुलिस द्वारा कृत कार्यवाही और दो अभियुक्तों की गिरफ्तारी के सम्बंध में SP #balrampurpolice बाइट @Uppolice @AdgGkr @dgpup @UPGovt @InfoDeptUP @PrashantK_IPS90 pic.twitter.com/y2HekCZJ3t
— BALRAMPUR POLICE (@balrampurpolice) September 30, 2020
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के 2018 के आंकड़ों के अनुसार देश में महिलाओं से सम्बंधित अपराध के 3,78,277 मामले दर्ज किये गये। जिसमें हर साल 33,356 मामले बलात्कार के हैं। यानि देश में हर रोज 91 रेप की घटनाएं हो रही हैं। वहीं उत्तर प्रदेश में बलात्कार और यौनिक हिंसा के 3946 रेप केस दर्ज हुए जिसका मतलब है प्रदेश में हर रोज 11 बलात्कार की घटनाएं होती हैं।
यूपी के सीतापुर जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर पिसावां ब्लॉक के एक गांव में रहने वाली एक 17 वर्षीय दलित मूक-बधिर लड़की के साथ 14 अगस्त 2017 को उनके पड़ोसी रिश्तेदार ने दुष्कर्म किया था। मूक-बधिर लड़की ने यह घटना अपनी माँ को नहीं बताई क्योंकि आरोपी ने धमकी दी थी कि अगर वो किसी को बतायेगी तो वो उसे मार डालेगा। घटना के लगभग पांच महीने बाद जब पीड़िता की माँ को पता चला कि उनकी बेटी गर्भवती है तब वो 26 जनवरी 2018 को पिसावां थाने में एफआईआर दर्ज कराने गईं।
पीड़िता की माँ ने गाँव कनेक्शन को बताया, "अपनी बेटी की एफआईआर लिखाने हम कितनी बार थाने गये, इसकी गिनती तो हमें भी याद नहीं है। पर पुलिस ने हर बार हमें टरका दिया। थक हारकर जब हम सीतापुर एसपी साहब के पास गये तब जाकर पिसावां थाने में 22 फरवरी 2018 को एफआईआर लिखी गयी।" यानि इस मामले की एफआईआर दर्ज कराने में पीड़िता के परिवार को 28 दिन का वक़्त लगा। ये घटनाक्रम पुलिस की लापरवाही का एक उदाहरण मात्र है।
महिलाओं को कानूनी विधिक सलाह प्रदान करने वाली दो संस्थाएं एसोसिएशन फॉर एडवोकेसी एंड लीगल इनिशिएटिव (आली) और कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) ने यूपी के 2016 -19 के बीच घटित 14 ऐसे मामलों के बीच 2019-20 में एक शोध किया। ये रिपोर्ट 20 सितंबर 2020 को ई-लॉन्चिंग की गयी। रिपोर्ट के अनुसार 11 मामलों की थाने में एफआईआर दर्ज कराने में दो दिन से लेकर 228 दिन तक का वक़्त लगा, वो भी तब जब हर पीड़िता की मदद के लिए एक सामाजिक कार्यकर्ता का साथ था। इस रिपोर्ट के अनुसार 14 में से हर मामले में पुलिस ने पहली बार में प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने से मना कर दिया। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पुलिस के इस रवैए के खिलाफ़ विधिक उपायों को आज़माना मुश्किल है और अक्सर इसका हल नहीं निकलता।
सीएचआरआई के अंतर्राष्ट्रीय निदेशक संजॉय हज़ारिका ने कहा, "ये रिपोर्ट सिर्फ 14 मामलों के बारे में नहीं है बल्कि उस तरीके के बारे में है जो इन 14 मामलों में दिखाता है कि महिलाएं हिंसा के बाद भी किन चीजों से होकर गुज़रती हैं। महिलाएं जब पुलिस थाने में जाएं तो उन्हें शक की नज़र से न देखा जाए बल्कि ये माना जाए कि वो अपनी आप बीती बताने आई हैं। उच्च अधिकारी से लेकर छोटे अधिकारियों तक जवाबदेही तय होनी चाहिए। जानकारी के अभाव की वजह से यौन उत्पीड़न से पीड़ित महिलाएं नहीं जानती कि उन्हें क्या करना है?"
रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के साथ लैंगिक और जातिगत भेदभाव भी होता है। जाति और जेंडर आधारित भेदभाव की वजह से अपराध की रिपोर्ट दर्ज कराने में मुश्किलें आती हैं जिससे ये महिलाएं हतोत्साहित हो जाती हैं। जब महिलाओं की शिकायत दर्ज नहीं की जाती तो इसका असर उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। कई महिलाएं तो आत्महत्या की तरफ बढ़ने के बारे में भी सोचने लगती हैं।
इस रिपोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट की वकील वृंदा ग्रोवर कहती हैं, "यह रिपोर्ट आज के दौर में ज़रूरी है। इस बात को लिखना और समझना बहुत जरूरी है कि थाने के अंदर जानकारी का बहुत अभाव है। बलात्कार को लेकर पुरानी सोच उन पुलिस वालों में भी है जिन्हें न बलात्कार की समझ है ना ही कानून की।"
वृंदा ग्रोवर आगे कहती हैं, "एनसीआरबी का डाटा दिखाता है कि केस किस कदर बढ़ रहे हैं। पर उपाय के नाम पर कुछ भी नहीं हो रहा है। लोग कहते हैं कि औरतों के पास बहुत कानून हैं, बस महिलाओं के कहने की देरी है और केस दर्ज हो जाते हैं लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे बिलकुल अलग है। महिला अधिकार के बारे में सिर्फ संस्थानों के बीच बात न हो। इस मुद्दे पर सबको मिलकर काम करना होगा।"
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2018 की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में हर साल महिलाओं के खिलाफ हिंसा और अपराध के मामले बढ़ते जा रहे हैं। जहां 2016 में महिलाओं से सम्बंधित अपराधों की संख्या 49,262 थी, वहीं 2017 में यह 56,011 और 2018 में बढ़कर 59,445 हो गई।
आली और सीएचआरआई की रिपोर्ट में पुलिस के रवैये पर जो बाते सामने आयी हैं उस पर उत्तर प्रदेश की पूर्व डीजीपी सुतापा सान्याल कहती हैं, "रिपोर्ट में मुझे 2 महत्वपूर्ण चीजें दिखती हैं एक जवाबदेही की कमी और दूसरा सिस्टम में जो अंतर है। सिस्टम में ही दिक्कतें हैं। पुलिसिंग की ट्रेनिंग और रिफ्रेशर ट्रेनिंग में संवेदनशीलता पर बात बढ़ानी होगी। ट्रेनिंग में मनोवैज्ञानिक को भी शामिल करना होगा जो एटीट्यूड पर बात करे। ऐसा ट्रेनिंग मॉड्यूल होना चाहिए जिसमें व्यवाहारिकता पर बात हो। एसओपी बनानी होगी, जिससे जवाबदेही तय हो। जो लीडर हैं उन्हें बताना होगा कि 166ए(सी) में कोई कोताही नहीं बरती जाएगी।"
देश में निर्भया केस के बाद पुलिस के रवैए पर कुछ धाराएं बढ़ाई गईं। अगर पुलिस यौनिक हिंसा जैसे मामलों में एफआईआर दर्ज नहीं करती है या फिर देरी करती है तो पुलिस के खिलाफ आईपीसी सेक्शन 166 ए (सी) के तहत एफआईआर दर्ज हो। जिसमें सम्बंधित अधिकारी को दो साल की सजा हो सकती है। दूसरा निर्भया के केस के बाद पॉक्सो जैसे मामलों में पुलिस के खिलाफ लापरवाही बरतने पर सेक्शन 21बी के तहत एफआईआर का प्रावधान है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जानकारी के आभाव में पुलिस के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं करवा पाता। यही वजह है कि इस क़ानून को लागू हुए लगभग आठ साल हो गये लेकिन यूपी में किसी को भी सजा नहीं हुई है।
निर्भया केस के बाद ही महिला सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार ने साल 2013 में 'निर्भया फंड' की स्थापना की। महिला सुरक्षा कानून-व्यवस्था का विषय है और कानून-व्यवस्था राज्य सरकारों की जिम्मेदारी होती है इसलिए निर्भया फंड के तहत वित्त मंत्रालय द्वारा राज्य सरकारों को पैसा जारी करने की घोषणा की गई। पूरे देश में स्वीकृत फंड का केवल 63.45 प्रतिशत ही खर्च हो पाया। फंड का खर्च न हो पाना भी पुलिस की लापरवाही है।
यूपी, झारखंड और बिहार राज्यों में महिला को नि:शुल्क कानूनी सलाह प्रदान करने वाली संस्था आली की कार्यकारी निदेशक और वकील रेनू मिश्रा कहती हैं, "पुलिस को अभी इस बात का डर नहीं है कि अगर वो इस तरह के मामलों में तुरंत एफआईआर दर्ज नहीं करेंगे, चार्जशीट समय से दर्ज नहीं करेंगे, मामले की सही से जांच नहीं करेंगे तो उनके खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है। जबतक इन सवालों की उनपर जवाबदेही तय नहीं होगी तबतक पुलिस का रवैया नहीं बदलेगा।"
वो आगे कहती हैं, "निर्भया केस के बाद देश में महिलाओं के लिए कितने कानून बने? सिर्फ कानून बनाना ही उनके लिए काफी नहीं है। आप उन्नाव का सेंगर केस ही ले लें, पीड़िता के पिता को ही जेल भेज दिया। उन्नाव केस में सीबीआई ने जांच में एक साल लगा दिया इनसे सवाल क्यों नहीं"?
गाँव कनेक्शन ने पिछले वर्ष रेप के बाद पीड़िताओं की जिंदगी को समझने के लिए एक विशेष सीरीज शुरू की थी जिसका नाम था 'बलात्कार के बाद'. सात भाग की इस सीरीज में पुलिस के रवैए पर भी स्टोरी थी। सीरीज के पांचवे भाग में इस बात का जिक्र है कि कई बार बलात्कार पीड़िता सीधे बलात्कार न कहकर 'गलत काम किया' कह देती है, एफआईआर में शब्दों का हेरफेर ही दोषियों की आज़ादी का बड़ा कारण बनता है।
यूपी के फतेहपुर जिले में एक नाबालिग बेटी का पांच जनवरी 2018 को अपहरण हो जाता है। गाँव के कुछ लोग तीन दिन तक उसके साथ गैंगरेप करते हैं। तीसरे दिन आरोपी शाम को गाँव के बाहर पीड़िता को छोड़कर चले जाते हैं। तीन दिन तक बेटी का पिता अनगिनत बार थाने जाते हैं पर एफआईआर दर्ज नहीं हुई।
पीड़िता के पिता बताते हैं, "पुलिस चौकी पर अपहरण की रिपोर्ट लिखवाने गये तो चौकीवालों ने कहा- थाने जाओ, जब थाने गये तो दरोगा बोले- कल शाम तक तुम्हारी बेटी आ जायेगी। जब दूसरे दिन बिटिया नहीं आयी हम फिर थाने गये, दरोगा ने झल्लाकर कहा आ जायेगी कल शाम तक। मरता क्या न करता मैं चुपचाप घर आ गया। बेटी का इंतजार करने के आलावा हमारे पास दूसरा चारा नहीं था।"
वो आगे बताते हैं, "जब बेटी वापस आ गयी और उसने हमें पूरी घटना बताई तब भी थाने में एफआईआर दर्ज नहीं की गयी, मजबूरी में मुझे कोर्ट जाना पड़ा। सुलह समझौता के लिए बहुत धमकियां मिलीं। इस घटना के बाद अपनी गरीबी और पढ़े-लिखे न होने पर मैं बहुत रोया। कोई ये कहने वाला नहीं था कि परेशान मत हो हम तुम्हारी बेटी को न्याय दिलाने में मदद करेंगे।" पीड़िता के पिता अपनी गरीबी, समाज के दुर्व्यवहार और पुलिस के असंवेदनशील रवैये को बार-बार कोस रहे थे।
आरोपियों को जेल तक पहुँचाने में इस मजदूरी करने वाले पिता के ऊपर डेढ़ लाख रूपये का कर्जा हो गया था। रानी लक्ष्मीबाई महिला सम्मान प्रकोष्ठ के तहत पीड़िता के पुनर्वास के लिए मिलने वाली सात लाख रुपए की मुआवजा राशि भी इस पीड़िता को नहीं मिली थी। इस राशि को दिलाना भी पुलिस की जिम्मेदारी होती है।
देश में दलित महिलाओं के लिए काम करने वाले संगठन 'दलित वुमेन फाईट' की सदस्य शोभना स्मृति जो 10 वर्षों से दलित महिलाओं के साथ काम कर रही हैं वो बताती हैं, "थाने में भी जाति और धर्म के नाम पर भेदभाव होता है। पुलिस का रवैया बिल्कुल संवेदनशील नहीं रहता। जब दलित महिलाएं थाने में यौन हिंसा से संबंधित कोई भी मामला दर्ज करवाने जाती हैं तो कई बार पुलिस वाले जो उनके लिए बोलते हैं वो आप सुन नहीं सकतीं। कभी कहते पैसों के लिए कपड़े फड़वाकर आ गयी हो तो कभी कहते चेहरे की शक्ल देखी है अपनी, जो तुम्हारे साथ कोई रेप करेगा। ऐसे न जाने कितने अपशब्द पीड़िता को सुनने पड़ते हैं।"